“उर्मि मर गई है। नहीं, नहीं! उसे मार दिया गया है।” किसने मारा? क्यों मारा? और कैसे? इन सभी गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करता उर्मि का भाई सच जानकर भी असहाय है। गौतम, जो उर्मि का प्रेमी है अपने सारे होश, सारे हवास खो बैठा है। उर्मि को प्यार करने की सज़ा मिली है। उसके अपने ही पीहर और ससुराल के लोगों ने मिलकर उसे ये सजा दी है। उर्मि का भाई सोचता रहता है कि उर्मि की लाश कहीं पड़ी हुई है, बह गई है, जल गई है या कहीं दबी हुई है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमृता प्रीतम की कलम जब जब चली है, एक बेहतरीन रचना का गढ़ना तय हुआ है। आक के पत्ते उन्हीं रचनाओ में से एक है। यह कहानी एक ऐसे मुद्दे पर लिखी गई है जिसके बारे में आज भी देश के हिस्सों से खबरें आती रही हैं। सम्मान के लिए हत्या या ऑनर किलिंग से जुड़ी ये कहानी शुरू होती है घने गाढ़े शोक से, पश्चाताप से, दुख से। उर्मि का छोटा भाई अपनी बहन को ढूंढ रहा है। वह नहीं कह सकता कि उसकी बहन ज़िंदा है या मर गई क्योंकि उसने उसे न तो मरते देखा, न मरने के बाद। वह गुम हो गई है। उर्मि का कहीं नाम निशान नहीं है, जैसे उर्मि कभी थी ही नहीं। कानून ने सही मायने में अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली है। उर्मि की चारपाई, कांसे की थाली, उर्मि का प्रेम-गौतम, राह तकने में व्यस्त है।
गौतम, जिसे उर्मि ने प्यार किया था, अपना विवेक खो बैठा है। टोने टोटके और अजीब हरकते कर उर्मि का पता लगाने में अपना दिन और रात झोंक रहा है। वह कांप उठता है सदमे से। “तू समुद्र में भी खो नहीं पाती, मैं सारा समुद्र मथकर तुझे ढूंढ लेता” कहने वाला गौतम उर्मि को ढूंढने से थकता नहीं है। एक ही गांव का रहने वाला है पर वापस उस गांव में पांव धरने से संकोच करता है। डरता है कि कहीं उर्मि को मरा हुआ न पा ले। अफ़सोस पूरा गांव छान मारने के बाद भी उर्मि क्या उसकी लाश तक का पता नहीं कर पा रहा है। अपने जीवन के होने में एक मात्र काम अब गौतम का उर्मि को ढूंढना ही शेष लक्ष्य रह गया है।
बचपन में ही उर्मि का ब्याह करा दिया जाता है। उसका पति केन्या को रवाना हो जाता है। बाद में उर्मि सबको मनाकर शहर पढ़ने आती है पर असल में वह गौतम के लिए शहर आती है। उर्मि के भाई को गौतम के लिए उसके प्रेम के बारे में जानकारी है और खुशी भी। वह खुद उर्मि और गौतम के रिश्ते के आगे ढाल बनकर खड़ा है और अपनी बहन के फैसले से संतोष पाता है।
एक रोज़ अचानक उर्मि के पिता और ससुर आते हैं और गौतम और उर्मि के भाई की गैरमौजूदगी में उर्मि को पकड़कर ले जाते हैं। वह सात महीने की गर्भवती भी होती है। इस हादसे के बाद से उसका कुछ पता नहीं है। उर्मि का भाई अपने पिता से सच सुनने के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए आतुर है। उसकी माता को किसी से कोई मोह नहीं रह गया है और वह गठरी बनी घर के एक कोने में बैठी रहती है।
उर्मि गौतम से बेहद प्यार करती है और परिवार में ये खबर फैलने का परिणाम समझती है। प्रेम तो सबको साहस देता है। पाबंदियों से ही तो विद्रोह का जन्म हुआ है। गौतम के प्रेम से साहस पाती उर्मि विद्रोह के लिए तैयार है। एक दफा अपने भाई से कहती पाती है, “भइया रे! गौतमी शिला सचमुच होती है, यह पानी में नहीं डूबती। रामचन्द्रजी जब लंका गए थे, तो गौतमी शिला पर बैठकर गए थे। मेरा प्यार भी गौतमी शिला है, यह मुझे पार लगा देगा।” लेकिन अब उर्मि का भाई सोचता है, उर्मि ने शायद आखिरी वक्त गौतमी शिला वाली बात सोची होगी, और उसे पता नहीं कैसा गुस्सा आया होगा इस कलियुग पर, जहां गौतमी शिला भी पानी में डूब जाती है।
हादसे के कुछ एक महीने के बाद केन्या से उर्मि का पति भी उसके भाई के पास आता है। वह भी इस कांड में शामिल है और उर्मि के लिए नहीं बल्कि उसके गहनों की खातिर आया है। दिखावे का धन और सम्मान इंसान को खोखला बना देता है। वह व्यक्ति इंसान और बुत का फ़र्क भूल जाता है। उर्मि के पिता भी यह फ़र्क भूल गए हैं।
कहानी हताशा से भरी पड़ी है। अमृता प्रीतम का लेखन जब भी आंखों के समक्ष पाएंगे तो इस कहानी से जुड़ी ख़बरें मन के रेडियो स्टेशन पर लगातार चलने लगती है। क्या किसी के झूठे सम्मान का मोल किसी की ज़िंदगी से ज्यादा महत्व रखता है? इस कहानी को पढ़कर संताप आपके मन को घेर लेगा। और ऐसी कितनी ही कहानियां है जो कहीं पड़ी होंगी, बह गई होंगी, जल गई होगी या मिट्टी में दबी होंगी। कहानी को पढ़े कितने दिन बीत गए पर मन अब भी इस एक सवाल पर अटका है, “जो जहां भी किसी का कुछ संवारता है, क्या वह हर जगह उर्मि है?