समाजपर्यावरण जलवायु परिवर्तन और बढ़ती लैंगिक हिंसा के संकट पर एक नज़र

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती लैंगिक हिंसा के संकट पर एक नज़र

यूनाइटेड नेशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के साथ अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) में 4.7 फीसद की बढ़ोतरी होती है।

जलवायु परिवर्तन अब सिर्फ़ बढ़ते तापमान, बाढ़, सूखा भूकंप या पिघलते ग्लेशियर का मुद्दा नहीं रह गया है बल्कि यह हमारे सामाजिक ताने-बाने पर भी गहराई से असर डाल रहा है। आज जलवायु परिवर्तन का सीधा असर मानवाधिकार पर पड़ रहा है और इससे सबसे ज़्यादा नुकसान महिलाओं, नॉन बाइनरी और पहले से ही हाशिए पर डाल दिए गए लोगों पर पड़ रहा है। जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक और पर्यावरणीय आपदाएं आती हैं, वहां सिर्फ़ इमारतें ही नहीं टूटतीं बल्कि मानवीय गरिमा पर भी संकट आ जाता है। विशेषकर महिलाओं और नॉन बाइनरी लोगों की सुरक्षा, सम्मान और आज़ादी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होती है। प्राकृतिक आपदाएं सिर्फ आधारभूत ढांचे ही नहीं बल्कि सामाजिक ढांचे को कमज़ोर करती हैं। ऐसे में लैंगिक हिंसा का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है। इससे महिलाओं और लैंगिक अल्पसंख्यकों को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ख़ासतौर पर बचाव अभियानों और राहत शिविरों में हिंसा और उत्पीड़न से जुड़ी घटनाएं सामने आती हैं।

क्या कहते हैं हालिया आंकड़े

यूनाइटेड नेशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के साथ अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) में 4.7 फीसद की बढ़ोतरी होती है। इसी तरह साल 2090 तक 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने की स्थिति में हर साल 4 करोड़ महिलाओं को अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि तापमान में 3.5 सेल्सियस की बढ़ोत्तरी की स्थिति में यह संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा होने की आशंका है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया भर में एक अरब से ज़्यादा महिलाओं यानी हर तीन में से एक महिला को अपनी ज़िंदगी में कभी न कभी शारीरिक, मानसिक या यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। असल में यह संख्या इससे कई गुना ज़्यादा हो सकती है क्योंकि हिंसा का सामना करने वाली केवल 7 फ़ीसद महिलाएं ही उसकी रिपोर्ट कर पाती हैं। रिपोर्ट में हीट वेव जैसे एक्सट्रीम वेदर कंडीशन में महिलाओं की हत्या में 28 फीसद की बढ़ोतरी देखी गई। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के गंभीर नतीजे सामने आएंगे, लैंगिक हिंसा (जीबीवी) का ख़तरा बढ़ता जाएगा।

यूनाइटेड नेशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के साथ अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) में 4.7 फीसद की बढ़ोतरी होती है।

यूनाइटेड नेशन स्पॉटलाइट इनीशिएटिव दुनिया भर में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा को ख़त्म करने की एक पहल है। इसने चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से सामाजिक और आर्थिक संकट लोगों में तनाव बढ़ा रहा है, जिससे महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। यूनाइटेड नेशन ने लैंगिक हिंसा (जीबीवी) को वैश्विक महामारी का नाम दिया है। बाढ़, सूखा और भूकंप जैसी आपदाओं के दौरान डर, आशंका और अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो जाती है। इससे यौन शोषण, मानव तस्करी और बाल विवाह जैसे मामले भी बढ़ जाते हैं। इस तरह से जलवायु परिवर्तन का समाधान न सिर्फ़ पर्यावरण के लिए बल्कि मानव अधिकार को बनाए रखने के लिए भी बेहद ज़रूरी है। विश्व बैंक के एक शोध के अनुसार आपदा के दौरान महिलाओं और लड़कियों को नुकसान पहुंचने की आशंका 14 गुना तक बढ़ जाती है।

जलवायु संकट से कैसे बढ़ती है लैंगिक हिंसा

जब बाढ़, भूकंप, सूखा जैसी आपदाएं आती हैं तो सबसे पहले बच्चे, महिलाएं, विकलांग और दूसरे संवेदनशील समूहों पर असर पड़ता है। आपदा की वजह से जब घर टूट जाते हैं तो लोग दूसरी जगहों पर सहारा लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं। असुरक्षा, आशंका और डर के ऐसे माहौल में ख़ास तौर पर महिलाओं और क्वीयर के सामने दोहरा संकट खड़ा हो जाता है। एक तरफ तो आपदा दूसरी तरफ असुरक्षा और डर का माहौल होने से बाकी लोगों की तुलना में इन्हें ज़्यादा तनाव से गुज़रना पड़ता है। राहत शिविरों में भीड़, निजता की कमी और सही सुरक्षा व्यवस्था न होने से हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ जाती हैं। ख़ासकर एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के लिए परेशानियां और बढ़ जाती हैं क्योंकि इनके लिए अलग से कोई इंतज़ाम नहीं किया जाता। बचाव और राहतकर्मी भी इस समाज से आते हैं जहां क्वीयर और ट्रांस लोगों को अलग नज़र से देखा जाता है। ऐसे में राहत काम और शिविरों में भी इन्हें भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है।

विश्व बैंक के एक शोध के अनुसार आपदा के दौरान महिलाओं और लड़कियों को नुकसान पहुंचने की आशंका 14 गुना तक बढ़ जाती है। जब बाढ़, भूकंप, सूखा जैसी आपदाएं आती हैं तो सबसे पहले बच्चे, महिलाएं, विकलांग और दूसरे संवेदनशील समूहों पर असर पड़ता है। आपदा की वजह से जब घर टूट जाते हैं तो लोग दूसरी जगहों पर सहारा लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

पित्तृसत्तात्मक संरचना में ज़्यादातर खाना-पानी, साफ-सफाई जैसी ज़िम्मेदारियां कम उम्र से ही महिलाओं पर डाल दी जाती हैं। ऐसे में सूखाग्रस्त इलाकों में लड़कियों और महिलाओं को अक्सर दूरदराज़ से पानी लाने के लिए आते-जाते वक्त यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। ख़ास तौर पर आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की महिलाओं और बच्चियों के लिए यह बेहद ख़तरनाक हो जाता है क्योंकि उन्हें रोज़मर्रा के कामों जैसे पानी, ईंधन के लिए हर दिन निकलना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से रोज़गार पर भी असर पड़ता है। खेती बर्बाद होने या उस पर निर्भर रहने वाले काम छूट जाने से परिवार में तनाव बढ़ता है जिसका नतीजा अक्सर महिलाओं पर हिंसा के रूप में देखा जाता है। आपदाओं के दौरान तनाव, बेरोजगारी, डर और आशंका घरेलू हिंसा को बढ़ावा देते हैं। कई बार किसी तरह की आपदा की वजह से अचानक आई आर्थिक तंगी से महिलाओं और बच्चों तक को जोख़िम भरे कामों में लगना पड़ता है या लड़कियों की कम उम्र में जैसे तैसे शादी करा दी जाती है।

आपदा के समय प्रशासनिक और क़ानून व्यवस्था कमज़ोर पड़ जाती है जिस वजह से अपराधियों के हौसले और बुलंद होते हैं। ऐसे में महिलाओं, बच्चों और क्वीयर समुदाय की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाती है। मध्य प्रदेश के रीवा की स्कूल टीचर अर्चना सिंह इस विषय पर कहती हैं, “किसी भी तरह के आपदा के समय सबसे बड़ी समस्या सुरक्षा की होती है। हालांकि हमारे लिए तो आपदा तो छोड़ो रोज़मर्रा के जीवन में भी सुरक्षा ही सबसे बड़ा मसला होती है। लेकिन मैं जब गरीब ख़ासतौर पर फुटपाथ पर रहने वाली खानाबदोश महिलाओं को देखती हूं तो मुझे उनके लिए बहुत दुख होता है। हम तो अपने घर में फिर भी सुरक्षित हैं पर उनके लिए तो ख़तरा हर समय बना हुआ है। सुरक्षा के लिए चाहे जितने क़ानून बन जाएं लेकिन जब तक समाज में जेंडर डिस्क्रिमिनेशन बना रहेगा तब तक जलवायु परिवर्तन हो या रोज़मर्रा का जीवन महिलाओं के सामने बड़ा संकट मौजूद रहेगा।”

किसी भी तरह के आपदा के समय सबसे बड़ी समस्या सुरक्षा की होती है। हालांकि हमारे लिए तो आपदा तो छोड़ो रोज़मर्रा के जीवन में भी सुरक्षा ही सबसे बड़ा मसला होती है। लेकिन मैं जब गरीब ख़ासतौर पर फुटपाथ पर रहने वाली खानाबदोश महिलाओं को देखती हूं तो मुझे उनके लिए बहुत दुख होता है।

एशिया और भारत की स्थिति

दुनिया की 40 फीसद प्राकृतिक आपदाएं एशिया प्रशांत क्षेत्र में ही होती हैं और यहां इस दौरान महिलाओं के ख़िलाफ़ लैंगिक हिंसा (जीबीवी) तेजी से बढ़ जाती है। यूएन वुमन में प्रकाशित इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ रेड क्रॉस एंड रेड क्रीसेंट सोसायटी (आईएफआरसी) की रिपोर्ट में पाया गया कि आपदाओं के बाद घरेलू और लैंगिक हिंसा के मामलों में बढ़ोत्तरी देखी गई। राहत शिविरों में सुरक्षा की कमी और भीड़ की वजह से महिलाओं के यौन उत्पीड़न और मानव तस्करी जैसी घटनाएं बढ़ीं। हैती में भूकंप के बाद राहत शिविरों में महिलाओं को अपनी बुनियादी ज़रूरतों जैसे खाना पानी और दवाइयाों के बदले में यौन संबंध बनाने का दबाव बनाया गया। नेपाल में भयानक भूकंप के बाद बढ़ती गरीबी की वजह से लड़कियों के बाल विवाह और जबरन विवाह के मामले देखे गए। इसी तरह इंडोनेशिया में प्राकृतिक आपदा के बाद राहत शिविरों में क्वीयर समुदाय के लोगों को इस कदर भेदभाव सहना पड़ता था कि वह वहां आसरा लेने से बचते थे। 

नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिसिन (एनआईएम) के अनुसार भारत में हर 3 में से 1 महिला को अपने जीवन काल में कम से कम एक बार अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) का सामना करना पड़ा है। यूनाइटेड नेशन के अनुसार भारत को 2020-22 के दौरान गंभीर सूखे का सामना करना पड़ा है, यानी लगभग दो तिहाई हिस्सा सूखे की चपेट में रहा है। अध्ययन में पाया गया कि भारत में सूखा और अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके साथ ही सूखा और दहेज हत्या के बीच भी संबंध देखा गया। इससे साफ पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन और आपदा जैसी स्थितियों से पर्यावरण पर ही नहीं बल्कि महिलाओं और नॉन बाइनरी लोगों की सुरक्षा, सम्मान और आज़ादी पर भी संकट पैदा हो जाता है।

मेरा रूम इलाहाबाद के एक बाढ़ प्रवण इलाके में है जहां बारिश के मौसम में समस्याएं बढ़ जाती हैं। लड़के तो कैसे भी कहीं भी रह लेते हैं हमें तो हर समय अपने कपड़ों तक को लेकर सचेत रहना पड़ता है।

प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाली विनीता कुमारी कहती हैं, “मेरा रूम इलाहाबाद के एक बाढ़ प्रवण इलाके में है जहां बारिश के मौसम में समस्याएं बढ़ जाती हैं। लड़के तो कैसे भी कहीं भी रह लेते हैं हमें तो हर समय अपने कपड़ों तक को लेकर सचेत रहना पड़ता है। लगातार बारिश और बाढ़ की स्थिति में अक्सर पॉवर कट हो जाती है जिस वजह से अंधेरा रहता है। ऐसे में अपनी सुरक्षा को लेकर अतिरिक्त सतर्कता और सजगता बरतनी पड़ती है। हर समय तनाव बना रहता है जिससे पढ़ाई प्रभावित होती है। किसी भी तरह की आपदा या महामारी के समय हम लड़कियों के लिए चुनौतियां दोहरी हो जाती हैं।”

क्या हो सकता है समाधान

जलवायु संकट केवल पर्यावरण की समस्या नहीं है बल्कि यह मानव अधिकार के सामने भी एक बड़ी चुनौती के तौर पर सामने आ रहा है। ऐसे में पहले से ही कमज़ोर और हाशिये पर रह रहे समुदायों जैसे महिलाओं, विकलांगों और नॉन बाइनरी लोगों के सामने संकट और बढ़ जाता है। ऐसे में आपदा राहत योजनाओं में जेंडर सेंसिटिव नीतियों को लागू करने की ज़रूरत है जिससे सभी को सुरक्षित माहौल मुहैया कराया जा सके। इसके लिए नीतियां बनाते समय सभी की भागीदारी सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है। साथ ही आपदा और बचाव कामों में भी इन समुदायों को शामिल किए जाने की ज़रूरत है। समस्या को ठीक से समझने के लिए जेंडर सेंसिटिव रिपोर्टिंग और रिसर्च को बढ़ावा देने की भी ज़रूरत है । इसके अलावा दूरगामी नतीजों के लिए समाज में लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर अभियान चलाना सबसे ज़रूरी है क्योंकि जब तक पूरे समाज में आमूलचूल बदलाव नहीं आएगा तब तक समस्या का पूरी तरह समाधान मुश्किल है। एक सुरक्षित और न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए हमें सभी को साथ लेकर चलना होगा तभी समावेशी विकास सुनिश्चित हो पाएगा।

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