इंटरसेक्शनलजेंडर लैंगिक हिंसा को खत्म करने में पुरुषों की भागीदारी क्यों है अहम?

लैंगिक हिंसा को खत्म करने में पुरुषों की भागीदारी क्यों है अहम?

1991 में 16 डेज़ ऑफ़ एक्टिविज़्म अगेंस्ट जेंडर बेस्ड वायलेंस अभियान की शुरुआत हुई। इस अभियान के तहत जेंडर आधारित हिंसा का सामना कर रही महिलाओं के अधिकारों और संरक्षण की बात की जाती है।

सोशल मीडिया लोगों को एक दूसरे से कनेक्ट करने या जोड़ने का सबसे बेहतरीन प्लेटफार्म है। लेकिन इस प्लेटफार्म के जितने फ़ायदे हैं, उतने ही नुकसान भी हैं। देखा जाए तो आज सोशल मीडिया आधी आबादी पर हो रही ऑनलाइन हिंसा और कथित यौन हिंसा का माध्यम बन गया है। यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 16 से 58 फीसदी लड़कियों या महिलाओं ने कभी न कभी ऑनलाइन हिंसा को अनुभव किया है और आपको ऑनलाइन हिंसा से जुड़ा साल 2020 का सबसे चर्चित बॉयज़ लॉकर रूम केस तो याद ही होगा। कुछ स्कूल के लड़कों ने इंस्टाग्राम पर बॉयज़ चैट ग्रुप बनाया था। जहां वो लड़कियों की तस्वीरें शेयर करते और उनकी बॉडी शेमिंग और यौन हिंसा से जुड़ी हुई भद्दी टिप्पणियां भी करते थे। 

ये सभी लड़के 11वीं और 12वीं क्लास के थे। इसके अलावा साल 2023 में भी एक केस सामने आया था जिसमें एक 26 वर्षीय युवती की साइबर हिंसा के कारण कथित तौर पर आत्महत्या से मौत हो गई थी। ऐसी ही न जाने कितनी औपचारिक और अनौपचारिक अनगिनत यौन हिंसा और ऑनलाइन हिंसा की घटनाएं रोजाना होती हैं। द हिन्दू में छपी राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंडिया के अंदर साल 2023 में महिलाओं ने हिंसा की 28,811 याचिकाएं  या शिकायतें  दायर की गई थीं।

यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 16 से 58 फीसदी लड़कियों या महिलाओं ने कभी न कभी ऑनलाइन हिंसा को अनुभव किया है।

हिंसा केवल महिलाओं का मुद्दा नहीं है

महिलाओं के साथ हिंसा कोई नई बात नहीं है। बस समय-समय पर इसका रूप या माध्यम बदल जाता है और इस हिंसा को ही ध्यान में रखकर साल 1991 में 16 डेज़ ऑफ़ एक्टिविज़्म अगेंस्ट जेंडर बेस्ड वायलेंस अभियान की शुरुआत हुई। इस अभियान के तहत जेंडर आधारित हिंसा का सामना कर रही महिलाओं के अधिकारों और संरक्षण की वकालत या बात की जाती है। इसका उद्देश्य हिंसा को मानव अधिकार के प्रसंग में रखकर जागरूकता, जवाबदेही और नीति के बदलाव की मांग उठाना रहा है और इस साल इसकी थीम ‘यूनाइट टू एंड डिजिटल वायलेंस अगेंस्ट ऑल वीमेन एंड गर्ल्स’ रखा गया है। इस 16 दिवसीय अभियान की शुरुआत 25 नवंबर यानी महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन का अंतर्राष्ट्रीय दिवस से होती है और इसका समापन 10 दिसंबर यानी मानवाधिकार दिवस पर होता है।

लेकिन क्या यह अभियान सिर्फ उनके लिए है जो सर्वाइवर हैं या उन लोगों के लिए भी है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस हिंसा की वजह हैं? ये कह देना कि आधी आबादी उसके विकास या पतन की खुद जिम्मेदार है या उसको खुद अकेले हिंसा के ख़िलाफ़ और अपने अधिकार के लिए लड़ाई लड़नी पड़ेगी तो ये सरासर गलत है। इस बात में कोई दोराय नहीं है कि महिलाओं की इस हालत के असली जिम्मेदार पुरुष और पितृसत्ता है। आज हम कितना भी कह लें कि महिलाएं बराबर हो गई हैं, लेकिन हम सब जानते हैं कि आज भी महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। आज जिन्हें हम सफल महिलाएं  मानते हैं, उन्हें पुरुष, समाज और पितृसत्ता से अपनी लड़ाई रोज़ लड़नी पड़ती है और आज भी समाज में पुरुषों का दबदबा है। यानी कि जो इसके जिम्मेदार हैं उनके योगदान के बिना समाज को पूरी तरह बदलना मुश्किल है और इसलिए इस 16 दिवसीय अभियान में पुरुषों की हिस्सेदारी और जिम्मेदारी और भी ज्यादा है। 

हिंसा को ही ध्यान में रखकर साल 1991 में 16 डेज़ ऑफ़ एक्टिविज़्म अगेंस्ट जेंडर बेस्ड वायलेंस अभियान की शुरुआत हुई। इस अभियान के तहत जेंडर आधारित हिंसा का सामना कर रही महिलाओं के अधिकारों और संरक्षण की वकालत या बात की जाती है।

16 दिवसीय अभियान में पुरुषों की भूमिका

जब हम इतिहास को खंगालते हैं तो हमें पता चलता है कि पुरुषों का इस तरह के अभियानों से जुड़ना कोई नई बात नहीं है, पर इसकी रूपरेखा और भागीदारी धीरे-धीरे बढ़ी है। साल 1989 के कत्लेआम जिसे मॉन्ट्रियल नरसंहार के नाम से जाना जाता है। यह नारीवाद और महिला विरोधी हमला था,  क्योंकि एक 25 वर्षीय युवा जिसने गोलीबारी की उसे लग रहा था कि नारीवादी या फेमिनिस्ट महिलाएं पुरुषों की जगह ले रही हैं और इससे पुरुषों को खतरा होगा। इसका परिणाम उह हुआ कि इस वजह से 14 महिलाओं की कथित तौर पर हत्या कर दी गई थी। इसके बाद साल 1991 में कनाडा में पुरुष नेतृत्व वाले व्हाइट रिबन कैम्पेन की शुरुआत हुई। इस अभियान में पहली बार पुरुषों और लड़कों ने महिलाओं पर हो रही पुरुष हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और इस पुरुष नेतृत्व वाले आंदोलन को हम 16 दिवसीय अभियान की सबसे पहली पुरुषों की पहल कह सकते हैं। इस कैम्पेन ने पुरुषों को केवल सहानुभूति तक ही सीमित नहीं रखा। उन्हें सार्वजनिक प्रतिज्ञा, शिक्षा और उनकी जिम्मेदारी का अहसास दिलाने पर बल दिया। 

या हम बात करें 2000 के दशक की। जब मेनएंगेज एलायंस जैसे अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क अस्तित्व में आए। इस संगठन का काम पुरुषों और लड़कों को साथ जोड़कर हानिकारक पुरुषत्व या पितृसत्तात्मक मर्दानगी को ख़त्म करने और पुरुष व्यवहार में परिवर्तन या नीतिगत सुधार करने की कोशिश रही है। आज भी मेनएंगेज कई देशों में 16 दिवसीय अभियान के तहत काम कर रहा है। द इकनॉमिक टाइम्स  में छपी खबर के मुताबिक, साल 2014 में यूएन वुमन ने लैंगिक समानता के लिए भारत में  हीफॉरशी मुहिम भी शुरू की और यह सार्वजनिक रूप से पुरुषों और सभी तरह की शारीरिक पहचान वाले व्यक्तियों को समानता के लिए साझेदार बनने का निमंत्रण था। इसके बाद सार्वजनिक जुड़ाव का एक नया आयाम आया जिससे काफी पुरुष भी जुड़े। वर्तमान में 16 दिवसीय अभियान के दौरान अक्सर पुरुषों को पैनल और वर्कशॉप के आयोजनों में भी आमंत्रित किया जाता है। 

द इकनॉमिक टाइम्स में छपी खबर के मुताबिक, साल 2014 में यूएन वुमन ने लैंगिक समानता के लिए भारत में  हीफॉरशी मुहिम भी शुरू की और यह सार्वजनिक रूप से पुरुषों और सभी तरह की शारीरिक पहचान वाले व्यक्तियों को समानता के लिए साझेदार बनने का निमंत्रण था। इसके बाद सार्वजनिक जुड़ाव का एक नया आयाम आया जिससे काफी पुरुष भी जुड़े।

पुरुषों की हिस्सेदारी की अहमियत

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में हर 3 में 1 महिला शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करती है और अधिकांश मामलों में अपराधी वर्तमान या पूर्व साथी होता है। अगर महिलाओं पर हो रही हिंसा रोकनी है तो पुरुषों को इसका हिस्सा बनाना बहुत ज़रूरी है। यह बहुत दुख की बात है कि समाज में आज भी एक बहुत बड़ा वर्ग है जो महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करता है। उनकी बात को अनदेखा करता है। ये वर्ग सिर्फ पुरुषों की बातें सुनने को तैयार है और इस वर्ग तक आधी आबादी की आवाज़ पुरुष ही पहुंचा सकते हैं। इसलिए इसमें पुरुषों की हिस्सेदारी बहुत महत्वपूर्ण है। हिंसा की जड़ें जेंडर रूल्स और ‘हानिकारक पुरुषत्व’ से जुड़ी हैं। अपराध केवल व्यक्तिगत नहीं होता, बल्कि इसकी वजह अधिकतर समय सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताएं होती हैं।  पुरुषों का कठोर होना, भावनाओं को दबाना और सत्ता केंद्रित व्यवहार आदि कारक हैं। ये सब समाज ने बचपन से लड़कों को सिखा दिया होता है।

अगर इन तथाकथित नियमों को चुनौती नहीं दी जाएगी तो पुरुष का व्यवहार पितृसत्तात्मक रूढ़ियों से ग्रसित ही रहेगा और इन रूल्स और व्यवहार को ख़ुद जागरूक पुरुष ही बदल सकते हैं। हर पुरुष से ये उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वो झंडा लेकर मार्च करे, लेकिन पुरुष ख़ुद में और अपने आस पास के वातावरण में बदलाव तो ला सकता है। वो अपने पियर ग्रुप्स में हो रही हिंसा को न सहें, साथी पुरुषों को गलत व्यवहार पर टोकें और हिंसा के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करें। पॉलिसी रिसर्च स्टडीज़ (पीएसआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लॉ मेकिंग संस्थाओं में यानी लोकसभा में 15 फीसदी और राज्यसभा में 13 फीसदी ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व है। यानी कि प्रशासनिक स्तर या फिर नीति निर्माण के स्तर पर देखें तो अधिकतर निर्णय निर्माता पुरुष ही  हैं और महिलाओं का बेहद कम प्रतिनिधित्व है। इसलिए इस अभियान में पुरुषों की भागीदारी अहम हो जाती है।

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में हर 3 में 1 महिला शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करती है और अधिकांश मामलों में अपराधी वर्तमान या पूर्व साथी होता है। अगर महिलाओं पर हो रही हिंसा रोकनी है तो पुरुषों को इसका हिस्सा बनाना बहुत ज़रूरी है।

कुछ आलोचकों का कहना है कि अगर पुरुष इस अभियान में शामिल होंगे तो महिलाओं की आवाज़ को वो कम कर सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है यूएन वुमन की रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा को खत्म करने में पुरुष और लड़के महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन अभियान में पुरुषों की भागीदारी तभी उपयोगी है जब वह महिलाओं के नेतृत्व और अधिकारों को पूरा कर सके, न कि उनकी जगह पर ख़ुद को स्थापित कर लें। अभियान में महिलाओं को केंद्र में होना चाहिए और पुरुष का काम प्रबंधन या रणनीति बनाने में सहयोग करने और दूसरे पुरुषों को जागरूक करने का होना चाहिए। 

जेंडर आधारित हिंसा केवल महिलाओं की ही समस्या नहीं है, बल्कि पूरे समाज की साझी समस्या है। अगर समाज में लैंगिक समानता लानी है तो पुरुषों को भी इसमें बराबर का भागीदार बनाना ज़रूरी है। क्योंकि हिंसा के लिए आवाज़ उठाना सिर्फ महिलाओं का ही काम नहीं है, इसमें हर उस इंसान की भागीदारी ज़रूरी है जो न्याय और मानवता में भरोसा रखता है क्योंकि यह महिलाओं की नहीं मानवधिकार की लड़ाई भी है। इसलिए अब समय आ गया है कि पुरुष अपनी सोच बदलें और अपनी चुप्पी को तोड़कर रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक सोच पर सवाल उठाएं और बदलाव की दिशा मन अपनी भूमिका निभाएं।  क्योंकि बराबरी के बिना कोई भी इंसान समाज में आज़ाद नहीं हो सकता है।   

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