मन्नू भंडारी की लिखित ‘यही सच है’ हिंदी साहित्य की एक बहुचर्चित कहानी है, जिसे उसके प्रगतिशील दृष्टिकोण और स्त्री पात्र की सशक्तता के लिए विशेष रूप से सराहा गया। यह कहानी इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे न सिर्फ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, बल्कि इस पर आधारित साल 1974 की प्रसिद्ध हिंदी फिल्म ‘रजनीगंधा’ भी बनी, जो उस दौर की हिट फिल्मों में गिनी जाती है। इस कहानी की नायिका दीपा एक शोध छात्रा है, जो आत्मनिर्भर और आज़ाद ख़याल की है। वह शहर में अकेली रह रही है और एक नौकरी के लिए कोशिश करती है। कहानी की शुरुआत उस समय से होती है जब दीपा अपने पुराने प्रेमी संजय का इंतज़ार कर रही होती है। संजय उसका दोस्त, प्रेमी, आलोचक और समीक्षक सब कुछ रहा है।
संजय और दीपा की मुलाकात पटना में हुई थी। पहले दोस्ती और फिर प्रेम में बदलते इस रिश्ते ने उन्हें आत्मीयता की डोर से बांध दिया था। संजय का स्वभाव कुछ हद तक लापरवाह है। वह अक्सर मिलने में देर कर देता है। लेकिन जब वह आता है, तो जैसे पूरा माहौल उसकी उपस्थिति से महक उठता है। वह हँसमुख, चुलबुला, बातूनी और बेहद संवेदनशील व्यक्ति है। वह जब भी दीपा से मिलने आता है, तो रजनीगंधा के फूल ज़रूर लाता है। इन फूलों की खुशबू दीपा के मन और कमरे दोनों को महका देती है। संजय के ढेर सारे दोस्त हैं जिनके साथ वह अकसर बहसों में उलझा रहता है और नई-नई बातें करता है। वहीं दीपा तूलनात्मक रूप से शांत स्वभाव की, कम बोलने वाली लड़की है। उसका पूरा जीवन और सोच संजय के इर्द-गिर्द ही घूमती है।
यह कहानी आज़ादी के बाद की रचना है, जिसमें स्त्री की स्वतंत्र सोच, उसकी भावनात्मक उलझनें और आत्मनिर्भरता की खोज को केंद्र में रखा गया है। यह कहानी दीपा की है, जो अपने अतीत और वर्तमान के बीच चल रहे भावनात्मक द्वंद्व से गुजर रही है।
स्त्री की स्वतंत्र सोच, उसकी भावनात्मक उलझनें
यह कहानी आज़ादी के बाद की रचना है, जिसमें स्त्री की स्वतंत्र सोच, उसकी भावनात्मक उलझनें और आत्मनिर्भरता की खोज को केंद्र में रखा गया है। यह कहानी दीपा की है, जो अपने अतीत और वर्तमान के बीच चल रहे भावनात्मक द्वंद्व से गुजर रही है। पटना में रहते हुए दीपा का प्रेम निशीथ नामक व्यक्ति से था, लेकिन किसी कारणवश दोनों अलग हो गए थे। इस संबंध के टूटने के बाद दीपा अपने शोध के काम के लिए कानपुर आती है, जहां उसकी मुलाकात संजय से होती है। धीरे-धीरे संजय और दीपा के बीच नज़दीकियां बढ़ती हैं। दोनों मिलते हैं, साथ घूमते हैं और एक सहज जीवन साझा करने लगते हैं। इसी बीच दीपा को नौकरी के इंटरव्यू के लिए कलकत्ता जाना पड़ता है। वह चाहती है कि संजय उसके साथ चले, लेकिन संजय किसी ज़रूरी काम का हवाला देकर उसे अकेले जाने के लिए कहता है। कलकत्ता जाने को लेकर दीपा असहज है, क्योंकि वहां उसका कोई करीबी नहीं है, सिवाय उसकी सहेली इरा के।

संजय उसे याद दिलाता है कि निशीथ भी कलकत्ता में ही है। यह वही निशीथ है, जिसके बारे में दीपा ने कभी संजय को अपने अतीत की कहानी बताई थी। लेकिन जब संजय निशीथ का नाम लेता है, तो दीपा नाराज़ हो जाती है। वह कहती है कि वो हज़ार बार कह चुकी है कि उसे लेकर उसके साथ मज़ाक न किया करे। दीपा अब निशीथ से खुद को पूरी तरह अलग मानती है। कलकत्ता पहुंचने के बाद एक दिन दीपा की इरा के साथ एक कैफ़े में निशीथ से अचानक मुलाकात हो जाती है। निशीथ दीपा की बहुत मदद करता है। उसे शहर घुमाता है, इंटरव्यू के लिए गाइड करता है और हर मोड़ पर उसका साथ देता है। हालांकि, इस बीच दीपा खुद को थोड़ी असहज स्थिति में पाती है। निशीथ का यह व्यवहार उसके मन में कई सवाल खड़े करता है।
कलकत्ता पहुंचने के बाद एक दिन दीपा की इरा के साथ एक कैफ़े में निशीथ से अचानक मुलाकात हो जाती है। निशीथ दीपा की बहुत मदद करता है। उसे शहर घुमाता है, इंटरव्यू के लिए गाइड करता है और हर मोड़ पर उसका साथ देता है।
क्या निशीथ अब भी उससे प्रेम करता है? क्या उसका यह सहयोग केवल औपचारिक है या इसके पीछे कोई भावनात्मक गहराई है? निशीथ उसे लेकर क्या महसूस करता है? इस मोड़ पर निशीथ का साथ दीपा को सुखद लगने लगता है। वह उसके जीवन का पहला प्रेम था, और अब वही व्यक्ति हर दिन उसके साथ है। दीपा जब कलकत्ता से लौटने के लिए स्टेशन जाती है, तो निशीथ उसे छोड़ने आता है। विदा लेते समय वह दीपा के हाथ पर हाथ रखता है। यह छोटा-सा स्पर्श दीपा के मन में छिपे प्रेम को फिर से जगा देता है। दीपा सोचती है कि जो बातें निशीथ नहीं कह सका, वह इस स्पर्श ने कह दीं। उसी क्षण वह अपने मन में उसके प्रति प्रेम को स्वीकार कर लेती है। यह कहानी एक स्त्री की भावनात्मक यात्रा के साथ-साथ उसकी आत्म-स्वीकृति और निर्णय क्षमता को भी दिखाती है।
महिलाओं की मानवीय संवेदना और चेतना
कहानी ‘यही सच है’ दरअसल एक मनुष्य की यथार्थपरक चेतना की कहानी है—उसकी प्रकृति, इच्छाओं, द्वंद्व और प्रेम के स्वाभाविक रूप की। यदि सामाजिक संरचनाएं और उनके कठोर नियम इतने जटिल न होते, तो शायद मनुष्य वैसा ही होता जैसा इस कहानी में दीपा के रूप में दिखाई देता है—प्रेम करने वाला, असमंजस में उलझा, संवेदनशील और अपने चयन में स्वतंत्र। प्रेम को अक्सर जन्म-जन्मांतर के अटूट रिश्ते की तरह प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यदि स्त्री को भी एक मनुष्य की तरह देखा जाए—किसी देवी, त्यागमूर्ति या ‘आदर्श’ नारी के बने-बनाए खांचों से बाहर—तो उसके प्रेम चयन, असमंजस और संवेगों का स्वरूप भी उतना ही सहज और मानवीय होगा, जितना किसी पुरुष का। समाज ने मनुष्य की नैसर्गिकता को रिश्तों और संस्थाओं के साथ कमिटमेंट के नियमों में जकड़कर बदल दिया है। यहीं पर कहानी की नायिका दीपा एक स्वतंत्र स्त्री के रूप में सामने आती है—वह प्रेम करती है, द्वंद्व में फंसती है, लेकिन हर बार उसकी चेतना उसे एक स्वतंत्र निर्णय की ओर ले जाती है।
कहानी ‘यही सच है’ दरअसल एक मनुष्य की यथार्थपरक चेतना की कहानी है—उसकी प्रकृति, इच्छाओं, द्वंद्व और प्रेम के स्वाभाविक रूप की। यदि सामाजिक संरचनाएं और उनके कठोर नियम इतने जटिल न होते, तो शायद मनुष्य वैसा ही होता जैसा इस कहानी में दीपा के रूप में दिखाई देता है।
जेंडर की सीमाओं से बाहर कहानी
दीपा की इच्छाएं, उसका संशय, उसका प्रेम, और उसका संकोच—ये सब मानवीय अनुभव हैं, जो किसी भी जेंडर की परिभाषा में नहीं बांधे जा सकते। इसलिए यह कहना प्रमाणिक लगता है कि जेंडर मनुष्य की संवेदना को विभाजित नहीं करता, बल्कि समाज के बनाए सख्त नियम और जबरन थोपे गए नैतिक विचार ही उसे ‘स्त्री’ या ‘पुरुष’ जैसे खांचों में बांट देते हैं। दीपा एक आत्मनिर्भर और आज़ाद खयाल स्त्री है। वह अपने अतीत के प्रेम, यानी निशीथ, से दोबारा मिलने पर गहरे द्वंद्व में उलझती है। यह द्वंद्व किसी कमज़ोरी या भ्रम का परिणाम नहीं है, बल्कि एक सजग, संवेदनशील और स्वतंत्र चेतना की अभिव्यक्ति है, जो परिस्थितियों को समझने, महसूस करने और अपने लिए रास्ता तय करने की क्षमता रखती है। अब तक इस कहानी की जो समीक्षाएं सामने आई हैं, उनमें दीपा के चरित्र को नैतिकता और ‘आदर्श स्त्री’ के बने-बनाए मानकों से ही देखा गया है। जबकि सच्चाई यह है कि दीपा इन मानकों को चुनौती देती है। वह उन पूर्वधारणाओं में फिट नहीं बैठती, जो स्त्री को केवल त्याग, सहनशीलता और नैतिकता की मूर्ति के रूप में देखना चाहते हैं।

दरअसल, जैविक रूप से मनुष्य जैसा बना है—यदि उसमें समाज द्वारा थोपी गई नैतिक ग्रंथियां, मूल्य और पूर्वाग्रह न हों—तो वह एकदम वैसा ही होगा जैसा दीपा के भीतर का उलझा हुआ, परंतु सच्चा मन। यह वही स्वतंत्र और अकुंठ चेतना है, जो अपनी संवेदनाओं की परतों को टटोलती है, उन्हें समझती है और अंततः जो सहज और सच है, उसे स्वीकार करती है। दीपा भी यही करती है। जब तक संजय उसके सामने नहीं होता, वह अपने मन के द्वंद्व में उलझी रहती है। लेकिन जैसे ही उसे अपने सच्चे प्रेम का बोध होता है, वह निर्णय लेती है—बिना किसी अपराधबोध या सामाजिक दबाव के। यही ‘यथार्थ’ है, यही ‘यही सच है’। यह कहानी न केवल स्त्री-मन की एक जटिल लेकिन सच्ची तस्वीर पेश करती है, बल्कि समाज के उन ठोस खांचों को भी तोड़ती है, जो स्त्रियों के प्रेम, आत्मनिर्भरता और संवेदना को नियंत्रित करना चाहते हैं। दीपा की चेतना हमें याद दिलाती है कि प्रेम, चयन और द्वंद्व—इनमें कोई ‘लैंगिक’ सत्य नहीं होता, केवल मानवीय सत्य होता है।
यह कहानी न केवल स्त्री-मन की एक जटिल लेकिन सच्ची तस्वीर पेश करती है, बल्कि समाज के उन ठोस खांचों को भी तोड़ती है, जो स्त्रियों के प्रेम, आत्मनिर्भरता और संवेदना को नियंत्रित करना चाहते हैं। दीपा की चेतना हमें याद दिलाती है कि प्रेम, चयन और द्वंद्व—इनमें कोई ‘लैंगिक’ सत्य नहीं होता, केवल मानवीय सत्य होता है।
स्वतंत्र और संवेदनशील और आज़ाद महिला की कहानी
मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो पूरी तरह एक स्वतंत्र और संवेदनशील मनुष्य की तरह जीती है। कहानी की नायिका दीपा, संजय को देखकर तुरंत गले लगा लेती है—जैसे कोलकाता में निशीथ के साथ बिताए गए दिनों के मानसिक उलझाव से वह मुक्त हो गई हो। यह क्षण यह दिखाता है कि वह अपने अंतर्द्वंद्व से निकलकर अब अपना निर्णय ले चुकी है। दीपा एक आधुनिक, आत्मनिर्भर और शहरी लड़की है। उसके जीवन में कोई पारिवारिक दबाव नहीं है, जिससे वह अपने मन की बात और इच्छाओं को खुलकर समझ और जी सकती है। यही वजह है कि उसके फैसले समाज के तयशुदा नैतिक पैमानों से नहीं, बल्कि उसकी निजी समझ और संवेदना से तय होते हैं।
कहानी यह संकेत देती है कि अगर स्त्री पूरी तरह आज़ाद हो, तो वह ‘एकनिष्ठता’, ‘पवित्रता’ जैसे सामाजिक रूप से गढ़े गए शब्दों के बोझ को उतार फेंकेगी और अपनी मर्ज़ी से जीवन जिएगी, जैसा कोई भी स्वतंत्र मनुष्य जीता है। मन्नू भंडारी ने यह कहानी 1960 के दशक में लिखी थी, जब प्रेम और स्त्री की एकनिष्ठता को लेकर बहुत पारंपरिक दृष्टिकोण अपनाया जाता था। ऐसे समय में दीपा जैसी नायिका को गढ़ना साहसिक था। इस कहानी की खास बात यह है कि मन्नू भंडारी ने दीपा को किसी आदर्श स्त्री के रूप में नहीं, बल्कि एक सहज, अकुंठ और स्वतंत्र मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया है—जो अपने द्वंद्वों को समझती है और अपने दिल की सुनती है। यही इस कहानी की सच्चाई है और यही इसका यथार्थ भी।