इंटरसेक्शनलजेंडर भारत में डिजिटल सर्विलांस और महिला कार्यकर्ताओं पर इसका असर

भारत में डिजिटल सर्विलांस और महिला कार्यकर्ताओं पर इसका असर

जामिया मिलिया इस्लामिया की रिसर्च स्कॉलर सफूरा जरगर ने साल 2020 में जब नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया, तो उनकी फ़ोटो को डिस्टॉर्ट किया गया और उन्हें ऑनलाइन धमकियां दी गई।

आज तेजी से बढ़ते डिजिटल तकनीक ने पूरी दुनिया में सामाजिक आंदोलनों में बड़े पैमाने पर बदलाव लाने का काम किया है। ख़ासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स आमजन की आवाज़ बनते जा रहे हैं। अब जनता मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट के सहारे आसानी से अपनी बात पूरी दुनिया तक पहुंचा सकती है। ऐसे में बहुत सारी महिला कार्यकर्ता पर्यावरण, भ्रष्टाचार, लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय के लिए सक्रिय रूप से डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स का इस्तेमाल कर रही हैं। दिशा रवि, तीस्ता सीतलवाड़, वृंदा ग्रोवर, सफूरा जरगर और अरुणा रॉय जैसे हजारों कार्यकर्ता हाशिये के समुदाय के आवाज़ बन चुके हैं।

ये प्लेटफ़ॉर्म्स एक तरफ जहां अपनी बात रखने और आवाज़ बुलंद करने के लिए मजबूत माध्यम बन रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इनका ग़लत इस्तेमाल करके इन आवाज़ों को दबाने के लिए भी किया जा रहा है। भारत में महिला कार्यकर्ताओं पर डिजिटल सर्विलांस एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। जिस तकनीक ने इन्हें अपनी आवाज़ बुलंद करने की ताकत दी वही इन्हें चुप कराने और कंट्रोल में रखने का हथियार भी बनता जा रहा है।

दिशा रवि, तीस्ता सीतलवाड़, वृंदा ग्रोवर, सफूरा जरगर और अरुणा रॉय जैसे हजारों कार्यकर्ता हाशिये के समुदाय के आवाज़ बन चुके हैं। ये प्लेटफ़ॉर्म्स एक तरफ जहां अपनी बात रखने और आवाज़ बुलंद करने के लिए मजबूत माध्यम बन रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इनका ग़लत इस्तेमाल करके इन आवाज़ों को दबाने के लिए भी किया जा रहा है।

क्या है डिजिटल सर्विलांस

तस्वीर साभार: Aaj Tak

डिजिटल सर्विलांस ऑनलाइन की जा रही गतिविधियों की निगरानी और डेटा संग्रह की प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति की निजी जानकारी प्रभावित होती है। इसमें ऑनलाइन ट्रोलिंग शामिल है, जिसका इस्तेमाल अक्सर जागरूक और सक्रिय महिला कार्यकर्ताओं को चुप करने के लिए किया जाता है। इसी तरह डॉक्सिंग यानी किसी की निजी जानकारी फ़ोटो, पता, फोन नंबर बिना उसकी जानकारी और मर्ज़ी के बिना सार्वजनिक कर दिया जाता है या कई बार उसका इस्तेमाल फर्ज़ी प्रोफाइल बनाकर उससे ग़लत और भ्रामक जानकारी साझा की जाती है। इसी तरह एआई का इस्तेमाल कर डीपफेक यानी फर्ज़ी ऑडियो या वीडियो साझा कर इमेज ख़राब करने की कोशिश की जाती है। इसके अलावा जाति, धर्म, जेंडर, रूप-रंग का मजाक उड़ाना और ऑनलाइन धमकी देने जैसे ख़तरे भी इसमें शामिल हैं। इससे न केवल निजता पर असर पड़ता है बल्कि इससे व्यक्ति को मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक तौर पर भी काफ़ी नुकसान उठाना पड़ता है।

महिला कार्यकर्ताओं को किया जाता है टारगेट

भारत में महिला कार्यकर्ताओं की आवाज को दबाने और डराने-धमकाने के लिए लगातार डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें साइबर ट्रोलिंग सबसे आम तरीका है जिसमें इनकी जाति, धर्म, जेंडर, वेशभूषा, रूपरंग और शारीरिक बनावट के आधार पर गालियां धमकियों और अभद्र कमेंट्स किए जाते हैं। जम्मू कश्मीर से ताल्लुक रखने वाली जामिया मिलिया इस्लामिया की रिसर्च स्कॉलर सफूरा जरगर ने साल 2020 में जब नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया, तो उनकी फ़ोटो को डिस्टॉर्ट किया गया और उन्हें ऑनलाइन धमकियां दी गई। यही नहीं उनके ख़िलाफ़ गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत 18 अपराधों के आरोप लगे, जिनमें दंगा, हत्या का प्रयास और सांप्रदायिक हिंसा तक शामिल थी।

जामिया मिलिया इस्लामिया की रिसर्च स्कॉलर सफूरा जरगर ने साल 2020 में जब नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया, तो उनकी फ़ोटो को डिस्टॉर्ट किया गया और उन्हें ऑनलाइन धमकियां दी गई।

हालांकि बाद में सबूतों के अभाव में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र ने भी इनकी हिरासत को मनमाना और अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन बताया था। इसी तरह गुजरात फाइल्स किताब की लेखिका और खोजी पत्रकार राणा अयूब जिन्होंने कठुआ गैंगरेप मामले को उठाने में अहम भूमिका निभाई थी, इन को लगातार डिजिटल सर्विलांस और ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा।

यहां तक कि इनका डीपफेक पोर्न वीडियो भी वायरल किया गया। इसके साथ ही सोशल मीडिया साइट्स पर इनका फोन नंबर और फ़ोटो साझा कर अश्लील मैसेजेस और कमेंट्स किए गए।

सत्ता के खिलाफ़ आवाज़ उठाने पर कार्रवाई

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

साल 2021 के किसान क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शन के दौरान टूलकिट मामला काफ़ी चर्चा में रहा। इस दौरान युवा कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ़्तारी इस आधार पर हुई कि इन्होंने सरकार विरोधी डाक्यूमेंट्स किसानों से साझा किया। यही नहीं सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर ट्रोल्स ने इनकी प्रेग्नेंसी की अफ़वाह फैलाई और इनकी मां के लिए आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। इनके साथ डॉक्सिंग भी की गई यानी बिना जानकारी या मर्ज़ी के इनकी निजी जानकारी साझा की गई। सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की सह संस्थापक और मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगा का सामना कर चुके लोगों को न्याय के लिए लगातार संघर्ष किया, इनके ख़िलाफ़ आपराधिक साजिश रचने और ग़लत सबूत गढ़ने जैसे आरोप में गिरफ़्तारी की गई थी।

हालांकि अब तक इनके ख़िलाफ़ कोई भी आरोप साबित नहीं हो सका है। इसके बावजूद सोशल मीडिया साइट्स पर अक्सर इन्हें ट्रोल किया जाता है और इनके ख़िलाफ़ अफ़वाहें फैलाई जाती हैं। इसी तरह अरुणा रॉय, वृंदा ग्रोवर, संध्या रवि शंकर, आरफा खानम शेरवानी और बिंदु अमीनी जैसी अनगिनत कार्यकर्ताओं को डिजिटल सर्विलांस का सामना करना पड़ता है। यह प्रशासन की तरफ से भी हो सकता है और सोशल मीडिया ट्रोल्स भी इसमें शामिल होते हैं। कई बार ट्रोल्स के पीछे राजनीतिक ताकत होती है जिस वजह से ऐसी घटनाओं को और बढ़ावा मिलता है।

डिजिटल सर्विलांस का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक असर

डिजिटल सर्विलांस का असर महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है जिससे इनके सामाजिक जीवन पर भी गहरा असर पड़ता है। इस वजह से ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स पर महिलाओं की मौजूदगी कम होने की आशंका बढ़ जाती है। साथ ही मानसिक तनाव से बचने के लिए बहुत बार यह लिखना और बोलना कम कर देती हैं। इस तरह से सेल्फ सेंसरशिप जैसी समस्या खड़ी हो जाती है। नैशनल हेराल्ड में छपे एक इंटरव्यू में वृंदा ग्रोवर ने कहा था कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे समाज की संस्कृति और हमारी व्यवस्था महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा पर आधारित है। फ्री स्पीच कलेक्टिव में प्रकाशित एक रिपोर्ट के 2021 में एमनेस्टी इंटरनेशनल के पेगासस प्रोजेक्ट से पता चलता है कि भारत में इसका इस्तेमाल 300 लोगों की डिजिटल निगरानी के लिए किया गया था, जिसमें पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता, छात्र नेता, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता और आम नागरिक भी शामिल थे।

तस्वीर साभार: Canva

भारत के पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के निजी जीवन को लेकर पहले से ही पूर्वाग्रह मौजूद हैं। इसलिए उनके निजी डेटा का लीक होना चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देता है। इससे स्ट्रेस, एंजायटी, डिप्रेशन यहां तक कि आत्महत्या से मौत तक का ख़तरा बढ़ जाता है। भारत में जहां पहले से ही डिजिटल दुनिया में लैंगिक असमानता मौजूद है, वहां डिजिटल सर्विलांस इस खाई को और भी ज़्यादा बढ़ाने का काम करता है। डाउन टू अर्थ में प्रकाशित रिपोर्ट अनुसार GSMA 2021 बताती है कि भारत में महिलाओं के मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल करने की संभावना पुरुषों की तुलना में 41 फीसद कम है। इस तरह डिजिटल सर्विलांस लैंगिक भेदभाव को बढ़ाने का काम करता है जोकि मानव अधिकार के लिहाज से चिंताजनक है।

फ्री स्पीच कलेक्टिव में प्रकाशित एक रिपोर्ट के 2021 में एमनेस्टी इंटरनेशनल के पेगासस प्रोजेक्ट से पता चलता है कि भारत में इसका इस्तेमाल 300 लोगों की डिजिटल निगरानी के लिए किया गया था, जिसमें पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता, छात्र नेता, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता और आम नागरिक भी शामिल थे।

कैसे सुनिश्चित करें डिजिटल सुरक्षा

देश में महिला कार्यकर्ताओं की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की आज़ादी के उनके लोकतांत्रिक अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कई स्तरों पर बदलाव लाने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो क़ानून में सुधार करना ज़रूरी हो जाता है। साल 2023 का डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटक्शन ऐक्ट इस मामले में एक पहल ज़रूर है लेकिन इसमें बहुत सी कमियां भी हैं। कुछ क़ानून ऐसे होने चाहिए जिसमें साइबर स्टॉकिंग, डीपफेक, डॉक्सिंग, ट्रोलिंग को विशेष रूप से शामिल किया जाए। इसके अलावा सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स पर ट्रोलिंग, अश्लील और अभद्र टिप्पणी, डीपफेक वीडियो या मॉर्फ्ड फ़ोटोज, फेक न्यूज़ को ख़ुद से डिटेक्ट करने और उनपर रोक लगाने की तकनीक विकसित की जानी चाहिए। रिपोर्ट करने पर कार्रवाई को और अधिक जवाबदेह, तेज और पारदर्शी बनाने की ज़रूरत है। ऑनलाइन साइट्स पर मौजूद प्रोफ़ाइल को वेरीफाई करने से ट्रॉल्स को ट्रेस करना और उनपर कार्रवाई करना आसान होगा।

महिलाओं पर डिजिटल सर्विलांस को रोकने के लिए समाज को भी आगे आना पड़ेगा। महिलाओं के ऑनलाइन ट्रोल, हिंसा या उत्पीड़न को ‘नॉर्मल’ या एकल घटना मानने की सोच को बदलना होगा। इस तरह की स्थिति पर महिलाओं को ऐसे प्रोफाइल को सिर्फ ब्लॉक करने या अपनी प्रोफाइल लॉक करने का सुझाव देने के बजाय ट्रोल्स पर कठोर कार्रवाई करने की ज़रूरत है। डिजिटल सर्विलांस का असर न सिर्फ़ महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है बल्कि यह लोकतंत्र के लिए भी ख़तरनाक है। हमें मजबूत क़ानून, ज़िम्मेदार सरकार, जवाबदेह सोशल मीडिया कंपनियों और जागरूक समाज की ज़रूरत है। जब हम देश के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता जैसे मूलभूत मानवाधिकार सुनिश्चित कर सकेंगे, तभी हमारा देश वास्तव में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने का हक़दार होगा।

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