संस्कृतिकिताबें ‘उसके हिस्से की धूप’: एक स्त्री की आत्म तलाश और अस्मिता की कहानी

‘उसके हिस्से की धूप’: एक स्त्री की आत्म तलाश और अस्मिता की कहानी

मनीषा एक संवेदनशील और बौद्धिक स्त्री है, जो बंधनों का विरोध करती है और अपने स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश में आगे बढ़ती है। यह किताब आज भी बहुत प्रासंगिक है। जिस समाज में स्त्री की पहचान केवल पुरुष से जुड़ी होती है, वहां मनीषा जैसी स्त्रियां अपने अधिकारों और इच्छाओं के लिए खड़ी होती है।

लेखिका मृदुला गर्ग ‘उसके हिस्से की धूप’ उपन्यास नारी के अंतर्मन और उसके जीवन के गहरे अनुभवों को बहुत संवेदनशीलता से दिखाता है। इस उपन्यास में एक स्त्री के विवाह के बाद के जीवन, उसके वैवाहिक रिश्तों और स्त्री-पुरुष संबंधों के कई पहलुओं को खुलकर दिखाया गया है। यह किताब बताती है कि एक स्त्री का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। वह सिर्फ किसी रिश्ते या पुरुष के कारण नहीं जानी जा सकती, बल्कि उसकी अपनी एक अलग पहचान और इच्छाएं होती हैं। उपन्यास आधुनिक युग की स्त्रियों के मन में चलने वाले संघर्षों और भावनाओं को ईमानदारी से सामने लाता है। समाज ने हमेशा स्त्री को इस रूप में देखा है कि उसकी जिंदगी का उद्देश्य शादी और परिवार तक सीमित है।

एक पुरुष के बिना स्त्री की स्वतंत्र कल्पना करना समाज के लिए अब भी कठिन है। ‘उसके हिस्से की धूप’ इन रूढ़ियों को तोड़ता है और यह बताता है कि स्त्री की अपनी अस्मिता और स्वतंत्र सोच भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यह उपन्यास वर्ष 1975 में लिखा गया था, उस समय, जब समाज महिलाओं से सिर्फ दूसरों की देखभाल करने और ‘आदर्श महिला’ बनने की उम्मीद करता था। उस दौर में लेखिका मृदुला गर्ग ने स्त्री के जीवन को उसके अपने नजरिए से दिखाया और उसकी आंतरिक आकांक्षाओं, इच्छाओं और भावनाओं को समाज के सामने रखा।

एक पुरुष के बिना स्त्री की स्वतंत्र कल्पना करना समाज के लिए अब भी कठिन है। ‘उसके हिस्से की धूप’ इन रूढ़ियों को तोड़ता है और यह बताता है कि स्त्री की अपनी अस्मिता और स्वतंत्र सोच भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

कहानी की शुरुआत और वैवाहिक जीवन में स्त्री

उपन्यास की शुरुआत मनीषा और जितेन की नैनीताल में हुई अचानक मुलाकात से होती है। मनीषा एक बुक स्टोर में किताबें देख रही होती है, तभी पीछे से जितेन की जानी-पहचानी आवाज सुनकर वह चौंक जाती है। जितेन अपने काम के सिलसिले में नैनीताल आया होता है, वहीं मनीषा अपने पति मधुकर के साथ कुछ दिनों के लिए ठहरी हुई होती है। चार साल बाद दोनों की यह मुलाकात होती है। मनीषा कहती है कि चार साल इतना लंबा समय भी नहीं कि बहुत कुछ बदल जाए। सचमुच, जितेन में कोई खास बदलाव नहीं आया है। यह मुलाकात कहानी की एक दिलचस्प शुरुआत बनती है, जो पाठक में जिज्ञासा जगाती है कि आगे क्या होगा। कहानी तीन पात्रों मनीषा, जितेन और मधुकर के इर्द-गिर्द घूमती है। मनीषा और जितेन की शादी अरेंज्ड मैरिज के तौर पर हुई थी। मनीषा को हमेशा लगता था कि अगर उसका प्रेम विवाह हुआ होता, तो शायद वह ज़्यादा खुश रह पाती। जितेन एक गंभीर और जिम्मेदार व्यक्ति है, जो अपने काम को ही जीवन की प्राथमिकता मानता है।

वह अपनी फैक्ट्री के काम में इतना व्यस्त रहता है कि न तो मनीषा के लिए समय निकाल पाता है और न ही उससे ठीक से बात कर पाता है। मनीषा को जितेन का यह रवैया बहुत खलता है। वह रिश्ते में सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, बल्कि प्रेम और आत्मीयता तलाशती है। उसके लिए संबंध केवल शारीरिक जरूरतों का मेल नहीं, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव का माध्यम है। वह कहती है कि रिश्ता सिर्फ रात के अंधेरे में चंद घंटों तक कायम रहकर दिन के उजाले में खत्म नहीं होना चाहिए। मनीषा के जीवन में संवाद और प्रेम की कमी उसे भीतर तक खाली कर देती है। वह अपने अकेलेपन को भरने के लिए स्कूल में पढ़ाती है और कहानियां भी लिखती है, लेकिन यह व्यस्तता उसके भीतर के खालीपन को नहीं मिटा पाती। धीरे-धीरे वह जितेन से ईर्ष्या करने लगती है, क्योंकि वह हमेशा अपने काम में डूबा रहता है और उसे भावनात्मक सहारा नहीं देता। कहानी में वैवाहिक जीवन के भीतर की उस दूरी और असंतोष को दिखाया गया है, जहां एक स्त्री का भावनात्मक संसार उपेक्षा और अकेलेपन में घिर जाता है।

कहानी मनीषा नाम की एक स्त्री की है, जो बेंगलुरु शहर में सभी भौतिक सुख-सुविधाओं से भरे घर में रहती है। उसका पति जितेन फैक्ट्री में काम करता है और हमेशा काम में इतना व्यस्त रहता है कि मनीषा की ओर ध्यान ही नहीं देता।

विवाह से परे प्रेम और स्त्री मन की खोज

उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ शहरी जीवन में काम, व्यस्तता और रिश्तों के बीच पनपते खालीपन की कहानी कहता है। यह कहानी मनीषा नाम की एक स्त्री की है, जो बेंगलुरु शहर में सभी भौतिक सुख-सुविधाओं से भरे घर में रहती है। उसका पति जितेन फैक्ट्री में काम करता है और हमेशा काम में इतना व्यस्त रहता है कि मनीषा की ओर ध्यान ही नहीं देता। यह उपेक्षा मनीषा को भीतर से बेहद अकेला कर देती है। उसे लगता है कि उसका वैवाहिक जीवन नीरस और अर्थहीन हो गया है। इसी खालीपन के बीच मनीषा अपने कॉलेज के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर मधुकर की ओर आकर्षित होने लगती है। मधुकर के साथ उसे ऐसा महसूस होता है जैसे उसकी ज़िंदगी में फिर से रौशनी लौट आई हो। दोनों के बीच प्रेम संबंध शुरू होता है। मधुकर का साथ मनीषा को अच्छा लगने लगता है और उसका अकेलापन भरने लगता है।

उसे लगता है कि यही वह व्यक्ति है जिसकी उसे तलाश थी, और अब उसका जीवन पूरा हो गया है। उपन्यास धीरे-धीरे मनीषा के अंतर्द्वंद्व और भावनात्मक यात्रा को उजागर करता है। शीर्षक ‘उसके हिस्से की धूप’ की सार्थकता पाठक को अंत में जाकर समझ आती है। यह ‘धूप’ उस स्त्री की है, जो प्रेम और अपने अस्तित्व की तलाश में भटकती है। मनीषा एक शिक्षित, संभ्रांत महिला है, जो अपने वैवाहिक जीवन की खालीपन से जूझ रही है। उसकी चाह बस इतनी है कि उसका पति उसे समय दे, उससे बात करे, उसे सुने। प्रेम सिर्फ शारीरिक न रहे, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव बने। मनीषा जब मधुकर के साथ दिल्ली आ बसती है, तो कुछ समय तक सब अच्छा चलता है। लेकिन धीरे-धीरे वह मधुकर से भी ऊबने लगती है। मधुकर का हर बात में झांकना, उसका स्वभाव; सब उसे परेशान करने लगता है।

वह अपने पति जितेन और मधुकर की तुलना करते हुए कहती है कि जहां जितेन चोट खाने पर कछुए की तरह अपने भीतर चला जाता है, वहीं मधुकर गर्दन निकालकर आक्रमण करने को तैयार हो जाता है। चार साल बाद जब मनीषा फिर से जितेन से मिलती है, तो वह उसकी ओर खिंच जाती है। दोनों साथ समय बिताते हैं, यहां तक कि शारीरिक संबंध भी बनाते हैं, लेकिन मनीषा को फिर भी संतोष नहीं मिलता। वह महसूस करती है कि प्रेम के इन अनुभवों के बावजूद उसके भीतर का खालीपन नहीं भरा। अंत में मनीषा यह समझने लगती है कि उसकी तलाश किसी पुरुष में नहीं, बल्कि खुद की पहचान में है। जितेन के शब्दों में ‘प्रेम चूक जाता है।’ मनीषा भी यही महसूस करती है कि उसका प्रेम चूक चुका है। उसकी खोज प्रेम में नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व और आत्मसम्मान में है।

चार साल बाद जब मनीषा फिर से जितेन से मिलती है, तो वह उसकी ओर खिंच जाती है। दोनों साथ समय बिताते हैं, यहां तक कि शारीरिक संबंध भी बनाते हैं, लेकिन मनीषा को फिर भी संतोष नहीं मिलता। वह महसूस करती है कि प्रेम के इन अनुभवों के बावजूद उसके भीतर का खालीपन नहीं भरा।

यह पुस्तक स्त्री के जीवन में पुरुष की भूमिका और स्त्री-पुरुष के संबंधों को बहुत बारीकी से दिखाती है। कहानी में दो पुरुष हैं, जितेन और मधुकर नागपाल जिनके माध्यम से लेखिका ने पुरुषों के अलग-अलग स्वभाव और सोच को उजागर किया है। जितेन एक खुले विचारों वाला व्यक्ति है। वह स्वतंत्रता और समानता में विश्वास रखता है। वह मनीषा पर कोई बंधन नहीं लगाता, न ही उसके देर से आने या उसके फैसलों पर सवाल उठाता है। जब मनीषा उसे अपने प्रेम संबंध के बारे में बताती है, तो वह शांति से सुनता है और कहता है कि मैं तुम्हें जबरदस्ती नहीं रोकूंगा, मनीषा। एक इंसान का दूसरे इंसान पर इतना अधिकार मैं नहीं मानता। यह वाक्य जितेन के विचारों की गहराई दिखाता है। वह इतना उदार है कि मनीषा से कह देता है कि कभी लौटना हो, तो लौट आना। इसके उलट, मधुकर नागपाल मनीषा से शादी के बाद उसे नियंत्रित करने लगता है। वह उसके देर से आने पर सवाल करता है, उस पर अधिकार जताता है, और कहता है कि मैं तुम्हारा पति जितेन नहीं हूं।

मनीषा एक शिक्षित, संभ्रांत महिला है, जो अपने वैवाहिक जीवन की खालीपन से जूझ रही है। उसकी चाह बस इतनी है कि उसका पति उसे समय दे, उससे बात करे, उसे सुने। प्रेम सिर्फ शारीरिक न रहे, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव बने।

मधुकर का यह रवैया उस सामाजिक सच्चाई को उजागर करता है कि आज भी कई पढ़े-लिखे पुरुष महिलाओं को अपनी ‘चीज़’ समझते हैं, न कि बराबरी का इंसान। मनीषा का जीवन स्त्री की आत्म-तलाश की यात्रा भी है। उसे धीरे-धीरे एहसास होता है कि जिस संतोष की वह तलाश पुरुषों में कर रही थी, वह कभी नहीं मिल सका। आखिरकार वह लेखन के माध्यम से अपने भीतर की बेचैनी को आवाज़ देती है। वह कहती है कि लिखूंगी कुछ… जो मेरे भीतर इतने दिनों से खदबदाता रहा है। लिखूंगी अपने में निहित व्यक्तित्व की कहानी। लेखन मनीषा के लिए आत्म-साक्षात्कार का माध्यम बन जाता है। वह अपने भीतर की स्त्री को पहचानती है, अपने अनुभवों को शब्द देती है और आत्मनिर्भर बनती है।

मनीषा एक संवेदनशील और बौद्धिक स्त्री है, जो बंधनों का विरोध करती है और अपने स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश में आगे बढ़ती है। यह किताब आज भी बहुत प्रासंगिक है। जिस समाज में स्त्री की पहचान केवल पुरुष से जुड़ी होती है, वहां मनीषा जैसी स्त्रियां अपने अधिकारों और इच्छाओं के लिए खड़ी होती है। वह सामाजिक ‘इज़्ज़त’ या बंधनों से ऊपर उठकर प्रेम और आत्म-संतोष को चुनती है। लेखिका मृदुला गर्ग ने स्त्री के मन की जटिलताओं और उसकी स्वतंत्र पहचान को बड़ी संवेदनशीलता से उकेरा है। उन्होंने उस समय लिखा जब महिलाओं से सिर्फ घर तक सीमित रहने की उम्मीद की जाती थी। उनकी भाषा सरल, स्पष्ट और भावनात्मक है। यही वजह है कि उनका लेखन सीधा पाठक के दिल तक पहुंचता है। यह किताब जरूर पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि यह स्त्री के आत्मसम्मान, प्रेम, स्वतंत्रता और अस्तित्व की कहानी है।

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