भारतीय समाज में जहां आज़ादी की लड़ाई का इतिहास अक्सर पुरुषों के नाम से भरा मिलता है, वहीं कुछ महिलाएं ऐसी भी थीं जिन्होंने न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, बल्कि आज़ादी के बाद के भारत में वर्ग, जाति और जेंडर आधारित हिंसा के ख़िलाफ़ भी अपनी आवाज बुलंद की। यही वह समय था जब महिलाओं ने घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर न केवल अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, बल्कि समानता और न्याय के लिए भी अपने हक़ की लड़ाई लड़ी। इन्हीं महिलाओं में से एक थीं कॉमरेड अहिल्या रंगनेकर जिन्होंने महिलाओं की आज़ादी को केवल भावनात्मक या सांस्कृतिक नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक आधार पर जोड़ने की कोशिश की। इसलिए उन्होंने अपने पूरे जीवन महिलाओं के अधिकारों से जुड़े हुए काम किए। उनका मानना था कि महिलाओं को काम और जेंडर दोनों स्तरों पर समानता मिलनी चाहिए।
उन्होंने जिस दौर में राजनीति में कदम रखा, वह समय महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के लिहाज़ से बहुत ही ज़्यादा चुनौतीपूर्ण था। क्योंकि महिलाओं का राजनीति में आना एक आदर्श महिला के लिए सही नहीं माना जाता था। लेकिन उन्होंने इन पितृसत्तात्मक नियमों को तोड़ते हुए न सिर्फ़ मजदूर और किसान आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई, बल्कि महिलाओं के सवालों को इन आंदोलनों के केंद्र में लाने में अपना योगदान दिया। उनके जीवन का मुख्य उदेश्य ही यह था कि हर एक महिला राजनितिक रूप से जागरूक हो और आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर न हो और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सके।
कॉमरेड अहिल्या रंगनेकर जिन्होंने महिलाओं की आज़ादी को केवल भावनात्मक या सांस्कृतिक नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक आधार पर जोड़ने की कोशिश की। इसलिए उन्होंने अपने पूरे जीवन महिलाओं के अधिकारों से जुड़े हुए काम किए। उनका मानना था कि महिलाओं को काम और जेंडर दोनों स्तरों पर समानता मिलनी चाहिए।
शुरुआती जीवन और शिक्षा
अहिल्या रगणेकर का जन्म 8 जुलाई 1922 में पुणे के एक मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ था। उनके पिता त्रिम्बक रणदिवे एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने महात्मा जोतिराव फुले और अन्य नेताओं के अंतर्गत सामाजिक सुधार आंदोलन का समर्थन किया था। उन्होंने धर्म, जाति और जेंडर के आधार पर भेदभाव का सक्रिय रूप से विरोध किया। युवावस्था में, अहिल्या अपने बड़े भाई बी.टी. रणदिवे से प्रभावित थीं, जो कम्युनिस्ट संगठनकर्ता या नेता थे। वह पढ़ाई में बहुत अच्छी थीं, और साथ ही खेल, और गायन में भी बढ़ – चढ़ कर भाग लिया करती थीं। पुणे और ठाणे में स्कूली शिक्षा के बाद, उन्होंने साल 1942 में 20 साल की उम्र में पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में बी.एससी. पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। 8 अगस्त, 1942 को जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो उसके अगले ही दिन पूरे नेताओं को जेल में डाल दिया गया था, जो इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे।
इसे देख अहिल्या ने कई अन्य छात्राओं के साथ मिलकर पुणे में एक विरोध रैली का नेतृत्व किया। लेकिन उन सभी को भी उनके साथ गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। जेल में, इन लड़कियों ने सफेद, नारंगी और हरे रंग की साड़ियों को काटकर और सिलकर, कोयले से अशोक चक्र बनाकर एक अस्थायी राष्ट्रीय ध्वज बनाया। उन्होंने जेल की दीवार के अंदर एक पिरामिड बनाया और जेल में राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया। इस कारण उनकी जेल की अवधि बढ़ा दी गई । यहां तक कि अहिल्या को फर्ग्यूसन कॉलेज से भी निकाल दिया गया और उसके बाद वे बंबई के रुइया कॉलेज वापस आ गईं, जहां से उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की।
जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो उसके अगले ही दिन पूरे नेताओं को जेल में डाल दिया गया था, जो इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे।इसे देख अहिल्या ने कई अन्य छात्राओं के साथ मिलकर पुणे में एक विरोध रैली का नेतृत्व किया। लेकिन उन सभी को भी उनके साथ गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
राजनीति में पहला कदम और कम्युनिस्ट आंदोलन में योगदान
अहिल्या का राजनीतिक सफर कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही शुरू हो गया था । साल 1943 में वह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। साथ ही अन्य कम्युनिस्ट महिला स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर, उन्होंने लालबाग-परेल क्षेत्र की महिलाओं को संगठित करने के लिए परेल महिला संघ का गठन किया, जिसने महिला कपड़ा मज़दूरों के कई सफल संघर्षों का नेतृत्व किया। यही संगठन आगे चलकर श्रमिक महिला संघ बना और फिर बाद में जनवादी महिला संगठन ( एआईडीडब्ल्यूए ) बना। जो आज भी भारत का सबसे बड़ा प्रगतिशील महिला संगठन है। उन्होंने महिला मिल मजदूरों के लिए मातृत्व अवकाश और बेहतर वेतन की मांग उठाई। मुंबई के मिल मजदूरों और उनके परिवारों के बीच एक मजबूत आधार के साथ, उन्होंने युद्ध के दौरान दूध और अन्य जरूरी चीजों की कमी का मुद्दा भी उठाया, क्योंकि उस समय हर सामान महंगी कीमत पर बेचा जा रहा था, जिससे सरकार को तय या नियंत्रित दामों पर सामान देने के लिए मजबूर होना पड़ा।
साल 1945 में उन्होंने पांडुरंग भास्कर रंगनेकर से शादी की। जो कि मुंबई के जाने-माने छात्र नेता थे और आज़ादी से पहले अखिल भारतीय छात्र संघ के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव भी रह चुकेथे। उनके जीवन की सबसे कठिन घटनाओं में से एक फरवरी साल 1946 में बंबई का ऐतिहासिक रॉयल इंडियन नेवी (आरआईएन ) विद्रोह था। क्योंकि इस दौरान अन्य पार्टियों ने इस विद्रोह का समर्थन करने से मना कर दिया था। ऐसे में उस समय केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही थी, जिसने खुलकर नौसैनिकों के साथ खड़े होकर उनके आंदोलन का समर्थन किया। ऐसे में बंबई के मज़दूरों ने हड़ताल की और आरआईएन के जवानों के समर्थन में हज़ारों की संख्या में सड़कों पर उतरकर एकजुटता दिखाई। ऐसे में परेल महिला संघ ने हड़ताल पर गए नाविकों के लिए मिल मज़दूरों के घरों से खाना इकट्ठा किया और कोली (मछुआरा जाति) महिलाओं को संगठित करके वह भोजन नाविकों तक पहुंचाया। 22 फरवरी 1946 को परेल के एलफिंस्टन ब्रिज के नीचे ब्रिटिश सैनिकों ने हड़ताल पर बैठे मिल मज़दूरों पर गोली चला दी। इस गोलीबारी में उनके साथी कमल डोंडे की मृत्यु हो गई, जबकि उनकी बहन कुसुम रणदिवे के दोनों पैरों में गोली लगी। लेकिन अहिल्या उस हमले में किसी तरह बच गईं।
22 फरवरी 1946 को परेल के एलफिंस्टन ब्रिज के नीचे ब्रिटिश सैनिकों ने हड़ताल पर बैठे मिल मज़दूरों पर गोली चला दी। इस गोलीबारी में उनके साथी कमल डोंडे की मृत्यु हो गई, जबकि उनकी बहन कुसुम रणदिवे के दोनों पैरों में गोली लगी। लेकिन अहिल्या उस हमले में किसी तरह बच गईं।
संघर्ष और संगठन से लेकर महिलाओं के नेतृत्व तक
आज़ादी के बाद, वह जिस बड़े आंदोलन से जुड़ी, वह 1950 के दशक का प्रतिष्ठित संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन था। जिसमें कुछ पार्टियों ने मिलकर संयुक्त महाराष्ट्र समिति बनाई जिसका उद्देश्य बंबई को राजधानी बनाकर भाषा के आधार पर महाराष्ट्र राज्य का निर्माण करना था। इस संघर्ष के दौरान गोलीबारी में 106 मज़दूर और किसान शहीद हो गए। उन्होंने इस आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं को जोड़ा और खुद भी जेल, लाठीचार्ज और धमकियों का सामना किया। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले गरीब लोगों को संगठित करने और उनकी मदद करने के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया। उनके काम और लगन के कारण, वे साल 1961 में बंबई नगर निगम की पार्षद चुनी गईं इसके बाद भी लगातार वह पार्षद के पद पर रहीं । इसके बाद, साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान अहिल्या को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने सीमा विवाद को बातचीत के माध्यम से सुलझाने की बात कही थी, जिसके कारण उन्हें साढ़े तीन साल जेल की सज़ा काटनी पड़ी।
1970 के दशक की शुरुआत में बंबई और महाराष्ट्र में ज़रूरी चीज़ों की बढ़ती कीमतों के खिलाफ महिलाओं ने बड़ा आंदोलन शुरू किया। हज़ारों महिलाएं ‘रोलिंग पिन’ यानी बेलन लेकर सड़कों पर उतरीं और आंदोलन किया । इन रैलियों का नेतृत्व अहिल्या, मृणाल गोरे, तारा रेड्डी और कई अन्य महिला नेताओं ने किया। इन आंदोलनों ने सरकार पर गहरा राजनीतिक असर डाला और महिलाओं की ताक़त को एक नई पहचान दी। इसके बाद जब साल 1975 में आपातकाल की घोषणा हुई तो उन्होंने इसका विरोध किया क्योंकि यह लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ था। इसके चलते उन्हें फिर से 19 महीनों की सजा काटनी पड़ी। साल 1979 में वह सीआईटीयू की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुनी गईं। उसी साल उन्होंने विमल रणदिवे और सुशीला गोपालन के साथ मिलकर मद्रास में कामकाजी महिलाओं का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित करने में अहम भूमिका निभाई। इस सम्मेलन के बाद कामकाजी महिलाओं की अखिल भारतीय समन्वय समिति का गठन हुआ। इस समिति ने देशभर में कामकाजी महिलाओं की गतिविधियों को मज़बूत किया और संगठन के हर स्तर पर उनकी नेतृत्व भूमिका बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया।
उन्होंने महिला मिल मजदूरों के लिए मातृत्व अवकाश और बेहतर वेतन की मांग उठाई। मुंबई के मिल मजदूरों और उनके परिवारों के बीच एक मजबूत आधार के साथ, उन्होंने युद्ध के दौरान दूध और अन्य जरूरी चीजों की कमी का मुद्दा भी उठाया, जिससे सरकार को तय या नियंत्रित दामों पर सामान देने के लिए मजबूर होना पड़ा।
मृत्यु और विरासत
जब विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की एलपीजी नीतियां भारत में लागू की गईं, तो उन्होंने पार्टी, ट्रेड यूनियन और महिला आंदोलनों के सभी अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे सांप्रदायिकता, जातिवाद और महिलाओं पर होने वाले हर तरह के अत्याचार के खिलाफ हमेशा डटकर खड़ी रहीं। 19 अप्रैल, 2009 को 87 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन अपने योगदान के लिए वह हमेशा याद की जाती रहेंगी। उनकी विरासत केवल नारों या भाषणों में नहीं, बल्कि उन लाखों मजदूर और ग्रामीण महिलाओं में जीवित है, जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरना सीखा।
उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि असली आज़ादी तभी मिलती है जब महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से बराबरी हासिल करें। उन्होंने मजदूरों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों के लिए पूरी ज़िंदगी संघर्ष किया। उन्होंने दिखाया कि महिलाएं केवल घर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे समाज में बदलाव की नेता भी बन सकती हैं। उनकी सोच और काम आज भी हमें यह याद दिलाते हैं कि बराबरी और न्याय की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।

