संस्कृतिकिताबें हिंदी साहित्य की कहानियों में घरेलू श्रम की अदृश्य दुनिया

हिंदी साहित्य की कहानियों में घरेलू श्रम की अदृश्य दुनिया

हिंदी साहित्य में बहुत कम कहानियां मिलती हैं, जहां लेखक की दृष्टि में घरेलू श्रम आता है और जिन कहानियों में घरेलू श्रम आता भी है वहां केंद्र में घरेलू काम की चक्की में पिसती महिला के जीवन की विडंबना पर कम बात की गई है।

हिंदी कहानियों में घरेलू श्रम लगभग अदृश्य दिखाई देता है, क्योंकि इसे हमेशा से महिलाओं के जीवन का स्वाभाविक हिस्सा माना गया है। हमारे समाज में घर के कामों को महिलाओं की जिम्मेदारी समझा गया, जबकि पुरुष इन कामों से दूर रहे। इसलिए जिन हाथों में कलम थी या जो कविता, कहानी और साहित्य रच रहे थे। वे घरेलू श्रम की दुनिया से अनजान थे। महिलाओं को पढ़ने-लिखने की आज़ादी पुरुषों की तुलना में बहुत देर से मिली। उन्हें सदियों तक शिक्षा और अधिकारों से वंचित रखा गया।

घर की ज्यादातर जिम्मेदारियां महिलाओं पर ही होती थीं, जिसके कारण उनके पास लेखन और अध्ययन के अवसर बहुत कम रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि पुरुष लेखकों ने भले ही साहित्य को अच्छी कहानियां दीं। लेकिन घरेलू श्रम जो महिलाओं के जीवन का बड़ा हिस्सा है, उनकी कहानियों में लगभग पूरी तरह अनुपस्थित या अनदेखा रहा। अगर महिलाओं के हाथ में पुरुषों के साथ ही कलम आयी होती तो आज शायद साहित्य का परिदृश्य कुछ और होता। समाज और व्यवस्था में भी बदलाव आता और हमारा समाज ज्यादा समावेशी होता साथ ही व्यवस्था में महिलाओं के लिए पर्याप्त जगहें होतीं। 

हिंदी कहानियों में घरेलू श्रम लगभग अदृश्य दिखाई देता है, क्योंकि इसे हमेशा से महिलाओं के जीवन का स्वाभाविक हिस्सा माना गया है। हमारे समाज में घर के कामों को महिलाओं की जिम्मेदारी समझा गया, जबकि पुरुष इन कामों से दूर रहे।

अदृश्य घरेलू श्रम और हिंदी साहित्य में उसकी झलक

शिवरानी देवी अपने संस्मरण में लिखती हैं कि प्रेमचंद उन्हें कहानी नहीं लिखने के लिए आग्रह करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि घरेलू जिम्मेदारियों के बीच कहानी लिखने के लिए उन्हें परेशान होना पड़ता है, लेकिन वह नहीं मानी और कहानियां लिखती रहीं । यहां तक कि आज़ादी के आंदोलन में भी शामिल हुई और जेल भी गईं । ये रेखांकित की जाने वाली बात है कि प्रेमचंद और शिवरानी दोनों लेखक थे लेकिन प्रेमचंद ने जाने कितना साहित्य रचा ,कितनी कहानियां ,उपन्यास लेख ,आलोचना ,विमर्श आदि और वह चाहकर भी महज कुछ कहानियां , और एक संस्मरण लिख सकीं । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, वह घरेलू श्रम और जिम्मेदारियों में आजीवन उलझी रहीं। 

हिंदी साहित्य में बहुत कम कहानियां मिलती हैं, जहां लेखक की दृष्टि में घरेलू श्रम आता है और जिन कहानियों में घरेलू श्रम आता भी है वहां केंद्र में घरेलू काम की चक्की में पिसती महिला के जीवन की विडंबना पर कम बात की गई है। लेकिन फिर भी हिंदी साहित्य की कहानियां एकदम घरेलू काम से अनभिज्ञ हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उपन्यासकार अमरकांत की कहानी ‘दोपहर का भोजन‘ एक घरेलू महिला के कठिन जीवन की कहानी है। इस कहानी में एक  महिला अपने परिवार के लिए भोजन बनाती है, सबको परोसती और उनकी देखभाल करती है, लेकिन खुद भूखी रह जाती है। यह निम्नमध्यवर्गीय परिवार की कठिनाइयों और तकलीफों की कहानी है लेकिन सबसे ज्यादा नजरअंदाज और दुखी महसूस करने वाली पात्र वही महिला है। यह कहानी हमारे भारतीय परिवारों में महिलाओं  की स्थिति को दिखाती है, जहां उनकी मेहनत और त्याग को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।

अमरकांत की कहानी ‘दोपहर का भोजन’ एक घरेलू महिला के कठिन जीवन की कहानी है। इस कहानी में एक महिला अपने परिवार के लिए भोजन बनाती है, सबको परोसती और उनकी देखभाल करती है, लेकिन खुद भूखी रह जाती है।

साहित्य में छूटी महिलाओं की संवेदनाएं 

घरेलू श्रम के संसार की सबसे मुखर कहानी है सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कहानी ‘रोज़’। यह कहानी एक घरेलू श्रम में उलझी महिला की ऊब या थकान की कहानी है। इसमें लेखक मालती के घर जाता है जो कि उसकी दूर के रिश्ते की बहन है। वह उसके जीवन की एकरसता और उदासीनता देखकर हैरान रह जाता है। उसने देखा कि किस तरह घरेलू श्रम की नीरसता और ऊब ने कैसे एक चंचल ,खिलंदड़ (खुशमिजाज) लड़की से उसकी भावनात्मक जीवंतता और उत्साह छीन लिया है और किस तरह उसकी संवेदनशीलता एक दिन सूख यानी खत्म जाती है। इसलिए महिलाओं के जीवन में घरेलू श्रम महज एक कठिन श्रम ही नहीं एक ऊब और एकरसता से भरा हुआ काम भी होता है जो उन्हें बहुत हद तक वातावरण से बेजार भी कर देता है।

हिंदी कहानी में घरेलू श्रम बहुत ध्यान से खोजने पर मिलता है और वह अमूर्त रूप से रहता है। इसका एक कारण यह भी है कि हिंदी साहित्य में घरेलू श्रम का ज़िक्र अगर कहीं-कहीं मिलता भी है, तो कथाकार यहां ठहरते नहीं हैं।  वे जीवन की अन्य विडंबनाओं पर ध्यान देते हुए घरेलू श्रम के विषय को बस हल्के से छूकर आगे बढ़ जाते हैं। भारतीय समाज में जिस तरह से पुरूष घरेलू कामकाज से दूर रहे उसकी साफ झलक यहां के साहित्य में   दिखती है। हालांकि प्रेमचंद की कुछ कहानियों में घरेलू श्रम की बात होती है लेकिन जिस तरह से घरेलू श्रम महिला कथाकारों जैसे ममता कालिया, मालती जोशी , महादेवी वर्मा आदि के लेखन में दिखता है। उस तरह नहीं दिखता, प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े घर की बेटी‘ में नायिका को न चाहते हुए घरेलू काम करना पड़ता है कहानी में यह पहलू मौजूद होते हुए भी, कथाकार ने इसे केंद्र में नहीं रखा। लेकिन कथाकार ने घरेलू कलह और पुरूष वर्चस्व और घर के भीतर पुरुषों की हिंसा के विषय को केंद्रीय मुद्दा बनाया गया है।  

प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ में नायिका को न चाहते हुए घरेलू काम करना पड़ता है कहानी में यह पहलू मौजूद होते हुए भी, कथाकार ने इसे केंद्र में नहीं रखा। लेकिन कथाकार ने घरेलू कलह और पुरूष वर्चस्व और घर के भीतर पुरुषों की हिंसा के विषय को केंद्रीय मुद्दा बनाया गया है।  

घरेलू जीवन में महिलाओं की जद्दोजहद

लेखिका ममता कालिया की कहानी, ‘बोलने वाली औरत’ घरेलू श्रम की ऊब और नीरसता में फंसी एक महिला शिखा की कहानी है। शिखा का पति कपिल चाहता है कि वह एक आदर्श पत्नी की तरह घर के रूटीन का हिस्सा ओढ़ ले और सब ठीक चलता रहे। शिखा बिना मन के घरेलू कामों में लगती जरूर है। लेकिन उसका मन किताब, कागज और कलम की ओर आकर्षित होता है। जीवन इसी ऊब और आवश्यकता के ढर्रे पर चलता रहता है और वह दो बच्चों की माँ बन जाती है। लेकिन बच्चे घर के पितृसत्तात्मक परिवेश का ही और आधुनिक उत्पाद साबित हुए। बच्चे शहजादों की तरह बर्ताव करते। खाना ,नाश्ता के बाद अपनी जूठी प्लेटें भी नहीं हटाते। एक दिन शिखा ने बड़े बेटे से झूठी प्लेट हटाने को कहा तो उसने मना किया और शिखा से बदतमीजी की। शिखा ने बेटे को थप्पड़ लगा दिया तो उसने भी शिखा को थप्पड़ मारा और शिखा के होठों से खून बहने लगा तो सास ने शिखा को ही कोसा कि तुम ही जूठी प्लेट क्यों नहीं उठाती बच्चे से क्यों कहा और अंत में वही बात जो हम भारतीय परिवार में माँ के लिए कहा जाता है कि तुमने ही बच्चे को खराब किया है।  

भारतीय समाज और संयुक्त परिवारों में कोई भी चेतनाशील महिला चाहकर भी अपने बच्चों को पितृसत्तात्मक विचार से बचा नहीं सकती। शिखा के साथ भी वही हुआ। हालांकि ये भी कहानी महिला के बोलते रहने की चेतना पर केंद्रित है लेकिन इसके तार घरेलू श्रम से भी उतने जुड़े हुए हैं। इसी क्रम में लेखिका सुधा अरोड़ा की कहानी ‘रहोगी तुम वही’ याद आती है। ये पूरी कहानी महिला को घरेलू श्रम में फंसा देने की कहानी है लेकिन उसके बाद भी पुरूष को चैन नहीं है वो अपना सारा फ्रस्ट्रेशन पत्नी पर ही उतारता रहता है। इस कहानी में पति- पत्नी को जहां एक तरफ घर के काम में दिन-रात उलझाए रखता है वहीं दूसरी ओर उसे ताने भी देता रहता है जैसे, ‘क्या यह ज़रूरी है कि तीन बार घंटी बजने से पहले दरवाज़ा खोला ही न जाए? ऐसा भी कौन सा पहाड़ काट रही होती हो। आदमी थका – मांदा ऑफिस से आए और पांच मिनट दरवाज़े पर ही खड़ा रह।’ वह उसे आलसी,फ़ैशन परस्त तो कभी ज़ाहिल कहता है। ये कहानी एक तरह से भारतीय समाज के दाम्पत्य जीवन का दर्पण है।

ममता कालिया की कहानी, ‘बोलने वाली औरत’ घरेलू श्रम की ऊब और नीरसता में फंसी एक महिला शिखा की कहानी है। शिखा का पति कपिल चाहता है कि वह एक आदर्श पत्नी की तरह घर के रूटीन का हिस्सा ओढ़ ले और सब ठीक चलता रहे।

घर की जिम्मेदारी और महिला अस्मिता 

मालती जोशी की कहानी ‘सन्नाटा’ महिलाओं के घरेलू काम और जिम्मेदारियों के बीच अपने लिए पहचान बनाने की मुश्किल कोशिश के बारे में है। कहानी की नायिका उत्तरा को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलता है तो पति कहता है कि मैंने इन्हें पूरी आज़ादी दी है, घर की सारी जिम्मेदारी मैं संभालता हूं,  जबकि यथार्थ यह था कि उस व्यक्ति को पहले माँ और बहने संभालती थी फिर पत्नी और बेटियों पर वह निर्भर रहता था। उत्तरा के लिखने-पढ़ने को लेकर उसे पति या परिवार से कभी कोई सहयोग नहीं मिला। मालती जोशी की ये कहानी भी महिला की अस्मिता और घरेलू जिम्मेदारियों के बीच खड़ी महिला  के जद्दोजहद की कहानी है।

कथाकार मनोज कुमार पांडेय की कहानियों में घरेलू श्रम की दुनिया दिखती है। वहां महिला घरेलू श्रम की जिस चक्की में पिसती रहती है मनोज पांडेय ने उन दृश्यों पर गहरी नजर डाली है। उनकी कहानी जीन्स ,बेहया , बिच्छू में घरेलू श्रम में जूझती एक चुप सी महिला डोलती रहती है जिसके लिए लेखक के मन में संवेदना दिखती है। हमारे समाज की संरचना में घरेलू काम में पुरुषों की भागीदारी हमेशा से ही कम रही है  या बिल्कुल नहीं रही इसलिए यहां की लिखी गयी कहानियों में भी घरेलू श्रम लगभग अनदेखा ही रहा। इसे हिंदी कहानियों की विडम्बना ही कहा जा सकता है कि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कहानी रोज़ को छोड़कर हिंदी साहित्य की कहानियों में कोई भी कहानी महज घरेलू श्रम पर आधारित नहीं मिलती।

हिंदी साहित्य की कहानियों में घरेलू श्रम का अभाव सिर्फ विषय की कमी नहीं, बल्कि दृष्टि की कमी भी है। जब तक साहित्य में घर के भीतर की दुनिया, वहां का काम, थकान और महिलाओं की संवेदना बराबर स्थान नहीं पाएंगे, तब तक समाज की पूरी तस्वीर अधूरी ही रहेगी। समय आ गया है कि कहानीकार घर की चारदीवारी में छिपे उस अनकहे और अनदेखे काम को भी उतनी ही गहराई से देखें जितनी समाज और राजनीति की कहानियों को। क्योंकि जब घरेलू काम साहित्य में दिखेगा, तभी महिला का जीवन और उसका अस्तित्व सही अर्थों में दिखाई देगा।

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