संस्कृतिसिनेमा मेड इन डेगनहम: वैतनिक समानता की मांग करती महिला श्रमिकों की ऐतिहासिक फिल्म

मेड इन डेगनहम: वैतनिक समानता की मांग करती महिला श्रमिकों की ऐतिहासिक फिल्म

फिल्म के अंत में एक महत्वपूर्ण बैठक होती है। इस बैठक में महिलाओं ने फैसला किया कि कोई भी पुरुष यूनियन अधिकारी या पुरुष फोर्ड अधिकारी शामिल नहीं होगा। उनका मानना था कि पुरुष उनकी मांगों को सही तरह समझ नहीं पाते हैं, इसलिए यह फैसला लिया गया।

महिलाओं के अधिकारों और बराबरी की लड़ाई को दिखाने वाली कई फ़िल्में बनी हैं। मेड इन डेगनहम ऐसी ही एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है, जो एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह फ़िल्म दिखाती है कि कार्यस्थल पर महिलाओं को किस तरह कमतर समझा जाता था और उन्होंने कैसे अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाई। मेड इन डेगनहम साल 2010 की एक ब्रिटिश फ़िल्म है, जिसका निर्देशन निगेल कोल ने किया है। इसमें सैली हॉकिन्स, बॉब होस्किन्स, मिरांडा रिचर्डसन, रोसमंड पाइक और कई अन्य कलाकारों ने भूमिकाएं निभाई हैं। यह फ़िल्म 1968 में ब्रिटेन के डेगनहम में स्थित फोर्ड कार प्लांट में हुई महिला कर्मचारियों की ऐतिहासिक हड़ताल पर आधारित है।

फ़िल्म में दिखाया गया है कि प्लांट में काम करने वाली महिला सिलाई मशीनिस्ट कार की सीटों के कवर सिलने का काम करती थीं। लेकिन उन्हें पुरुष कर्मचारियों की तुलना में कम वेतन मिलता था और उनके काम को ‘अकुशल’ बताया गया था। जब यह फैसला सुनाया गया तो महिलाओं को गुस्सा और अपमानित महसूस हुआ। उन्होंने इस लैंगिक भेदभाव के खिलाफ हड़ताल शुरू कर दी। उस समय कंपनियों के लिए महिलाओं को कम वेतन देना आम बात थी, चाहे वे कितनी भी कुशल क्यों न हों। यह फ़िल्म दिखाती है कि इन महिलाओं की हिम्मत और संघर्ष ने कैसे पूरे ब्रिटेन में समान वेतन कानून (ईक्वल पे एक्ट) लाने की राह तैयार की। यह सिर्फ़ एक हड़ताल की कहानी नहीं, बल्कि सम्मान, बराबरी और महिला अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक है।

फ़िल्म में दिखाया गया है कि प्लांट में काम करने वाली महिला सिलाई मशीनिस्ट कार की सीटों के कवर सिलने का काम करती थीं। लेकिन उन्हें पुरुष कर्मचारियों की तुलना में कम वेतन मिलता था और उनके काम को ‘अकुशल’ बताया गया था। जब यह फैसला सुनाया गया तो महिलाओं को गुस्सा और अपमानित महसूस हुआ।

फ़िल्म की मुख्य किरदार रीता ओ’ग्रेडी और हड़ताल

सैली हॉकिन्स ने फ़िल्म में रीटा ओ’ग्रेडी का किरदार निभाया है। वह फ़िल्म की मुख्य नायिका हैं और फोर्ड कारखाने की महिला कर्मचारियों की हड़ताल का नेतृत्व करती हैं। रीटा कार सीट कवर सिलने का काम करती हैं और एक साधारण सिलाई मशीनिस्ट की ज़िंदगी जीती हैं। लेकिन जब उन्हें और उनकी सहकर्मियों को कम वेतन मिलता है, तो वह अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं। रीटा अपनी साथी महिलाओं को बराबरी के वेतन के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। फ़िल्म में रीटा का सफ़र बहुत प्रभावशाली है। एक साधारण कामगार महिला से एक मजबूत नेता बनने तक उनकी जर्नी चलती जाती है। उनका संघर्ष महिला सशक्तिकरण की एक सुंदर मिसाल बन जाता है। यह कहानी दिखाती है कि आम महिलाएं भी बदलाव ला सकती हैं और समाज में बड़े परिवर्तन की शुरुआत कर सकती हैं। रीटा के इस संघर्ष का असर उनके परिवार पर भी पड़ता है। शुरुआत में उनके पति एडी ओ’ग्रेडी उनकी इस लड़ाई से नाराज़ रहते हैं और दोनों के बीच दूरियां बढ़ जाती हैं। लेकिन अंत में एडी अपनी गलती समझते हैं और रीटा से माफ़ी मांगते हैं। इस तरह फ़िल्म रिश्तों की जटिलता को भी सहज और वास्तविक तरीके से पेश करती है।

एक नारीवादी पुरुष के रूप में अल्बर्ट पासिंघम

फ़िल्म में अल्बर्ट पासिंघम का किरदार, जिसे बॉब होस्किन्स ने निभाया है, बहुत अहम है। उसे एक संवेदनशील और नारीवादी सोच वाला व्यक्ति कहा जा सकता है। वह यूनियन का सहायक प्रतिनिधि है और महिलाओं की बराबरी की लड़ाई में लगातार उनका साथ देता है। वह महिलाओं को आंदोलन में टिके रहने और अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रेरित करता है। अल्बर्ट एक वामपंथी विचारधारा वाला व्यक्ति है। उसके सिद्धांत उसकी यूनियन की सीमाओं से कहीं आगे जाते हैं। फ़िल्म के एक दृश्य में अल्बर्ट और रीता कैफ़े में बातचीत कर रहे होते हैं। वह रीता से कहता है कि यह मुद्दा इस बात का नहीं है कि आप कौन-सा काम कर रही हैं। असली बात यह है कि फोर्ड महिलाओं को कम वेतन देता है क्योंकि उसे इसकी इजाज़त है। पूरे देश में महिलाएं सिर्फ़ इसलिए कम कमाती हैं क्योंकि वे महिलाएं हैं।

“मेड इन डेगनहम” की कहानी और संदेश आज भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि लैंगिक समानता और वेतन समानता के मुद्दे अब भी विश्वभर में मौजूद हैं। फिल्म में दिखाया गया संघर्ष और महिलाओं की एकता आज भी कई आंदोलनों को प्रेरित करती है।

जब तक तुम्हें पुरुषों के बराबर वेतन नहीं मिलेगा, तब तक तुम्हें हमेशा दूसरे दर्ज़े पर रखा जाएगा। रीता जब पूछती है कि वह इस लड़ाई में खुद को क्यों शामिल कर रहे हैं, तो अल्बर्ट अपनी कहानी बताता है। वह कहता है कि मेरी परवरिश मेरी मां ने की, जो बेहद मेहनती और बहादुर थीं। उन्होंने जीवन भर काम किया। फिर भी उन्हें पुरुषों से कम वेतन मिलता था। उन्हें रोज़ लंबे घंटे काम करना पड़ता था। लेकिन किसी ने कभी सवाल नहीं उठाया कि ऐसा क्यों है। अब किसी को तो इस शोषण को रोकना होगा। और वह ये कदम उठा रही हैं। इसी अनुभव के कारण अल्बर्ट महिलाओं की इज़्ज़त करता है और उनकी स्थिति को गहराई से समझता है। वह साफ़ देखता है कि महिलाएं मेहनत तो बराबर करती हैं, पर उन्हें उसका श्रेय और उचित वेतन नहीं मिलता। वह इसे गलत मानता है और बदलाव की लड़ाई में पूरे मन से महिलाओं के साथ खड़ा रहता है।

आज भी क्यों ज़रूरी है ‘मेड इन डेगनहम’ की कहानी

इस हड़ताल ने उस समय की सामाजिक स्थिति को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। साथ ही आज भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को हमेशा कमतर समझा गया है। 1968 के समय में भी यही स्थिति थी और आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है। फिल्म में लिसा हॉपकिंस (रोसमंड पाइक) का किरदार उन पढ़ी-लिखी गृहिणियों की जिंदगी को दर्शाता है, जिन्हें उनके परिवार और पति द्वारा कम आँका जाता है। एक दृश्य में लिसा, रीता से मिलने आती हैं और बताती हैं कि वे पीटर की पत्नी हैं। पीटर फोर्ड के इंडस्ट्रियल रिलेशंस का हेड है और फिल्म में महिला कर्मचारियों के वेतन भेदभाव के खिलाफ मुख्य विरोधी के रूप में दिखाया गया है। रीता को यह लगने पर कि लिसा उनसे हड़ताल बंद करने की बात कहने आई हैं, लिसा तुरंत कहती हैं कि रीता बिल्कुल सही कर रही है और यह हड़ताल जारी रहनी चाहिए। रीता के हैरान होने पर लिसा बताती हैं कि उन्होंने दुनिया के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है, फिर भी उनका पति उनके साथ ऐसे बर्ताव करता है मानो वे कुछ समझती ही नहीं हों।

लिसा का किरदार उन महिलाओं की आवाज़ को ताकत देता है, जो अलग-अलग सामाजिक समूहों से आती हैं और सिर्फ़ महिला होने के कारण उपेक्षा और अपमान का सामना करती हैं। फिल्म में कई छोटे-छोटे दृश्य आज के समाज को भी दर्शाते हैं। “मेड इन डेगनहम” की कहानी और संदेश आज भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि लैंगिक समानता और वेतन समानता के मुद्दे अब भी विश्वभर में मौजूद हैं। फिल्म में दिखाया गया संघर्ष और महिलाओं की एकता आज भी कई आंदोलनों को प्रेरित करती है। फिल्म की कहानी हमें यह सिखाती है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए व्यक्तिगत साहस और सामूहिक प्रयास, दोनों जरूरी हैं। यह सिर्फ़ एक समय या स्थान की कहानी नहीं है, बल्कि व्यापक और लम्बे समय तक असर छोड़ने वाली सच्चाई है। यह हमें भविष्य के लिए उम्मीद भी देती है और अलग-अलग क्षेत्रों में बराबरी के अधिकार की लड़ाई जारी रखने की प्रेरणा भी।

फिल्म के अंत में एक महत्वपूर्ण बैठक होती है। इस बैठक में महिलाओं ने फैसला किया कि कोई भी पुरुष यूनियन अधिकारी या पुरुष फोर्ड अधिकारी शामिल नहीं होगा। उनका मानना था कि पुरुष उनकी मांगों को सही तरह समझ नहीं पाते हैं, इसलिए यह फैसला लिया गया।

संघर्ष से बदलाव की दिशा

फिल्म के अंत में एक महत्वपूर्ण बैठक होती है। इस बैठक में महिलाओं ने फैसला किया कि कोई भी पुरुष यूनियन अधिकारी या पुरुष फोर्ड अधिकारी शामिल नहीं होगा। उनका मानना था कि पुरुष उनकी मांगों को सही तरह समझ नहीं पाते हैं, इसलिए यह फैसला लिया गया। लंबे संघर्ष के बाद महिलाएं काम पर लौटने के लिए इस शर्त पर तैयार हुईं कि उनका वेतन पुरुषों के वेतन का 92 फीसद कर दिया जाएगा। यह उनकी पूरी मांगें नहीं थीं, इसलिए कुछ महिलाएं नाखुश भी थीं। फिर भी उन्होंने काम पर लौटने का निर्णय लिया, ताकि आगे की लड़ाई जारी रख सकें। फिल्म का समापन बहुत प्रेरणादायक और उम्मीद से भरा है। कहानी के अंत में बताया गया है कि फोर्ड की महिला सिलाई मशीनिस्टों की इस हड़ताल के कारण ब्रिटेन में समान वेतन अधिनियम 1970 लागू हुआ।

इस कानून ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर काम के लिए समान वेतन पाने का अधिकार दिया। अंतिम दृश्यों में यह संदेश दिया जाता है कि यह आंदोलन सिर्फ फोर्ड की महिलाओं के लिए नहीं था, बल्कि दुनिया भर की महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष को नई ऊर्जा देने वाला साबित हुआ। यह फिल्म दिखाती है कि जब महिलाएं एकजुट होकर आवाज उठाती हैं, तो बड़े बदलाव संभव होते हैं। फोर्ड की महिला मजदूरों का साहस न सिर्फ उनके अधिकारों की जीत बना, बल्कि पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए प्रेरणा भी। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि समानता की लड़ाई भले कठिन हो, लेकिन उसका परिणाम समाज को बेहतर बनाता है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content