उर्दू साहित्य के इतिहास में कई ऐसे नाम हैं जो समय के साथ भुला दिए गए हैं। लेकिन उनकी गूंज अब भी महसूस की जा सकती है। साहित्य जगत में महिलाओं की तुलना में पुरुषों का ज्यादा बोलबाला रहा है। लेकिन इतिहास में कुछ महिलाएं ऐसी भी हुई हैं जिन्होंने उर्दू सीखा ही नहीं, बल्कि एक लेखिका के रूप में अपनी पहचान भी कायम की। उन्हीं में से एक हैं ‘सफ़िया अख़्तर’ एक ऐसी लेखिका, जिनके लेखन ने महिलाओं के अनुभव, प्रेम और समाज में बदलाव की भावना को गहराई से व्यक्त किया। वह अपने समय की शिक्षित और आत्मनिर्भर लेखिका थीं।
जब समाज में महिलाओं की आवाज़ को अक्सर अनसुना कर दिया जाता था। उस वक्त सफ़िया ने न केवल लिखना चुना बल्कि अपने विचारों के माध्यम से उस दौर की पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच को भी चुनौती दी। उनकी पहचान महज़ मशहूर शायर जां निसार अख़्तर की पत्नी या कवि जावेद अख़्तर की माँ भर की नहीं थी। वह खुद एक आजाद सोच रखने वाली लेखिका और शिक्षिका थीं । उनके लिखे पत्र और लेख आज भी यह याद दिलाते हैं कि साहित्य केवल भावनाओं का नहीं, बल्कि विचार और साहस का एक हिस्सा है, जो हर एक साहित्य प्रेमी को अपनी और आकर्षित करता है।
‘सफ़िया अख़्तर’ एक ऐसी लेखिका हैं जिनके लेखन ने महिलाओं के अनुभव, प्रेम और समाज में बदलाव की भावना को गहराई से व्यक्त किया। वह अपने समय की शिक्षित और आत्मनिर्भर लेखिका थीं।
शुरुआती जीवन और शिक्षा
सफ़िया अख्तर का जन्म रुदौली शरीफ़ के एक प्रसिद्ध सूफी परिवार में हुआ था। उनके पिता, चौधरी सेराज-उल-हक़ जो कि अपने गांव के पहले लॉ ग्रेजुएट थे। सफ़िया को बचपन से ही पढ़ाई – लिखाई का बहुत शोक था। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा घर पर रहकर ही की। उनके पिता ने उन्हें ख़ुद उर्दू, अंग्रेज़ी और फ़ारसी पढ़ाई और एक महिला शिक्षिका ने उन्हें कुरान पढ़ाई। उनकी पढ़ाई की शुरुआत लखनऊ के करामत हुसैन मुस्लिम गर्ल्स कॉलेज से हुई, जहां उन्होंने चौथी कक्षा में दाखिला लिया। उनकी माँ नहीं चाहती थीं कि वह किसी ब्रिटिश महिला के अधीन पढ़े। इसी कारण सफ़िया के पिता ने अपना तबादला आगरा से अलीगढ़ करवा लिया, ताकि उनके सभी बच्चे एक ही जगह पर रहकर अच्छी शिक्षा पा सकें।
इसके बाद उनका दाखिला अब्दुल्ला कॉलेज में सातवीं कक्षा में हुआ। पहले ही साल उन्होंने बेहतरीन प्रदर्शन किया और उन्हें डबल प्रमोशन मिला। उसके बाद भी वे अपनी कक्षा में पहली श्रेणी से पास होती रहीं। कहा जाता है कि कुछ लड़के उससे ईर्ष्या करने लगे थे क्योंकि उनके माता-पिता अपने बेटों को उसकी मिसाल देते थे। इसलिए उन्होंने उनके नौकर से पता लगाया कि घर में सफ़िया का कमरा कौन सा है और जब रात को देर तक उनके कमरे में रोशनी जलती रहती, तो वे उन्हें परेशान करने के लिए रोशनदान में पत्थर फेंकते थे। इंटरमीडिएट की पढ़ाई प्रथम श्रेणी में पूरी करने के बाद, गर्ल्स कॉलेज में बीए की कक्षाएं खुलने के इंतज़ार में एक साल बाद ही वह अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर पाईं। उन्हें पढ़ाई के लिए अलीगढ़ के छात्रावास में रखा गया। वहां उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की और बी.टी. (बैचलर ऑफ़ टीचिंग) की डिग्री में सबसे अच्छे अंकों से पास हुईं। उनके शिक्षक उनके प्रदर्शन से इतने प्रभावित हुए कि जल्द ही उन्हें प्रशिक्षण कार्यक्रम की पर्यवेक्षक (सुपरवाइज़र) के पद पर नियुक्त कर लिया गया।
उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की और बी.टी. (बैचलर ऑफ़ टीचिंग) की डिग्री में सबसे अच्छे अंकों से पास हुईं। उनके शिक्षक उनके प्रदर्शन से इतने प्रभावित हुए कि जल्द ही उन्हें प्रशिक्षण कार्यक्रम की पर्यवेक्षक (सुपरवाइज़र) के पद पर नियुक्त कर लिया गया।
सफ़िया का संघर्षपूर्ण जीवन
सफ़िया का निकाह या शादी साल 1943 में जां निसार अख्तर से हुई। उन्होंने शादी के बाद मास्टर डिग्री प्रोगाम में दाखिला ले लिया । उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसलिए वह घर से बाहर काम कर रही थीं क्योंकि यह उनके लिए एक जरूरत बन गई थी। क्योंकि उनके पति अक्सर एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते थे और हमेशा स्थायी नौकरी नहीं करते थे। ऐसे में सफ़िया ने अपने दोनों बच्चों के साथ-साथ अपने पति की भी, जब वे बेरोजगार थे, पूरी जिम्मेदारी से देखभाल की। यानी ज़्यादातर समय अकेले रहना,पूरा समय काम करना,घर संभालना और साथ ही दो बच्चों की परवरिश करना अकेले उन्हीं को करना पड़ता था। जब उनका दूसरा बच्चा बहुत जल्दी आ गया, तो सफ़िया की छोटी बहन पहले बच्चे को लखनऊ ले गईं, ताकि उनको कुछ आराम मिल सके।
लेकिन अबॉर्शन के बाद उनकी सेहत तेजी से बिगड़ने लगी और वे अब अपने काम खुद करने में असमर्थ हो गईं। उनकी बीमारी के दौरान उनके पति बंबई में थे, जहां वे फ़िल्मी गीत लेखन में अपनी किस्मत आजमाने गए थे। वे एक उच्च कोटि के कवि थे, लेकिन फ़िल्मी गीत लेखन में उन्हें ज़्यादा सफलता नहीं मिली और पैसे न होने के कारण वे लखनऊ में सफ़िया से मिलने तक नहीं जा सके । जब उन्हें तार मिला कि उनकी पत्नी की हालत ठीक नहीं है, तो एक फ़िल्म अभिनेत्री ने उन्हें लखनऊ के टिकट के पैसे उधार दिए। जब वे लखनऊ पहुंचे तो सफ़िया की मृत्यु हो चुकी थी। उनकी मृत्यु 17 जनवरी साल 1953 को उनकी शादी के दस साल से भी कम समय बाद हो गई थी।
1 अक्टूबर 1943 से 29 दिसंबर 1953 के बीच लिखे गए इन पत्रों का एक संग्रह पहली बार 1955 में ‘हर्फ़-ए-आशना’ और ‘ज़ेर-ए-लब’ शीर्षक से दो खंडों में उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ था। इन पत्रों या खतों की आसान भाषा, और अपनी अलग शैली की वजह से लोग इन्हें पढ़कर ग़ालिब के पत्रों की याद करते हैं।
नौ सालों के खत, एक लेखिका की विरासत
सफ़िया एक लोकप्रिय शिक्षिका, प्रतिभाशाली लेखिका और संवेदनशील साहित्यिक आलोचक थीं। उन्हें अपनी पूरी क्षमता दिखाने के लिए बहुत अधिक समय नहीं मिला। फिर भी, उर्दू साहित्य में उनकी पहचान उनके उन पत्रों या खतों से बनी, जो उन्होंने नौ सालों तक अपने पति निसार को लिखे थे। 1 अक्टूबर 1943 से 29 दिसंबर 1953 के बीच लिखे गए इन पत्रों का एक संग्रह पहली बार 1955 में ‘हर्फ़-ए-आशना’ और ‘ज़ेर-ए-लब’ शीर्षक से दो खंडों में उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ था। इन पत्रों या खतों की आसान भाषा, और अपनी अलग शैली की वजह से लोग इन्हें पढ़कर ग़ालिब के पत्रों की याद करते हैं। उनके अपने निबंधों में, जो अधिकतर साहित्यिक आलोचनाएं हैं, उसमें वह एक विद्वान लेखिका के रूप में दिखाई देती हैं। कई लेखकों ने उनके खतों पर टिप्पणी की है लेकिन इसमें पुरुष और महिला आलोचकों की राय में साफ अंतर दिखाई देता है। एक ओर, यह कहा जाता रहा है कि ये पत्र कुछ अंतरंग और निजी थे, और इन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए था।
वहीं उनके साथ रहने वाली सलमा इसे ‘दास्तान-ए-ग़म” कहती हैं । यानी जो दुख उन्होंने अपने पति के साथ साझा किए थे और जिन्हें वह उजागर नहीं करना चाहती थीं। वहीं कुछ साहित्यकारों ने इनकी बहुत सराहना की है। उर्दू कथाकार कृष्ण चंद्र को ये पत्र बहुत ही सुंदर रचनाएं लगीं जो उन्हें कालिदास के ‘मेघदूत’ की याद दिलाते थे। जबकि कुर्रतुल ऐन हैदर ने इन पत्रों पर अपने कठोर शब्दों में अपनी गहरी नाराज़गी व्यक्त की। वहीं प्रोफ़ेसर फ़िराक़ गोरखपुरी ने उनके खतों की बहुत सराहना की और कहा कि, बीमारी और फुरसत की कमी के बावजूद, उन्होनें ख़तों को एक ही बार में पढ़ डाला। क्योंकि ऐसे पवित्र प्रेम और कोमलता के ख़त शायद ही किसी साहित्य में मिलें।
इन खतों ने उन्हें एक लेखिका के रूप में प्रसिद्ध बनाया। वो अपनी ज़िंदगी का बहुत कम समय अपने लेखन को दे पाईं लेकिन उन्होंने अपनी बातें साझा करने के लिए जो खत लिखे वो आज साहित्य के क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना चुके हैं। जिनके माध्यम से उन्हें साहित्य के क्षेत्र में उनके नाम के साथ हमेशा याद किया जाता रहेगा । सफ़िया अख्तर ने अपने समय में महिलाओं की आवाज़ को महत्व दिया और उसे मजबूती से व्यक्त किया। उन्होंने अपने पत्रों और लेखन के माध्यम से प्रेम, अनुभव और समाज में बदलाव की भावना पेश की। शिक्षिका और लेखिका और एक माँ के रूप में उन्होंने कठिनाइयों के बावजूद अपने विचारों और रचनाओं को साझा किया। उनका जीवन और लेखन आज भी हमें यह दिखाते हैं कि सच्चा साहित्य ईमानदारी, संवेदना और साहस से बनता है। उनके खत और लेखन उर्दू साहित्य में हमेशा याद रखे जाएंगे और महिलाओं की आवाज़ का प्रतीक बने रहेंगे।

