इंटरसेक्शनलजेंडर जाति, लिंग और धर्म: डिजिटल स्पेस पर भेदभाव के नए तरीके

जाति, लिंग और धर्म: डिजिटल स्पेस पर भेदभाव के नए तरीके

आज सोशल मीडिया पर कई ऐसे पेज सक्रिय हैं, जिनका उद्देश्य किसी विशेष जाति या धर्म के खिलाफ नफरत फैलाना ही है। वे झूठी खबरें और अफ़वाहें फैलाकर और भ्रामक सूचनाएं साझा कर, समुदायों के बीच द्वेष और भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं।

एक वक्त था, जब सामाजिक और सार्वजनिक विमर्श के तरीके अलग थे। तब परिवारों में रसोई की मेज पर, मोहल्ले के नुक्कड़ों पर, या पनवाड़ी की दुकानों पर छोटे-बड़े मुद्दों पर बातचीत होती थी। वहां हर विचार को जगह मिलती थी और मतभेद का भी सम्मान होता था। लेकिन समय बदला, और साथ ही बदले संवाद के स्थान। अब बहसें स्क्रीन पर होती हैं, और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स नए संवाद मंच बन गए हैं। यहां अब बातचीत एकतरफा नहीं बल्कि वैश्विक हो चुकी है—दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति, किसी भी अन्य व्यक्ति से जुड़ सकता है। सोशल मीडिया ने सभी को अपनी बात कहने का अवसर दिया है। यह एक ऐसा मंच बन गया है जहां कोई भी व्यक्ति अपनी बात लाखों लोगों तक कुछ ही पलों में पहुंचा सकता है—वह भी बिना किसी जाति, वर्ग या लिंग के भेदभाव के। लेकिन इस लोकतांत्रिक मंच के साथ कई गंभीर चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। यह मंच अब उन लोगों की पहुँच में भी है, जो जातिवाद, इस्लामोफोबिया और लिंगभेद जैसी विचारधाराओं से ग्रस्त हैं।

वे इन विचारों को कंटेंट के रूप में प्रस्तुत कर लाखों लोगों तक पहुंचा रहे हैं, जिससे सामाजिक विभाजन और हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है। आज सोशल मीडिया पर कई ऐसे पेज सक्रिय हैं, जिनका उद्देश्य किसी विशेष जाति या धर्म के खिलाफ नफरत फैलाना ही है। वे झूठी खबरें और अफ़वाहें फैलाकर और भ्रामक सूचनाएं साझा कर, समुदायों के बीच द्वेष और भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं। कई बार इन पेजों पर जानबूझकर ऐसा कंटेंट डाला जाता है जो समाज में जाति और धर्म आधारित श्रेष्ठता का घमंड भरता है। यह प्रवृत्ति सिर्फ धार्मिक या जातिगत नहीं, बल्कि लैंगिक आधार पर भी सामने आ रही है। कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर ऐसे क्रिएटर्स हैं जो महिलाओं के प्रति घृणा फैलाने के लिए ‘माचो मैन’ की छवि को बढ़ावा देते हैं। यहां तक कि ‘एंटी-फेमिनिस्ट’ नाम से कई पेज मौजूद हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य महिलाओं की निंदा करना, उन्हें कमतर और अयोग्य साबित करना है।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर ऐसे क्रिएटर्स हैं जो महिलाओं के प्रति घृणा फैलाने के लिए ‘माचो मैन’ की छवि को बढ़ावा देते हैं। यहां तक कि ‘एंटी-फेमिनिस्ट’ नाम से कई पेज मौजूद हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य महिलाओं की निंदा करना, उन्हें कमतर और अयोग्य साबित करना है।

कंटेंट की व्यापक पहुंच और उसका असर

इन पेजों के हजारों या लाखों फॉलोवर्स होते हैं, जो बिना तथ्य-जांच किए उस कंटेंट को देखते और साझा करते हैं। नतीजा यह होता है कि जातीय भेदभाव और लैंगिक असमानता को मजबूती मिलती है। सोशल मीडिया पर हर उम्र के लोग मौजूद हैं, और ऐसे में बच्चों और किशोरों पर इस कंटेंट का नकारात्मक असर पड़ता है। इसके अलावा, कई बार संवेदनशील घटनाओं को ट्रेंड्स के रूप में मजाक या मीम्स के जरिए प्रस्तुत किया जाता है। इससे गंभीर घटनाओं की संवेदनशीलता खत्म हो जाती है और लोग इन विषयों को हल्के में लेने लगते हैं। आज सोशल मीडिया पर जाति और धर्म आधारित पेजों की भरमार है। इन पेजों के यूज़रनेम अक्सर किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर उसकी जातिगत या धार्मिक पहचान पर आधारित होते हैं। उदाहरण के तौर पर: xxx_राजपूत, yyy_जाट_प्राइड, zzz_ब्राह्मण, qqq_सनातनी, xxx_जाटव, xxx_मुस्लिम आदि।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इन पेजों का कंटेन्ट आम तौर पर अपनी जाति या समुदाय को सर्वश्रेष्ठ साबित करने और अन्य जातियों को नीचा दिखाने के इरादे से तैयार की जाती है। जब आप इन पेजों के कमेंट सेक्शन पर नज़र डालेंगे, तो वहां भी वैसी ही कटुता और जातिगत श्रेष्ठता का ज़हर फैला मिलेगा। लोग खुले तौर पर अपनी जाति का महिमामंडन करते हैं और दूसरी जातियों को अपमानजनक भाषा में संबोधित करते हैं। यह केवल आपसी संवाद नहीं बल्कि नफरत और विभाजन को बढ़ावा देने वाला व्यवहार है। विशेष रूप से, इन पेजों पर दलितों, महिलाओं और क्वीयर समुदाय के लोगों को निशाना बनाया जाता है। उनके अस्तित्व, उनके संघर्षों और उनके अधिकारों का मज़ाक उड़ाया जाता है। दलित और क्वीयर समुदाय को अक्सर उनकी पहचान के आधार पर गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यह न केवल अपमानजनक है बल्कि हिंसा का एक रूप भी है।

आज सोशल मीडिया पर जाति और धर्म आधारित पेजों की भरमार है। इन पेजों का कंटेन्ट आम तौर पर अपनी जाति या समुदाय को सर्वश्रेष्ठ साबित करने और अन्य जातियों को नीचा दिखाने के इरादे से तैयार की जाती है।

यह व्यवहार ऑनलाइन नफरत और असमानता को बढ़ावा देती है और समाज में पहले से मौजूद भेदभाव को और गहरा करता है। सरकार ने वर्ष 2000 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत सोशल मीडिया और इंटरनेट पर गलत और भ्रामक सूचनाएं रोकने के लिए कानून बनाए थे। इसी दिशा में फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और एक्स जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने भी अपनी-अपनी कम्युनिटी गाइडलाइंस और कंटेंट मॉडरेशन नीतियां बनाई हैं। इनका मकसद है हेट स्पीच, फेक न्यूज़ और आपत्तिजनक सामग्री पर रोक लगाना। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि लाखों की संख्या में लोग बेखौफ होकर झूठी, भड़काऊ और नफ़रत फैलाने वाली सामग्री साझा कर रहे हैं।

क्या ये ट्रेंड्स वाकई में सिर्फ मनोरंजन तक सीमित हैं?

आज महिलाएं केवल घर और रसोई तक सीमित नहीं हैं। वे अपने जीवन से जुड़े फैसले खुद ले रही हैं। लेकिन इसके बावजूद, यह सच्चाई है कि हम आज भी एक पितृसत्तात्मक समाज में रह रहे हैं। यही कारण है कि पूर्वाग्रह से जूझ रहे लोग स्वतंत्र सोच रखने वाली महिलाओं को पसंद एक मुश्किल समझते हैं या पसंद नहीं करते। यह रवैया सोशल मीडिया पर भी खुलकर नज़र आती है। न सिर्फ समाज में बल्कि सोशल मीडिया पर भी जब कोई महिला आगे बढ़ती है, आत्मनिर्भर बनती है या अपनी आवाज़ बुलंद करती है, तो कई लोग उसे ट्रोल करने लगते हैं। ऐसे हजारों पेज, यूट्यूब चैनल और अकाउंट्स हैं जिनका एकमात्र मकसद है महिलाओं के विचारों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, उन्हें बौद्धिक रूप से नीचा दिखाना और यह साबित करने की कोशिश करना कि महिलाओं की आज़ादी समाज के लिए ख़तरनाक है।

साल 2020 में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से मौत के बाद, उनकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया। न सिर्फ ट्रोल बल्कि उन्हें दोषी भी ठहराया गया।

सोशल मीडिया और महिलाओं के खिलाफ पनपता नफरत

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

साल 2020 में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से मौत के बाद, उनकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया। न सिर्फ ट्रोल बल्कि उन्हें दोषी भी ठहराया गया। टीवी डिबेट्स, ट्रोल ट्रेंड्स, मीम्स और गालियों से भरे कमेंट्स ने उन्हें ‘खलनायिका’ बना दिया। हालांकि हाल ही में अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि रिया निर्दोष हैं। इसी तरह जब क्रिकेटर हार्दिक पांड्या और युजवेंद्र चहल के तलाक की खबरें सामने आईं, तो सोशल मीडिया पर तुरंत उनकी पत्नियों — नताशा स्टेनकोविक और धनश्री वर्मा को ट्रोल किया गया। उन्हें ‘गोल्ड डिगर’, ‘स्वार्थी’ जैसे अपमानजनक शब्दों से नवाज़ा गया। यह ट्रेंड बताता है कि समाज अब भी यही मानता है कि अगर कोई रिश्ता टूटता है, तो उसकी ज़िम्मेदारी महिला पर ही डाली जाएगी। रिश्ता और तलाक — दोनों ही व्यक्तिगत निर्णय होते हैं। इसपर सोशल मीडिया को टिप्पणी करने से बचना चाहिए।

क्वीयर समुदाय और सोशल मीडिया का रवैया

डिजिटल युग में सोशल मीडिया ने जहां संवाद, जुड़ाव और अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोले हैं, वहीं यह साइबरबुलिंग, मानसिक और डिजिटल उत्पीड़न का एक बड़ा माध्यम भी बन चुका है। खासकर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए सोशल मीडिया एक दोधारी तलवार बन गया है। जहां एक ओर यह अपनी पहचान और अनुभव साझा करने का मंच देता है, वहीं दूसरी ओर यह नफरत, ट्रोलिंग और हिंसा का जरिया भी बन गया है। एलजीबीटीक्यू+ लोगों को सोशल मीडिया पर अक्सर ट्रोलिंग, डॉक्सिंग (व्यक्तिगत जानकारी सार्वजनिक करना), डेडनेमिंग (पहचान बदलने के बाद पुराने नाम का इस्तेमाल करना), और सेक्सुअल स्लर्स का सामना करना पड़ता है। भारत की ट्रांसजेंडर महिला सर्जन और एलजीबीटीक्यू+ अधिकार कार्यकर्ता डॉ. त्रिनेत्रा हलदर गुम्माराजू ने एक इंटरव्यू में बताया कि सोशल मीडिया पर ट्रांस लोगों का ‘दिखना’ अपनेआप में एक जोखिम बन चुका है। साल 2023 में 16 वर्षीय प्रियांशु यादव की आत्महत्या से मौत ट्रोलिंग का गहरा होता असर का एक दर्दनाक उदाहरण है। प्रियांशु ने सोशल मीडिया पर साड़ी और मेकअप में अपनी तस्वीरें साझा की थीं।

साल 2023 में 16 वर्षीय प्रियांशु यादव की आत्महत्या से मौत ट्रोलिंग का गहरा होता असर का एक दर्दनाक उदाहरण है। प्रियांशु ने सोशल मीडिया पर साड़ी और मेकअप में अपनी तस्वीरें साझा की थीं।

सोशल मीडिया बनता जा रहा है भेदभाव की जगह

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

सोशल मीडिया पर न केवल लैंगिक पहचान के आधार पर, बल्कि जाति के आधार पर भी भेदभाव किये जाते हैं। हाशिये पर रह रहे समुदाय जैसे दलित और आदिवासी समाज की आवाज उठाने वाले पेजों और हैंडल्स को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कई बार ये आरोप लगे हैं कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स खुद भी ऊंची जातियों के पक्ष में भेदभाव करते हैं। द प्रिंट और द इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ साल पहले ट्विटर कथित तौर पर दलित और पिछड़े समुदाय के पेजों को ब्लू टिक वेरिफिकेशन नहीं देता था। यहां तक कि प्रकाश अंबेडकर और भीम आर्मी प्रमुख जैसे नेताओं के आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल भी लंबे समय तक वेरिफाई नहीं किए गए थे। इसे लेकर #CancelAllBlueTicksInIndia जैसे हैशटैग भी ट्रेंड हुए, जिनमें इन कंपनियों पर जातिवादी होने का आरोप लगाया गया।

एल्गोरिथम और पक्षपातपूर्ण कंटेंट की समस्या

यह भेदभाव केवल भारत तक सीमित नहीं है। साल 2023 में प्रसिद्ध ब्रिटिश गायक एल्टन जॉन ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के खिलाफ बढ़ती ऑनलाइन नफरत को लेकर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म ‘हेट मशीन्स’ बन गए हैं, जहां एल्गोरिथम जानबूझकर ऐसे कंटेंट को बढ़ावा देते हैं जो एलजीबीटीक्यू+ लोगों के खिलाफ होते हैं। सोशल मीडिया पर केवल उपयोगकर्ता ही भेदभाव नहीं करते, बल्कि प्लेटफॉर्म्स के एल्गोरिथम भी इसके ज़िम्मेदार हैं। ये एल्गोरिथम तय करते हैं कि किसे क्या कंटेंट दिखाया जाएगा।

क्रिकेटर हार्दिक पांड्या और युजवेंद्र चहल के तलाक की खबरें सामने आईं, तो सोशल मीडिया पर तुरंत उनकी पत्नियों — नताशा स्टेनकोविक और धनश्री वर्मा को ट्रोल किया गया। उन्हें ‘गोल्ड डिगर’, ‘स्वार्थी’ जैसे अपमानजनक शब्दों से नवाज़ा गया।

रिपोर्ट्स बताती हैं कि ये एल्गोरिथम पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग कंटेंट दिखाते हैं, और कई बार नफरत भरे या हिंसक कंटेंट को बैन करने के बजाय बढ़ावा देते हैं। वहीं, धार्मिक नफरत फैलाने में भी सोशल मीडिया की भूमिका गंभीर है। कुछ प्लेटफॉर्म्स इस्लामोफोबिक कंटेंट उन यूज़र्स को दिखाते हैं, जो पहले से पूर्वाग्रह रखते हैं। यह समस्या खासकर हाशिये पर रहे लोगों के लिए मुश्किल खड़ा करती है।

कैसे हो सकता है बदलाव

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इस समस्या को कम करने के लिए सबसे पहले सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। इन्हें कंटेंट मॉडरेशन को गंभीरता से लेना चाहिए और नफ़रत फैलाने वाले कंटेंट के खिलाफ सख़्त नीतियां लागू करनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर घृणात्मक और भेदभावपूर्ण सामग्री को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर्स की भी भूमिका बेहद अहम है। उन्हें ऐसे किसी भी कंटेंट को प्रमोट नहीं करना चाहिए जो जातीय, लैंगिक या धार्मिक भेदभाव को बढ़ावा देता हो। आम यूज़र्स को भी सजग और ज़िम्मेदार रहना चाहिए। मनोरंजन या मज़ाक के उद्देश्य से किसी भी सामग्री को साझा करने से पहले उसकी संवेदनशीलता और सामाजिक असर के बारे में सोचना ज़रूरी है। कोई भी जानकारी साझा करने से पहले उसके स्रोत की विश्वसनीयता की जांच करना आवश्यक है। सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि वे साइबर धमकी, जातीय और लैंगिक उत्पीड़न से बचाने के लिए सख़्त कानून बनाएं और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करें।

Comments:

  1. Rakhi Yadav says:

    Insightful Anamika

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