इंटरसेक्शनलजेंडर खुद को ‘फेमिनिस्ट वेडिंग’ का टैग देती शादियां आखिर कितनी फेमिनिस्ट हैं?

खुद को ‘फेमिनिस्ट वेडिंग’ का टैग देती शादियां आखिर कितनी फेमिनिस्ट हैं?

सामाजिक ढांचे में शादी की सांस्कृतिक और कानूनी संरचना लंबे समय से एक स्त्री–पुरुष जोड़े, बच्चे पैदा करने की क्षमता और पितृसत्तात्मक नियमों पर आधारित रही है। ऐसे में जब कोई हेटरोसेक्शुअल जोड़ा फेमिनिस्ट वेडिंग करता है, तो महिला पंडित बुलाना, कन्यादान को खारिज करना या को-एंट्री जैसी प्रथाएं अपनाना सिर्फ़ प्रतीकात्मक बदलाव बनकर रह जाते हैं।

आज सोशल मीडिया के दौर में ‘फेमिनिस्ट वेडिंग’ एक नया ट्रेंड बनकर उभर रहा है। भारतीय शादियों में भी अब कुछ बदलाव दिख रहे हैं, जहां दूल्हा–दूल्हन शादी से जुड़े फैसले बराबरी से लेते हैं। कई कपल शादी के खर्च में समान भागीदारी, महिला पंडित से शादी, दूल्हे को सिंदूर लगाना, कन्यादान जैसी रस्मों को खत्म करना और विदाई की प्रथा को चुनौती देना जैसे कदम उठा रहे हैं। लेकिन यहां एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या यह बदलाव सभी जेंडर, जाति, वर्ग और समुदायों के लिए संभव है? क्या यह ट्रेंड सोशल मीडिया से बाहर ज़मीनी स्तर पर भी उसी तरह मौजूद है? क्या यह ट्रेंड वास्तव में उतना समावेशी है जितना नारीवादी विचारधारा मांग करती है? फेमिनिस्ट वेडिंग का मतलब है ऐसी शादी जिसमें दूल्हा और दुल्हन बराबरी, सहमति और साझेदारी के साथ हर निर्णय लेते हैं। यह शादी पारंपरिक विवाह में मौजूद जेंडर आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह को चुनौती देती है।

इस तरह की शादी में दोनों पार्टनर अपनी पसंद और एजेंसी का सम्मान करते हैं। यहां रिश्ते को बराबरी पर आधारित माना जाता है, न कि पितृसत्तात्मक परंपराओं पर। नारीवादी शादी का उद्देश्य उन रस्मों को बदलना या खारिज करना है जो महिलाओं को वस्तु की तरह प्रस्तुत करती है; जैसे कन्यादान, विदाई या ऐसी कोई भी रस्म जो लड़की को ‘पराया धन’ बताती हो या फिर बिन बोले गिफ्ट के रूप में दहेज की उम्मीद। भारत में फेमिनिस्ट वेडिंग की अवधारणा पर सबसे पहले बाबासाहब अंबेडकर जोर देते हैं। उनके हिसाब से अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादियों के माध्यम से ही पितृसत्ता और जाति को समाज से उखाड़ कर एक समावेशी समाज बनाया जा सकता है। उनका यह विचार आज की फेमिनिस्ट वेडिंग सिद्धांत में एक दम सटीक बैठता है।

लंदन यूनिवर्सिटी के एक शोध पत्र कॉममोडिटी फेमिनिज़म एण्ड ड्रेसिंग द बेस्ट सेल्फ ऑन अ प्रैक्टिकल वेडिंग  में इन बदलावों को ‘दिखावे का नारीवाद’ बताया गया है। यानी ऐसे बदलाव जो दिखते तो नारीवादी हैं, लेकिन असल ढांचे पर खास असर नहीं डालते।

फेमिनिस्ट शादी का भ्रम और वास्तविक समानता की कमी 

आजकल ‘फेमिनिस्ट वेडिंग’ का चलन बढ़ रहा है। इसमें दुल्हन–दूल्हे के कपड़ों में बदलाव, शादी के फोटो-शूट, सोशल मीडिया हैशटैग, दूल्हे को सिंदूर लगाना, महिला पंडित और कन्यादान को हटाने जैसे कदम दिखाई देते हैं। यह सब देखने में प्रगतिशील लगता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे शादी के असली सत्ता-संबंध बदल रहे हैं? लंदन यूनिवर्सिटी के एक शोध पत्र कॉममोडिटी फेमिनिज़म एण्ड ड्रेसिंग द बेस्ट सेल्फ ऑन अ प्रैक्टिकल वेडिंग  में इन बदलावों को ‘दिखावे का नारीवाद’ बताया गया है। यानी ऐसे बदलाव जो दिखते तो नारीवादी हैं, लेकिन असल ढांचे पर खास असर नहीं डालते। यह सही है कि महिला पंडित का आना, कन्यादान का नकारना और दोनों पक्षों की बराबरी की भूमिका पितृसत्ता को प्रतीकात्मक चुनौती देते हैं। सोशल मीडिया भी ऐसे उदाहरणों को बड़े स्तर पर फैलाता है।

लेकिन कुछ नारीवादी जैसे निवेदिता मेनन, मानती हैं कि केवल शादी के दिन की रस्में बदलने से असल व्यवस्था नहीं बदलती। जब तक शादी के बाद घरेलू कामों का बंटवारा, आर्थिक फैसलों में बराबरी, परिवार की अपेक्षाएं, अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह की स्वीकृति और समुदाय का दबाव नहीं बदलता, तब तक यह बदलाव सतही ही रहते हैं। शादी एक ऐसी संस्था है जिसकी मूल संरचना अब भी पितृसत्तात्मक है। इसमें घर, परिवार और निर्णयों पर नियंत्रण अक्सर पुरुषों के हाथों में ही रहता है। इसीलिए केवल रस्में बदलने से पितृसत्ता खत्म नहीं होती। इसके लिए शादी के अंदर मौजूद वास्तविक सत्ता समीकरणों को चुनौती देना ज़रूरी है।

निवेदिता मेनन, मानती हैं कि केवल शादी के दिन की रस्में बदलने से असल व्यवस्था नहीं बदलती। जब तक शादी के बाद घरेलू कामों का बंटवारा, आर्थिक फैसलों में बराबरी, परिवार की अपेक्षाएं, अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह की स्वीकृति और समुदाय का दबाव नहीं बदलता, तब तक यह बदलाव सतही ही रहते हैं।

फेमिनिस्ट वेडिंग की बात करते समय अक्सर कहा जाता है कि दहेज, कन्यादान जैसी परंपराओं को छोड़ दिया जा रहा है। लेकिन असलियत यह है कि दहेज नए रूपों में फिर भी मौजूद रहता है। आज कई परिवार इसे गिफ्ट्स, कन्यादान पैकेज या ब्राइडल हैम्पर जैसे नामों में अपनी डिमांड पेश करते हैं। दहेज निषेध कानून 1961 के बावजूद यह प्रथा अलग-अलग रूपों में जारी है। नाम बदल जाने से इसकी असमानता खत्म नहीं होती। लेन-देन चाहे किसी भी नाम से हो, इसका बोझ अक्सर लड़की और उसके परिवार पर ही पड़ता है। नारीवादी विद्वान इस बात पर ज़ोर देते हैं कि केवल दिखावटी बदलाव से समाज में वास्तविक बराबरी नहीं आती। शादी में समानता तभी संभव है जब रिश्ते में पारदर्शिता, दोनों पक्षों की सहमति, और बिना किसी आर्थिक दबाव के निर्णय हों। दहेज के रूप बदलने से पितृसत्ता कमजोर नहीं होती। बराबरी के लिए ज़रूरी है कि शादी को आर्थिक सौदे की तरह देखने की सोच बदली जाए। नारीवादी और शिक्षाविद उमा चक्रवर्ती अपनी किताब जेंडरिंग कास्ट: थ्रू ए फेमिनिस्ट लेंस  में लिखती हैं कि शादी, महिलाओं को गोत्र और वंशावली की शुद्धता बनाए रखने वाले ढांचे में बांधती है।

क्या फेमिनिस्ट शादियों में समावेशिता की कमी है

आजकल बड़े शहरों और आर्थिक रूप से सक्षम तबकों में फेमिनिस्ट वेडिंग का चलन बढ़ रहा है। शादी अब सिर्फ एक पारिवारिक रस्म नहीं, बल्कि एक भव्य आयोजन बन चुकी है। वेडिंग इंडस्ट्री, फोटोग्राफ़ी और डेस्टिनेशन वेडिंग ने इसे एक दिखावटी उत्सव का रूप दे दिया है। लेकिन आउटलुक इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि भारतीय शादी अब भी जाति और वर्ग के ढांचे में गहराई से जुड़ी हुई है। ये सच है कि फेमिनिस्ट वेडिंग को अपनाना आर्थिक पहुंच पर भी निर्भर करता है। जिन परिवारों के पास पैसे, संसाधन और सामाजिक सुरक्षा होती है, वही लोग रस्मों को बदलने की हिम्मत कर पाते हैं। इसलिए, यह मॉडल अब भी मूल रूप से केवल कथित उच्च मध्यम और उच्च वर्ग तक सीमित है। अंतरजातीय शादी के संदर्भ में यह और जटिल हो जाता है। रिसर्च गेट के एक अध्ययन में बताया गया है कि अंतरजातीय शादी करने वाले जोड़ों को सामाजिक और पारिवारिक दबाव का ज़्यादा सामना करना पड़ता है। खासकर दलित या कथित निम्न जातियों की महिलाओं के लिए यह खतरा और भी अधिक होता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन के शोध पत्र कॉममोडिटी फेमिनिज़म एंड ड्रेसिंग द बेस्ट सेल्फ ऑन अ प्रैक्टिकल वेडिंग के अनुसार, फेमिनिस्ट वेडिंग पर चर्चा अधिकतर कपड़ों, फोटोशूट और उपभोक्ता विकल्पों तक सीमित रहती है। इसमें खास तौर पर हेटरोसेक्शुअल महिलाओं के अनुभवों को अधिक महत्व मिलता है, जिससे क्वीयर जोड़े और नॉन-बाइनरी पहचान वाले लोग इस दायरे से बाहर रह जाते हैं।

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वहीं अल जज़ीरा की रिपोर्ट बताती है कि गरीब परिवारों की लड़कियां शादी के खर्च और दहेज के बोझ की वजह से दोहरे संकट में फंसी रहती हैं। इसलिए जिन महिलाओं पर पहले से ही आर्थिक, सामाजिक और जातिगत नियंत्रण है, उनके लिए फेमिनिस्ट वेडिंग अभी भी एक अवास्तविक धारणा है। उनकी शादियों में दहेज, सामाजिक निगरानी और आर्थिक असमानता जैसी अनेक बाधाएं काम करती हैं। दिया मिर्ज़ा जैसी सेलेब्रिटीज़ की फेमिनिस्ट वेडिंग एक प्रतीकात्मक बदलाव तो ज़रूर दिखाती है, लेकिन यह बदलाव समाज के सभी वर्गों, जातियों और समुदायों के लिए न ही संभव है और ही ही इस तक बराबर पहुंच है। सच्चाई ये है कि भारत में शादी संबंधी ढांचा अब भी असमानताओं से भरा है और फेमिनिस्ट वेडिंग का सपना सभी के लिए अभी दूर है।

क्या फेमिनिस्ट शादी हेटरोनॉर्मटिव दायरे में ही होंगी 

सामाजिक ढांचे में शादी की सांस्कृतिक और कानूनी संरचना लंबे समय से एक स्त्री–पुरुष जोड़े, बच्चे पैदा करने की क्षमता और पितृसत्तात्मक नियमों पर आधारित रही है। ऐसे में जब कोई हेटरोसेक्शुअल जोड़ा फेमिनिस्ट वेडिंग करता है, तो महिला पंडित बुलाना, कन्यादान को खारिज करना या को-एंट्री जैसी प्रथाएं अपनाना सिर्फ़ प्रतीकात्मक बदलाव बनकर रह जाते हैं। इन बदलावों से बराबरी की एक छवि तो दिखती है, लेकिन शादी की मूल संरचना हेटेरोनॉर्मटिव ही बनी रहती है। इसी वजह से फेमिनिस्ट वेडिंग के विमर्श में अक्सर क्वीयर समुदाय और नॉन-बाइनरी लोगों की उपस्थिति कम दिखाई देती है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन के शोध पत्र कॉममोडिटी फेमिनिज़म एंड ड्रेसिंग द बेस्ट सेल्फ ऑन अ प्रैक्टिकल वेडिंग के अनुसार, फेमिनिस्ट वेडिंग पर चर्चा अधिकतर कपड़ों, फोटोशूट और उपभोक्ता विकल्पों तक सीमित रहती है। इसमें खास तौर पर हेटरोसेक्शुअल महिलाओं के अनुभवों को अधिक महत्व मिलता है, जिससे क्वीयर जोड़े और नॉन-बाइनरी पहचान वाले लोग इस दायरे से बाहर रह जाते हैं। साफ तौर पर हेटरोनॉर्मटिव शादी के ढांचे के भीतर किए गए फेमिनिस्ट सुधार; जैसे दूल्हा–दूल्हन की बराबर साझेदारी, महिला पंडित या कन्यादान का त्याग सिर्फ़ सतही समानता ला सकते हैं।

सामाजिक ढांचे में शादी की सांस्कृतिक और कानूनी संरचना लंबे समय से एक स्त्री–पुरुष जोड़े, बच्चे पैदा करने की क्षमता और पितृसत्तात्मक नियमों पर आधारित रही है। ऐसे में जब कोई हेटरोसेक्शुअल जोड़ा फेमिनिस्ट वेडिंग करता है, तो महिला पंडित बुलाना, कन्यादान को खारिज करना या को-एंट्री जैसी प्रथाएं अपनाना सिर्फ़ प्रतीकात्मक बदलाव बनकर रह जाते हैं।

क्या सच में शादी को फेमिनिस्ट बनाया जा सकता है?

आज कई युवा महिलाएं कन्यादान न करने का फैसला ले रही हैं। कुछ जोड़े पारंपरिक सात वचनों की बजाय बराबरी पर आधारित साझा वचन ले रहे हैं। कई दूल्हनें घोड़ी पर चढ़कर बारात निकाल रही हैं या दूल्हे को सिंदूर लगा रही हैं। कुछ शादी समारोह महिला पंडित करवाती हैं। साथ ही विदाई और दहेज जैसी परंपराओं को चुनौती देते हुए ‘पराया धन’ जैसी सोच को भी नकारा जा रहा है। हालांकि ये बदलाव पितृसत्ता को चुनौती तो देते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या शादी जैसी संरचनात्मक रूप से पितृसत्तात्मक संस्था को सच में फेमिनिस्ट बनाया जा सकता है? देश में विवाह संस्था ऐतिहासिक रूप से पितृसत्ता, जाति और हेटरोनॉर्मेटिविटी पर आधारित रही है। बाबासाहब अंबेडकर ‘जाति प्रथा का विनाश’ में लिखते हैं कि शादी, जाति व्यवस्था को बनाए रखने का सबसे शक्तिशाली साधन है। इसी वजह से जब तक समाज में जाति आधारित शदियां आम हैं, किसी भी शादी को पूरी तरह से फेमिनिस्ट कहना मुश्किल है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, भारत में आज भी अधिकतर शादियां अपनी ही जाति के भीतर होती हैं।

कई लोग दहेज की परंपरा को नकारने, शादी में दोनों परिवारों के बराबर योगदान, साथ मिलकर निर्णय लेने और घरेलू और भावनात्मक श्रम के बंटवारे जैसे बदलावों की बात करते हैं। कुछ लोग विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी करके धार्मिक और पितृसत्तात्मक रस्मों को भी छोड़ देते हैं। लेकिन सच यह है कि ऐसे बदलाव अक्सर आर्थिक रूप से मजबूत और विशेषाधिकार प्राप्त तबके तक सीमित रह जाते हैं या हाशिये के समुदाय जो ऐसे कदम उठाते हैं, उन्हें निजी तौर पर नफरत और हिंसा का सामना करना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने अबतक भारत में सेम सेक्स मैरेज को कानूनी मान्यता नहीं दी है। इसलिए शादी की संस्था अभी भी पूरी तरह हेटरोनॉर्मेटिव है। इसीलिए ‘फेमिनिस्ट वेडिंग’ की अवधारणा केवल हेटरोसेक्शुअल जोड़ों तक सीमित हो जाती है। इसलिए देखा जाए तो व्यक्तिगत रिश्ते जरूर फेमिनिस्ट हो सकते हैं, लेकिन शादी एक संस्था के रूप में पूरी तरह फेमिनिस्ट नहीं बन पाती। किसी शादी को फेमिनिस्ट तभी कहा जा सकता है जब वह सत्ता, जेंडर, वर्ग और समुदाय आधारित पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती दे। जरूरी है कि सोशल मीडिया पर होने वाले प्रतीकात्मक बदलाव या सिर्फ ‘फेमिनिस्ट’ होने के संकेत, असल में भी हो।

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