समाजख़बर प्रयागराज में किशोरी की ऑनर किलिंग: क्या सेक्स एजुकेशन दिखा सकती है रास्ता?

प्रयागराज में किशोरी की ऑनर किलिंग: क्या सेक्स एजुकेशन दिखा सकती है रास्ता?

समाज टेक्नोलॉजी और आधुनिकता की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, लेकिन कई जगहों पर अभी भी रूढ़ियां और सामंती सोच हावी है। ऑनर किलिंग जैसे अपराधों को जिस तरह से कुछ लोग सही ठहराते हैं या सोशल मीडिया पर अपराधियों की प्रशंसा करते हैं, जो एक बेहद चिंताजनक स्थिति को दिखाता है।

हाल ही में उत्तरप्रदेश के प्रयागराज से आई एक दर्दनाक घटना ने पूरे समाज को झकझोर दिया है। खबरों के अनुसार, कांटी गाँव में 15 साल की एक किशोरी की उसके ही माता-पिता ने कथित तौर पर हत्या कर दी। इस घटना के पीछे कारण यह बताया जा रहा है कि वह फोन पर लड़कों से बात करती थी, और इसी बात पर उसके माता-पिता ने यह कदम उठाया। यह घटना किसी साधारण हिंसा का मामला नहीं है। यह घटना नूपुर तलवार केस की भी याद दिलाती है, जिसमें परिवार के भीतर की हिंसा और उसे छुपाने की कोशिशों ने समाज को कई सालों तक विचलित किया था। ऐसी घटनाएं हमारे समाज और परिवारों के मूल्यों पर गंभीर सवाल उठाती हैं। जब माता-पिता ही अपनी बच्चियों की सुरक्षा के बजाय उनके जीवन पर हमला करने लगें, तो यह संकेत है कि हमारा सामाजिक ढांचा पितृसत्तात्मक सोच से कितना गहराई से प्रभावित है।

हमारे समाज में लड़कियों और महिलाओं की इच्छाओं, पसंद, आवाज़ और उनकी यौनिकता पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। पितृसत्ता उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश करती है। जब कोई लड़की या महिला इस नियंत्रण के खिलाफ खड़ी होती है, तो उसे अक्सर हिंसा, चरित्रहनन या चरम स्थितियों में मौत का सामना भी करना पड़ता है। हर ऐसी घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर कब तक लड़कियां पितृसत्तात्मक मान-सम्मान की भेंट चढ़ती रहेंगी? कब तक समाज परिवार की इज़्ज़त को एक लड़की की स्वतंत्रता और उसकी ज़िंदगी से बड़ा मानता रहेगा? इस घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि ऑनर किलिंग सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि एक सामाजिक समस्या है। इसे खत्म करने के लिए हमें परिवार, समुदाय, स्कूल और कानून सभी स्तरों पर मिलकर काम करना होगा।

हमारे समाज में लड़कियों और महिलाओं की इच्छाओं, पसंद, आवाज़ और उनकी यौनिकता पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। पितृसत्ता उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश करती है। जब कोई लड़की या महिला इस नियंत्रण के खिलाफ खड़ी होती है, तो उसे अक्सर हिंसा, चरित्रहनन या चरम स्थितियों में मौत का सामना भी करना पड़ता है।

लगातार बढ़ती ऐसी घटनाएं बताती हैं कि भारतीय समाज में यौन-शिक्षा की बेहद कमी है। हमारे यहां बच्चों ही नहीं, माता-पिता को भी सेक्स एजुकेशन, सहमति और नागरिक अधिकारों के बारे में जानकारी होना ज़रूरी है। अपनी इच्छा से साथी चुनना और अपने यौन-अधिकारों का उपयोग करना हर व्यक्ति का लोकतांत्रिक हक है। पुलिस जांच में ये पता चला कि माता-पिता ने घर के पास झाड़ियों में ले जाकर कथित तौर पर बेटी की हत्या की, क्योंकि उन्हें बेटी का लड़कों से बात करना मंज़ूर नहीं था। भारत में ऑनर किलिंग की घटनाएं लगातार हो रही हैं। सरकार और संस्थाएं इन्हें रोक पाने में असफल रही हैं। जाति, धर्म और पारिवारिक इज़्ज़त के नाम पर अक्सर युवाओं के खिलाफ हिंसा की जाती है। हाल ही में बिहार में एक पिता ने बेटी के पति की कथित तौर पर हत्या कर दी क्योंकि लड़की ने अपनी मर्जी से शादी की थी। सोशल मीडिया पर भी कई बार ऐसे अपराधियों को शाबाशी मिलती है, जो समाज के लिए खतरनाक है। इसी साल एक घटना में कथित तौर पिता ने अपनी बेटी को सिर्फ इसलिए गोली मार दी क्योंकि वह एक दोस्त के साथ रेस्टोरेंट में चाय पी रही थी। इन घटनाओं से साफ है कि समाज की पुरानी धारणाएं और पितृसत्तात्मक सोच लड़कियों के जीवन के लिए गंभीर खतरा बन चुकी हैं।  

इसी बीच, सहमति की कानूनी उम्र (एज ऑफ कॉन्सेंट) को लेकर सुप्रीम कोर्ट में महत्वपूर्ण बहस हुई है। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने सुझाव दिया कि सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की कानूनी उम्र 18 से घटाकर 16 साल की जाए। उनका तर्क है कि वर्तमान कानून किशोरों के बीच सहमति वाले रोमांटिक संबंधों को अपराध बना देता है, जिससे उनके संवैधानिक अधिकार प्रभावित होते हैं। वहीं, सरकार ने कोर्ट में कहा कि सहमति की उम्र 18 साल ही रहनी चाहिए, ताकि नाबालिगों को यौन हिंसा से सुरक्षा दिया जा सके। सरकार कह रही है कि कई मामलों में शोषण परिवार या रिश्तेदारों द्वारा ही किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई कि सहमति की उम्र घटाने से रेप जैसे अपराध बढ़ सकते हैं। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि किशोरों के बीच सहमति वाले संबंधों के मामलों में परिस्थिति और गंभीरता को ध्यान में रखा जा सकता है। सरकार ने सहमति की उम्र के इतिहास का ज़िक्र करते हुए बताया कि साल 1860 में यह उम्र 10 साल थी, जो समय-समय पर बढ़ते हुए आज 18 वर्ष हो गई है।

वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने सुझाव दिया कि सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की कानूनी उम्र 18 से घटाकर 16 साल की जाए। उनका तर्क है कि वर्तमान कानून किशोरों के बीच सहमति वाले रोमांटिक संबंधों को अपराध बना देता है, जिससे उनके संवैधानिक अधिकार प्रभावित होते हैं।

कंसेंट की आयु सीमा पर सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी ने एक महत्वपूर्ण बहस को फिर से सामने ला दिया है। कोर्ट और सरकार दोनों ने यह स्वीकार किया है कि किशोरों की सुरक्षा और उनके अधिकारों के बीच संतुलन बनाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। केवल कानून बनाने से बदलाव नहीं आता, जब तक समाज में उन्हें लागू करने की समझ और इच्छा नहीं होगी। जागरूक नागरिक ही किसी भी कानून को ज़मीन पर उतार सकते हैं। हमारा समाज अभी भी पितृसत्तात्मक सोच से गहराई से प्रभावित है। माता-पिता के भीतर मौजूद यह मानसिकता अक्सर बच्चों की आज़ादी और उनके फैसलों को सीमित कर देती है। ऐसे समय में ज़रूरी है कि परिवार अपने भीतर मौजूद पितृसत्तात्मक दृष्टि को पहचानकर उसे बदलने की कोशिश करें। आज अधिकांश बच्चे सह-शिक्षा विद्यालयों में पढ़ते हैं, जहां लड़के और लड़कियां एक साथ पढ़ते और बढ़ते हैं। इससे उनमें लैंगिक संवेदनशीलता विकसित होती है, वे विविधताओं को स्वीकार करना सीखते हैं और एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करने की क्षमता विकसित करते हैं। इस तरह वे समानता, संवाद और दूसरों के साथ स्वस्थ संबंध बनाने का अभ्यास करते हैं।

दूसरी ओर, समाज टेक्नोलॉजी और आधुनिकता की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, लेकिन कई जगहों पर अभी भी रूढ़ियां और सामंती सोच हावी है। ऑनर किलिंग जैसे अपराधों को जिस तरह से कुछ लोग सही ठहराते हैं या सोशल मीडिया पर अपराधियों की प्रशंसा करते हैं, जो एक बेहद चिंताजनक स्थिति को दिखाता है। कोई भी संतान चाहे लड़का हो या लड़की; अपने माता-पिता की संपत्ति नहीं होती। उनका अपना जीवन, अपनी पसंद और अपने अधिकार होते हैं। जब तक समाज इस बुनियादी सच को स्वीकार नहीं करेगा, तब तक ऐसे अपराध रुकेंगे नहीं। यह दुखद है कि सिर्फ 15 साल की एक बच्ची, जो दुनिया को समझने और अपने अनुभवों को गढ़ने की शुरुआत ही कर रही थी, उसे अपने जीवन के फैसलों के कारण जीवन से हाथ धोना पड़ा। इस उम्र में बच्चे आकर्षण, भावनाओं और संबंधों की दुनिया को समझने के शुरुआती चरण में होते हैं। ऐसे में किसी किशोरी की कथित हत्या इस बात की याद दिलाती है कि हमारा समाज अभी भी सुरक्षित, संवेदनशील और न्यायपूर्ण बनने से दूर है।

ज़रूरी है कि परिवार अपने भीतर मौजूद पितृसत्तात्मक दृष्टि को पहचानकर उसे बदलने की कोशिश करें। आज अधिकांश बच्चे सह-शिक्षा विद्यालयों में पढ़ते हैं, जहां लड़के और लड़कियां एक साथ पढ़ते और बढ़ते हैं।

एक लोकतांत्रिक राज्य में हमारे अधिकार सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। लेकिन यदि सुरक्षा के नाम पर उन्हीं अधिकारों को सीमित करने की कोशिश होने लगे, तो यह चिंता का विषय है। राज्य समाज से बनता है और समाज पर राज्य की नीतियों और उसके स्वभाव का गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि राज्य लोकतांत्रिक मूल्यों को आगे बढ़ाता है, तो समाज भी उसी दिशा में मजबूत होता है। लेकिन जब राज्य इन मूल्यों पर ज़ोर नहीं देता, तब लोकतंत्र कमजोर होने लगता है। सहमति की आयु सीमा बढ़ाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जो बहस चल रही है, उसमें राज्य का रुख कई सवाल खड़े करता है। हमारा पारंपरिक समाज पहले से ही लड़के और लड़कियों की दोस्ती, उनके मिलने-जुलने और बराबरी से बातचीत के खिलाफ रहा है। ऐसे में यदि राज्य भी इसी सोच के साथ खड़ा दिखाई देता है, तो चिंता बढ़ती है। क्या राज्य आधुनिक और समानता आधारित समाज बनाने की बजाय रूढ़ियों और पुरानी परंपराओं को मजबूत करने की ओर बढ़ रहा है? ऑनर किलिंग की घटनाएं भी यही सवाल उठाती हैं। आखिर ये अपराध आज भी क्यों हो रहे हैं? क्या इसमें राज्य की नीतियों या उसकी चुप्पी की कोई भूमिका है? समाज जहां आधुनिकता और संवेदनशीलता की ओर बढ़ना चाहिए था, वह कई मायनों में पीछे लौटता दिख रहा है।

जहां एक समय ऑनर किलिंग के मामले मूल रूप से उन समुदायों में देखे जाते थे, जहां सामंती और रूढ़िवादी सोच गहरी थी, वहीं अब ये अपराध उन जातियों और समुदायों में भी बढ़ रहे हैं जो पहले इन मूल्यों से काफी हद तक मुक्त माने जाते थे। प्रयागराज के घूरपुर क्षेत्र में 15 साल की जिस किशोरी की हत्या हुई, वह इसी दुखद बदलाव का एक उदाहरण है। कुछ दशक पहले हाशिये पर मौजूद समुदायों में लड़कियों पर इस प्रकार के नियंत्रण या “परिवार की इज़्ज़त” जैसे सामंती विचार इतने मजबूत नहीं थे। लेकिन समाज में बढ़ती पुनरुत्थानवादी और पितृसत्तात्मक ताकतों ने इन समुदायों को भी सामंती मूल्यों की ओर धकेल दिया है। ऐसे समय में ऑनर किलिंग को रोकने के लिए जागरूकता सबसे ज़रूरी है। समाज को समझना होगा कि यह अपराध किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसके साथ ही सेक्स एजुकेशन और संबंधों को लेकर खुली बातचीत बच्चों और किशोरों को सुरक्षित और समझदार बनाती है। सरकार को भी इस दिशा में कदम उठाने होंगे। सख्त कानून, शिक्षा, संवेदनशीलता और अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस प्रयास जरूरी हैं। एक न्यायपूर्ण समाज तभी बन सकता है जब हर व्यक्ति; हर जेंडर, जाति और वर्ग को अपने जीवन के फैसले लेने का अधिकार मिले। पितृसत्तात्मक समाज को यह स्वीकार करना होगा कि किसी भी इंसान का जीवन और उसकी इच्छा, परिवार की इज़्ज़त से अधिक महत्वपूर्ण है।

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