भारतीय इतिहास में बहुत सी ऐसी महिलाएं रही हैं जिन्होंने रूढ़िवादी नियमों को तोड़कर घर की चारदीवारी को लांघा और आज़ादी के कई आंदोलनों का हिस्सा बनीं। इन्हीं महिलाओं में से एक थीं विमला बहुगुणा अक्सर लोग उनको सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर किए गए कामों के लिए याद करते हैं। लेकिन वे मुख्य रूप में एक महान समाज सुधारक और पर्यावरण कार्यकर्ता थीं। उन्होंने महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दों पर काम किया और महिला शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में भी योगदान दिया। टिहरी गढ़वाल की बहुत सी पहाड़ी महिलाएं जो घर के और पशुओं के कामों में उलझी रहती थीं उन्हें पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
साथ ही जो भूमिहीन व्यक्ति थे उनको जमीन का अधिकार दिलाने में भी अपनी भूमिका निभाई। वह हमेशा से ही प्रकृति से जुड़ी रहीं शायद इसी का परिणाम था जो उन्हें चिपको आंदोलन तक खींच कर ले गया। गौरतलब है कि, टिहरी गढ़वाल में महिला आंदोलनों के निर्माण में उनकी भूमिका और योगदान को कम करके आंका गया है। यहां तक कि चिपको साहित्य में उनका शायद ही कोई ज़िक्र मिलता है, जबकि वह कई बार गांव की महिलाओं के साथ मिलकर जंगलों में कटाई रोकने के लिए गई थीं।
विमला बहुगुणा अक्सर लोग उनको सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर किए गए कामों के लिए याद करते हैं। लेकिन वे मुख्य रूप में एक महान समाज सुधारक और पर्यावरण कार्यकर्ता थीं। उन्होंने महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दों पर काम किया और महिला शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में भी योगदान दिया।
शुरुआती जीवन और शिक्षा
विमला बहुगुणा का जन्म 4 अप्रैल 1932 में टिहरी जिले के मालीदेवल गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम नारायण दत्त नौटियाल था और माँ रत्ना देवी नौटियाल थीं। उनके पिता एक बन अधिकारी थे। उन्हीं से विमला को प्रकृति के प्रति गहरे प्रेम की प्रेरणा मिली। उस समय लड़कियों के लिए शिक्षा तक पहुंच बहुत ही ज्यादा सीमित थी। इसके बावजूद उन्होंने अपनी आठवीं तक की स्कूली शिक्षा टिहरी में ही रहकर पूरी की। इसके बाद उन्होंने सरला बहन जो कि एक सामाजिक कार्यकर्ता थी उनके कौसानी के ‘कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल’ में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की।
साथ ही वह गांव की महिलाओं के साथ शिक्षा और रोजगार से जुड़ी बातें साझा किया करती थीं। इसके बाद उनका झुकाव समाज सेवा की ओर गहरा होता गया। वह वहां की महिलाओं और जल, जंगल और जमीन से जुड़ी समस्याओं को लेकर बहुत चिंतित रहती थीं और हमेशा इससे जुड़े सुधार के कामों में व्यस्त रहती थीं। इसी दौरान उनकी मुलाकात सुंदरलाल बहुगुणा से हुई जो कि एक गांधीवादी कार्यकर्ता और पर्यावरण प्रेमी थे। दोनों के विचार और लक्ष्य एक जैसे थे इसलिए उन्होंने पर्यावरण और समाज के क्षेत्र में एक साथ मिलकर काम करना शुरू किया।
उस समय लड़कियों के लिए शिक्षा तक पहुंच बहुत ही ज्यादा सीमित थी। इसके बावजूद उन्होंने अपनी आठवीं तक की स्कूली शिक्षा टिहरी में ही रहकर पूरी की। इसके बाद उन्होंने सरला बहन जो कि एक सामाजिक कार्यकर्ता थी उनके कौसानी के ‘कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल’ में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की।
भूदान आंदोलन और सामाजिक कार्यों में योगदान
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक, विनोबा भावे ने जब साल 1953 और साल 1955 के बीच बिहार में भूदान आंदोलन शुरू किया तब वह भी इसमें जुड़ी थी। जिसका उद्देश्य भूस्वामियों को अपनी भूमि का एक हिस्सा उनकी ही इच्छा से भूमिहीन लोगों को देने के लिए राजी करना था। वह भूमिहीन लोगों को भूमि दिलाने के लिए दूर-दराज़ के गांवों में जाती थीं। भूदान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता भावे ने इन शुरुआती दिनों में उनके काम करने के तरीके और दूर-दराज़ के गांवों में उनके प्रभाव को करीब से देखा था। दूर-दराज़ के गावों में, और कई बार तो बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में, वे पहली बार भूदान का संकल्प दिलाने के लिए जाती थीं। सरला बहन ने इन गांवों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर बताया था कि एक नए क्षेत्र में काम करने के बावजूद, उनको अक्सर अपने से अनुभवी स्थानीय पुरुष सदस्यों वाले समूह में नेतृत्व की भूमिका मिलती थी। वह हमेशा यह चाहती थीं कि महिलाओं को समानता का अधिकार मिले।
इस दौरान कुछ समय बाद उन्होंने सुंदर लाल बहुगुणा के साथ शादी कर ली। शादी के बाद वह दोनों टिहरी गढ़वाल के एक दूर के गांव सिलयारा में एक आश्रम रहे। यहां वे सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सहारा और प्रेरणादायक शख्सियत बन गईं, जिन्होंने नदियों और जंगलों की रक्षा के लिए, कथित दलित समुदाय के समान अधिकारों के लिए, शराब की बढ़ती समस्याओं के खिलाफ काम किया और कई रचनात्मक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया। जब भूकंप ने सिलयारा आश्रम के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया था, तब उन्होंने आश्रम को दोबारा बनाने के लिए बहुत सी मुश्किलों का सामना किया। वह एक गृहस्थ महिला के रूप में गांवों में रहती रहीं और इसके साथ ही वे एक कार्यकर्ता के रूप में बच्चों को पढ़ाने और महिलाओं में आत्मविश्वास की भावना पैदा करने का काम भी करती रहीं। उन्होंने ग्रामीण महिलाओं को स्थायी कृषि, हस्तशिल्प और सरकारी व्यवसायों का प्रशिक्षण देकर आर्थिक निर्भर बनने में की राह दिखाई। भारत में नारीवाद के मुख्यधारा में आने से बहुत पहले, वह यह सुनिश्चित कर रही थीं कि महिलाओं के पास अपने पैरों पर खड़े होने के साधन हों। जिन महिलाओं को उन्होंने प्रशिक्षित किया था, उनमें से कई आगे चलकर सामाजिक कार्यकर्ता बनीं ।
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे एक लेख के मुताबिक, विनोबा भावे ने जब साल 1953 और साल 1955 के बीच बिहार में भूदान आंदोलन शुरू किया तब वह भी इसमें जुड़ी थी। जिसका उद्देश्य भूस्वामियों को अपनी भूमि का एक हिस्सा उनकी ही इच्छा से भूमिहीन लोगों को देने के लिए राजी करना था।
चिपको आंदोलन, शराबबंदी और टिहरी बांध के विरोध में उनका योगदान
1970 के दशक में चिपको आंदोलन के लिए महिलाओं को संगठित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, एक ऐसा अभियान जिसने पेड़ों को गले लगाना प्रतिरोध का एक वैश्विक प्रतीक बना दिया। जब पुरुष काम की तलाश में बाहर थे। तब उनके नेतृत्व में महिलाओं ने पेड़ों को काटने से रोकने के लिए अपने शरीर से पेड़ों को घेर लिया। इन ग्रामीण महिलाओं के लिए यह अपने प्राकृतिक संसाधनों को व्यावसायिक रूप से काटे जाने से बचाने की लड़ाई थी। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे एक लेख के मुताबिक, साल 1971 में उन्होंने गढ़वाल में शराबबंदी के लिए भी अभियान चलाया और ग्रामीण महिलाओं को इस आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
इससे शराब के नकारात्मक प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ी और कई परिवारों को लत से उबरने में मदद मिली। साथ ही उन्होंने अपनी बूढ़ी माँ को भी इस अभियान में शामिल होने के लिए राजी किया। इस आंदोलन के कारण एक बार तो उन्हें जेल भी जाना पड़ा जब उनका बेटा मात्र 6 साल का था। साथ ही टिहरी बांध के विरोध में भी उनकी भूमिका केवल विरोध प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं थी, उन्होंने प्रभावित लोगों को संगठित किया। कानूनी प्रक्रियाओं की जानकारी दी और अदालत में चल रहे मामलों से जुड़े प्रयासों में सहयोग किया। वह गांव – गांव जाकर लोगों को इकट्ठा करती रहीं और जब कई लोग हताश होकर पीछे हट गए थे, तब भी उन्होंने आंदोलन को जीवित बनाए रखा और पीछे नहीं हटीं। साल 1975 में अंतर्राष्ट्रीय महिला साल के दौरान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने उन्हें खेती पुरस्कार से सम्मानित किया था। इसके बाद साल 1995 में महिलाओं और बच्चों के विकास और कल्याण के लिए काम करने के लिए उन्हें जमना लाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस तरह वो अपने पूरे जीवन में पर्यावरण और सामाजिक कामों के प्रति समर्पित रहीं। इस साल 14 फरबरी को उनकी मृत्यु हो गई।
लेकिन अपने सामाजिक और पर्यावरणीय आंदोलनों में सहयोग के माध्यम से वह हमेशा याद की जाती रहेंगी। विमला बहुगुणा के जीवन से यह सीखा जा सकता है कि एक साधारण महिला किस तरह से देश और समाज में जागरूकता का दीप जला सकती है। उन्होंने न केवल पर्यावरण से जुड़ा हुए कामों में अपना योगदान दिया, बल्कि अन्य महिलाओं को भी अपने हकों और अधिकारों के प्रति जागरूक किया ताकि समाज में हर एक महिला आर्थिक रूप से आत्म निर्भर हो सके और उन्हें भी बराबरी के अवसर मिल सकें । उनके प्रयासों से बहुत सी ग्रामीण महिलाएं शिक्षा और रोजगार से जुड़ी साथ ही जल -जंगल और जमीन की लढाई में भी बढ़ – चढ़ कर भाग लेने लगीं।

