साल 2016 में, फेमिनिज़्म इन इंडिया (एफआईआई) ने एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट ‘Online Violence Against Women in India’ प्रकाशित की थी, जिसमें हमने तकनीक के ज़रिए महिलाओं पर होने वाली हिंसा का विश्लेषण किया। इस रिपोर्ट का उद्देश्य यह समझना था कि भारत में महिलाएं और हाशिए पर रहने वाले समुदाय किस तरह की ऑनलाइन हिंसा और उत्पीड़न का सामना करते हैं और भारतीय कानून इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं। रिपोर्ट के अनुसार 58 फीसद प्रतिभागियों ने किसी न किसी रूप में ऑनलाइन अग्रेशन का अनुभव किया था, जिसमें ट्रोलिंग, बुलिंग, अपमानजनक भाषा या उत्पीड़न शामिल था। सर्वे में शामिल एक प्रतिभागी बताती हैं, “जब मैं नारीवादी विचार लिखती हूं, तो पुरुष मुझे अपशब्द कहते हैं और आपत्तिजनक टिप्पणी करते हैं।” वहीं एक अन्य प्रतिभागी कहती हैं, “जब मैंने चर्च में एक पादरी के किए गए यौन हिंसा के मामले को उठाया, तो उसके अनुयायियों ने मुझ पर और मेरे काम पर हमला किया।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, हर तीन में से एक महिला किसी न किसी रूप में हिंसा का सामना करती है। यह एक गंभीर वैश्विक मानवाधिकार संकट है, जिसे रोकने की तत्काल ज़रूरत है। आज, महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा का सबसे तेज़ी से बढ़ता हुआ रूप डिजिटल हिंसा है। डिजिटल उपकरणों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के बढ़ते प्रयोग के साथ, महिलाओं और लड़कियों को ऑनलाइन स्टॉक यानी पीछा किए जाने, उत्पीड़न और धमकियों जैसे हिंसा के हजारों रूप का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे हिंसा का प्रभाव सिर्फ ऑनलाइन ही सीमित नहीं है, बल्कि ये अक्सर हमारे असल जीवन में भी दिखाई देते हैं। इनकी वजह से मानसिक दबाव, शारीरिक हिंसा या यहां तक कि फेमिसाइड यानी महिलाओं की हत्या भी कर दी जाती है। हिंसा के ये विभिन्न रूप सर्वाइवर्स पर लंबे समय तक मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और सामाजिक असर डालती है। सार्वजनिक जीवन या ऑनलाइन दुनिया में अपनी जगह बनाती या चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में काम कर रही महिलाएं जैसे पत्रकार, सामाजिक या मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञों को इसका सबसे ज्यादा सामना करना पड़ता है। वहीं, जाति, लैंगिक पहचान, विकलांगता या यौनिकता के आधार पर हाशिए पर रखे गए समुदायों की महिलाएं और व्यक्ति भी इससे और अधिक प्रभावित होते हैं।

आज कई प्रयासों के बावजूद डिजिटल हिंसा को रोकना बेहद कठिन है। इसके पीछे टेक कंपनियों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जवाबदेही की कमी, कानूनी ढांचे की कमजोरियां, गोपनीयता और गुमनामी का दुरुपयोग, साइबर बुलिंग के सर्वाइवर के लिए सीमित समर्थन तंत्र, और हाल के वर्षों में एआई के ज़रिए ऐसी हिंसा का और अधिक तकनीकीकरण और विस्तार शामिल हैं। साल 2017 में यूरोपीय संघ (ईयू) के एक अनुमान के अनुसार, हर दस में से एक महिला ने 15 साल की उम्र के बाद किसी न किसी रूप में ऑनलाइन हिंसा का अनुभव किया। वहीं कोविड-19 महामारी के दौरान जब लोग घरों में बंद थे और डिजिटल माध्यमों पर निर्भरता बढ़ी, तो ऑनलाइन हिंसा के मामले भी तेज़ी से बढ़े। संयुक्त राष्ट्र वुमन की रिपोर्ट अनुसार, उस दौरान ऑनलाइन हिंसा, तस्वीरों के दुरुपयोग और साइबर स्टॉकिंग में जबरदस्त वृद्धि हुई। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में 38 फीसद महिलाओं ने महामारी के दौरान ऑनलाइन हिंसा के बढ़ने की शिकायत की। वहीं भारत में भी डिजिटल हिंसा की स्थिति चिंताजनक पाई गई। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2019 से 2020 के बीच महिलाओं के खिलाफ़ साइबर अपराधों में 28 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
गौरतलब है कि क्वीयर और ट्रांस समुदाय के लोगों को डिजिटल हिंसा विशेष रूप से प्रभावित करता है, खासकर उन लोगों को जो सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। अमूमन ट्रोलिंग, धमकियां, नफरत भरे कमेंट्स क्वीयर समुदाय के ‘अस्तित्व’ को टारगेट करते हैं। साल 2023 में, 16 वर्षीय क्वीयर मेकअप आर्टिस्ट प्रांशु यादव की ऑनलाइन बुलिंग और घृणा के कारण आत्महत्या से मौत हो गई। वहीं अक्सर क्वीयर लोग और महिलाएं फेटिशाइज़ेशन और हाइपरसेक्शुअलाइज़ेशन का भी सामना करते हैं जहां उन्हें सिर्फ सेक्शुअल ऑब्जेक्ट यानी यौन वस्तु के रूप में देखा जाता है। एआई के बढ़ते प्रयोग ने महिलाओं और क्वीयर समुदाय के लिए हिंसा और खतरे को और बढ़ा दिया है। डीपफेक पोर्न, डॉक्टर्ड वीडियो और एआई-संचालित धोखाधड़ी डिजिटल दुनिया की नई वास्तविकताएं बन चुकी हैं। यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट बताती है कि जैसे-जैसे एआई की सटीकता और पहुंच बढ़ रही है, वैसे-वैसे यह महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ हिंसा का नया टूल बनता जा रहा है। एआई के ज़रिए महिलाओं की निगरानी और पीछा किया जा सकता है, उनकी निजी जानकारी जुटाई जा सकती है और गैर-सहमति वाले अंतरंग चित्र (एनसीआईआई) बनाए जा सकते हैं, जिन्हें डीपफेक पोर्न कहा जाता है।
ये छवियां और वीडियो महिलाओं को अपमानित, बदनाम, नियंत्रित या धमकाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। कई बार इसका नतीजा आत्महत्या से मौत जैसी दुखद घटनाओं में भी होता है। एआई का उपयोग फेमिनिस्ट आंदोलनों और सामाजिक न्याय कार्यकर्ताओं की निगरानी और दमन के लिए भी किया जा रहा है। हालांकि लंबे समय से चले आ रहे नारीवादी और डिजिटल अधिकार आंदोलनों के प्रयासों से अब उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी है। साल 2024 का ‘ग्लोबल डिजिटल कॉम्पैक्ट’ डिजिटल सुरक्षा और एआई गवर्नेंस पर संयुक्त राष्ट्र का पहला वैश्विक मानक बना। इसके बाद सदस्य देशों ने यूएन साइबरक्राइम कन्वेंशन को अपनाया जो डिजिटल हिंसा से निपटने के लिए पहला कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सदस्य देशों से अपील की है कि वे डिजिटल हिंसा रोकने और जवाबदेही तय करने के लिए तत्काल और प्रभावी कदम उठाएं। अफ्रीकी संघ (एयू) और यूरोपीय संघ (ईयू) जैसे क्षेत्रीय निकायों ने भी इसी तरह के प्रस्ताव पारित किए हैं।

16 डेज ऑफ एक्टिविज़्म: डिजिटल हिंसा के खिलाफ़ वैश्विक अभियान
इस दिशा में, संयुक्त राष्ट्र ने इस साल का ‘16 डेज़ ऑफ एक्टिजिवम’ अभियान सभी महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ डिजिटल हिंसा समाप्त करने के थीम के तहत शुरू किया है। लैंगिक हिंसा के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र का अंतरराष्ट्रीय अभियान 16 डेज़ एक्टिजिवम हर साल 25 नवंबर (महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा उन्मूलन के अंतरराष्ट्रीय दिवस) से लेकर 10 दिसंबर (अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस) तक आयोजित किया जाता है।
इस अभियान का उद्देश्य है —
- डिजिटल सुरक्षा पर पुराने संकल्पों को फिर से मजबूत करना,
- टेक कंपनियों और सरकारों की जवाबदेही बढ़ाना,
- और दुनिया भर के नीतिनिर्माणकारों और निर्णयकर्ताओं से ठोस कार्रवाई की मांग करना है।
इस अभियान के तहत अपील की गई है कि सरकारें ऐसे कानून बनाएं और लागू करें जो डिजिटल हिंसा को परिभाषित और अपराध घोषित करें, निजी डेटा की सुरक्षा करें और टेक कंपनियों की जवाबदेही तय करें। टेक कंपनियां अपने प्लेटफॉर्म पर सामग्री नियंत्रण (कंटेन्ट माडरैशन) लागू करें, हानिकारक पोस्ट हटाएं, पारदर्शी रिपोर्ट प्रकाशित करें और आचार संहिता लागू करें। डोनर एजेंसियां और फेमिनिस्ट संगठन महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा रोकने और डिजिटल अधिकारों की वकालत करने वाले समूहों में निवेश करें, सर्वाइवर्स का समर्थन करें, हानिकारक ऑनलाइन व्यवहार को चुनौती दें और सभी के लिए सुरक्षित डिजिटल स्पेस बनाने में योगदान दें।
इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया नवंबर 2025 में ‘जेंडर, एआई और डिजिटल हिंसा’ विषय पर लेख आमंत्रित कर रहा है। हम 25 नवंबर 2025 तक लेख स्वीकार और प्रकाशित करेंगे।
कृपया अपने पिच और ड्राफ्ट जल्द से जल्द भेजें।
लेखों के लिए कुछ उपयोगी विषय नीचे दिए गए हैं:
- जेंडर और इमेज-बेस्ड सेक्शुअल अब्यूज़ (रीवेन्ज पॉर्न)
- जेंडर और साइबर बुलिंग
- टेक कंपनियों की गैर-जवाबदेही
- जेंडर और ऑनलाइन हेट स्पीच
- जेंडर और डिजिटल निगरानी
- कैटफिशिंग और ऑनलाइन प्रतिरूपण
- मैनोस्फीयर और ऑनलाइन इंसेल संस्कृति
- जेंडर, जाति और ऑनलाइन हिंसा
- होमोफोबिया, क्वियरफोबिया और डिजिटल हिंसा
- जेंडर और एआई आधारित हिंसा (डीपफेक्स)
- जेंडर और डिजिटल अधिकार
- साइबर नारीवाद
- डिजिटल फेमिनिस्ट एकजुटता
(यह सूची संपूर्ण नहीं है। आप इससे जुड़े अन्य उप-विषयों पर भी लिख सकते हैं।)
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