इंटरसेक्शनलजेंडर पुरुषों के लिए बनाए गए सार्वजनिक स्थानों में भेदभाव और सुरक्षा की कमी

पुरुषों के लिए बनाए गए सार्वजनिक स्थानों में भेदभाव और सुरक्षा की कमी

कोई शहर लोगों को सोशल मोबिलिटी के कई मौके देते हैं। इसलिए, उन्हें रहने वालों को इज्ज़त और सुरक्षा के साथ जीने, घूमने-फिरने और काम करने का अधिकार देना चाहिए। लेकिन बहुत कम भारतीय शहर इस तरह से डिज़ाइन किए गए हैं, खासकर महिलाओं के लिए।

सार्वजनिक स्थान सभी के लिए समान रूप से सुरक्षित और सुलभ होने चाहिए, लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। सड़कें, पार्क, बस स्टॉप और अन्य सार्वजनिक जगहें अक्सर एक ही तरह के लोगों मूल रूप से युवा, सक्षम सिसजेंडर पुरुषों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। महिलाओं, विकलांग व्यक्तियों, बुज़ुर्गों, क्वीयर समुदाय और हाशिए पर मौजूद अन्य लोगों के लिए ये जगहें कई बाधाएं और असुरक्षाएं पैदा करती हैं। द हिन्दू की रिपोर्ट अनुसार सरकारी डेटा बताती है कि एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन के तहत केवल 48.5 फीसद सरकारी इमारतें और लगभग 8 फीसद पब्लिक बसें ही विकलांग लोगों के लिए पूरी तरह सुलभ हैं। यह दिखाता है कि इंटरसेक्शनल दृष्टि से सार्वजनिक स्थानों का डिजाइन करना सिर्फ़ जरूरी नहीं, बल्कि सभी का बुनियादी अधिकार है।

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) की एक रिपोर्ट अनुसार, कोई शहर लोगों को सोशल मोबिलिटी के कई मौके देते हैं। इसलिए, उन्हें रहने वालों को इज्ज़त और सुरक्षा के साथ जीने, घूमने-फिरने और काम करने का अधिकार देना चाहिए। लेकिन बहुत कम भारतीय शहर इस तरह से डिज़ाइन किए गए हैं, खासकर महिलाओं के लिए। शहरी जगहें महिलाओं और खासकर बाहर से आए महिलाओं या नॉन बाइनरी लोगों को गुमनामी देती हैं, जिससे वे परिवार और समाज के पितृसत्तात्मक सोच से बच पाती हैं। रिपोर्ट बताती है कि हालांकि टेक्निकली, इससे उन्हें ज़्यादा आज़ादी मिलती है, लेकिन लैंगिक हिंसा के अनुभव की वजह से शहरी जगहों से जुड़ने की उनकी काबिलियत बहुत कम हो जाती है।

शहरी जगहें महिलाओं और खासकर बाहर से आए महिलाओं या नॉन बाइनरी लोगों को गुमनामी देती हैं, जिससे वे परिवार और समाज के पितृसत्तात्मक सोच से बच पाती हैं। रिपोर्ट बताती है कि हालांकि टेक्निकली, इससे उन्हें ज़्यादा आज़ादी मिलती है, लेकिन लैंगिक हिंसा के अनुभव की वजह से शहरी जगहों से जुड़ने की उनकी काबिलियत बहुत कम हो जाती है।

सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षा और अधिकार

शहरों और सार्वजनिक स्थानों में हर व्यक्ति का अनुभव उसकी जाति, उम्र, जेंडर, धर्म, यौनिकता, आर्थिक स्थिति और शारीरिक क्षमताओं से प्रभावित होता है। लेकिन इन जगहों के डिज़ाइन में अक्सर विविध जरूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता। नतीजा यह होता है कि महिलाएं और हाशिये पर रहने वाले समुदाय खुद को असुरक्षित और बाहर महसूस करते हैं। यह सवाल अब भी बाकी है कि क्या हमारे सार्वजनिक स्थान सच में सभी नागरिकों के लिए समान और सुरक्षित हैं, या वे अब भी पुरुष-प्रधान सोच पर आधारित हैं, जो कई लोगों की मौजूदगी को नज़रअंदाज़ कर देती है। सार्वजनिक स्थानों को हमेशा सबके लिए खुले क्षेत्र के रूप में समझा जाता है, लेकिन असल में यह अधिकार हर एक इंसान के लिए एक जैसा नहीं होता है।

द गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट मुताबिक, भारत में लैंगिक हिंसा से निपटने के नाम पर संस्थाएं अक्सर ऐसा कदम उठाती हैं, जिससे महिलाएं और ज्यादा अलग-थलग हो जाती हैं। वे सुरक्षा का बहाना बनाकर महिलाओं को कुछ अलग और सुरक्षित जगहों में सीमित कर देते हैं, जिनमें मेट्रो में गुलाबी डिब्बे, गुलाबी ऑटो, गुलाबी बस टिकट, गुलाबी पार्क, गुलाबी शौचालय और अलग लाइनें जैसी जगहें शामिल हैं। यह महिलाओं को सार्वजनिक जगहों में एक प्राइवेट जगह जरूरी देते हैं, लेकिन यह अलगाव उन सार्वजनिक स्थानों को महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षित या आरामदायक नहीं बनाता है। असल में यह केवल इस विचार को मजबूत करता है कि सार्वजनिक क्षेत्र पुरुषों का है; जिसमें विशेष खांचेनुमा जगह उनके लिए है। गौरतलब है कि भारतीय कस्बों और शहरों में 50 फीसदी से ज़्यादा महिलाएं दिन में एक बार भी घर से बाहर नहीं निकलती हैं और शहरी भारत में केवल 48 फीसदी महिलाओं को ही अकेले घर से बाहर निकलने की अनुमति है।

द गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट मुताबिक, भारत में लैंगिक हिंसा से निपटने के नाम पर संस्थाएं अक्सर ऐसा कदम उठाती हैं, जिससे महिलाएं और ज्यादा अलग-थलग हो जाती हैं। वे सुरक्षा का बहाना बनाकर महिलाओं को कुछ अलग और सुरक्षित जगहों में सीमित कर देते हैं।

ईपीडब्ल्यू की एक रिपोर्ट मुताबिक, देश में लोकल ट्रेनों और बसों में महिलाओं के लिए अलग डिब्बे और सीटें आरक्षित होती हैं। लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि केवल अवसर की समानता असल में पहुंच की समानता नहीं होती है। हिंसा के डर से महिलाएं अमूमन ऐसे वाहनों में सफर करने से बचती हैं, जो बहुत ज़्यादा भरे हुए हों या बिलकुल खाली हों। अध्ययनों से पता चलता है कि कम आय वाली महिलाओं के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। उन्हें मजबूरी में भीड़भाड़ वाली बसों या ट्रेनों से ही सफर करना पड़ता है। अगर वे कम भीड़ वाले वाहन का इंतज़ार करें, तो उनका समय बर्बाद होता है और उनकी सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है। वहीं ज्यादा आय वाली महिलाएं निजी वाहनों जैसे कार, ऑटो या कैब का इ स्तेमाल कर लेती हैं, क्योंकि वे इसका खर्च उठा सकती हैं। इसलिए, उनकी सुरक्षा का स्तर भी आय के हिसाब से थोड़ा बेहतर हो सकता है। लेकिन हिंसा का सामना उन्हें भी करना पड़ता है।

 द वीक में प्रकाशित राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों पर आधारित रिपोर्ट अनुसार साल 2023 में महिलाओं के खिलाफ़ लगभग 4,48,211 अपराध के मामले दर्ज किए गए थे, जो कि पहले के मामलों से बहुत ज़्यादा हैं।यूएनएफपीए की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में, 11.8 मिलियन विकलांग महिलाओं और लड़कियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर सुलभ स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और परिवहन की कमी का सामना करना पड़ता  है। इसके साथ ही दुर्गम बुनियादी ढांचा और अप्रशिक्षित कर्मचारी विकलांग व्यक्तियों के लिए जोखिम को बढ़ा देते हैं, जिससे उनके पास सुरक्षित स्थान नहीं बचते। क्वीयर और ट्रांस समुदाय के लोगों को भी सार्वजनिक स्थान पर्याप्त सुरक्षा और सुविधा मुहैया नहीं कराते।  

यूएनएफपीए की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में, 11.8 मिलियन विकलांग महिलाओं और लड़कियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर सुलभ स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और परिवहन की कमी का सामना करना पड़ता  है।

सुरक्षा हमेशा यौन हिंसा भर ही नहीं है 

साइंस डायरेक्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में सार्वजनिक स्थान पर हर 51 मिनट में एक महिला को हिंसा का सामना करना पड़ता है। कुछ पुरुष अपनी यौन इच्छाओं की वजह से सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं को लगातार घूरते रहते हैं। यह महिलाओं के लिए असहज और भेदभावपूर्ण हो सकता है। इससे पुरुष अक्सर सार्वजनिक जगहों में अपने अधिकार और महिलाओं के शरीर पर नियंत्रण की पितृसत्तात्मक सोच को बनाए रखते हैं। यूनिफाइड ट्रैफिक एंड ट्रांसपोर्टेशन इंफ्रास्ट्रक्चर के एक अध्ययन से पता चलता है कि महिलाएं भीड़-भाड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर यौन हिंसा और सुनसान सार्वजनिक स्थानों पर बलात्कार जैसे यौन हिंसा के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। गौरतलब है कि टैक्सी स्टैंड, गैरेज, ट्रक पार्किंग, कार पार्किंग, सबवे आदि पुरुष-प्रधान जगहें असुरक्षित मानी जाती हैं। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने अगस्त 2025 को दिल्ली में महिला सुरक्षा पर राष्ट्रीय वार्षिक रिपोर्ट और सूचकांक जारी किया। इसमें 31 शहरों की 12,770 से अधिक महिलाओं के अनुभव और उनकी आवाज़ों को शामिल किया गया है। गौरतलब है कि 38 फीसदी उत्तरदाताओं ने आस-पड़ोस को ही सबसे ज़्यादा परेशान करने वाला स्थान बताया, जबकि 29 फीसदी ने सार्वजनिक परिवहन को असुरक्षित बताया।  

 इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है। सुरक्षा की चर्चा में हम अमूमन सिर्फ यौन हिंसा पर ही चर्चाएं करते हैं। लेकिन सुरक्षा का मतलब इससे कहीं ज्यादा व्यापक है। यह कई स्तरों पर महिलाओं, ट्रांस व्यक्तियों और विकलांग व्यक्तियों के अनुभव से जुड़ी होती है। बहुत सी महिलाएं और ट्रांस व्यक्ति सार्वजनिक जगहों पर अपराध या हिंसा की स्थिति में पुलिस या कानूनी प्रणाली पर भरोसा नहीं करती। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक कानून और पुलिस अक्सर क्वीयर लोगों की मदद नहीं करतीं। यहां तक कि कभी-कभी वे निष्क्रिय रहती हैं या दुर्व्यवहार करती हैं। इसके कारण लोग हिंसा की शिकायत करने से डरते हैं। पुलिस और कानून पर भरोसा न होने की वजह से उन्हें न्याय नहीं मिलता और हिंसा और भेदभाव का चक्र लगातार चलता रहता है। इससे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि हिंसा के कई आयाम हैं। 

हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक कानून और पुलिस अक्सर क्वीयर लोगों की मदद नहीं करतीं। यहां तक कि कभी-कभी वे निष्क्रिय रहती हैं या दुर्व्यवहार करती हैं। इसके कारण लोग हिंसा की शिकायत करने से डरते हैं।

परिवहन और निति निर्माण में मोबलिटी का न होना

साइंस डायरेक्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सस्ती और सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन की कमी महिलाओं के लिए एक बड़ी समस्या बन जाती है। जब बसें या अन्य साधन महंगे हों या सुरक्षित न लगें, तो महिलाएं अपनी यात्रा टाल देती हैं। सुरक्षित परिवहन की कमी विकासशील देशों में महिलाओं के नौकरी करने की सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। जब महिलाओं को सुरक्षित तरीके से यात्रा करने की सुविधा नहीं मिलती है, तो उनके कामकाज़ी बनने की संभावना लगभग 15.5 फीसदी तक कम हो जाती है। द न्यूज़ मिनट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने 46 शहरों में आयोजित ट्रांसपोर्ट फॉर ऑल चैलेंज  के डेटा का जेंडर के आधार पर विश्लेषण किया। इस सर्वे में लगभग 2,00,000 से ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया, जिनमें से 78,000 महिलाएं थीं। इन महिला यात्रियों में से  30 फीसदी महिलाओं ने हिंसा या चोरी का अनुभव होने की बात कही, जबकि 41 फीसदी  ने कहा कि भीड़ भाड़ के कारण उनकी यात्रा असुविधाजनक और असुरक्षित हो गई है। इसके अलावा, 32 फीसदी ने लंबी प्रतीक्षा और यात्रा के समय का हवाला दिया, जिससे अक्सर चिंता और असुरक्षित यात्रा की स्थिति पैदा होती है। 

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में सार्वजनिक परिवहन सेवाओं को महिलाओं की सुरक्षा और उनकी यात्रा से जुडी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर डिज़ाइन नहीं किया जाता है। परिवहन योजना आम तौर पर औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत पुरुषों की जरूरतों को पूरा करती है, यह महिलाओं के एक बड़े हिस्से की यात्रा पैटर्न और जरूरतों को पूरा नहीं करता है।  इससे काम, शिक्षा और जीवन के विकल्पों तक उनकी पहुंच गंभीर रूप से सीमित हो जाती है। हालांकि विश्व बैंक का नया टूलकिट, जो खास तौर पर भारतीय शहरों के लिए डिज़ाइन किया गया है, इसमें नई और मौजूदा परिवहन नीतियों और योजनाओं में लैंगिक दृष्टिकोण को शामिल करने की सिफ़ारिश करता है। लेकिन फिर भी निति निर्माण में महिलाओं की भूमिका न के बराबर बनी हुई है।  

सुधार के लिए क्या हो सकते हैं उपाए

अगर हमें सार्वजनिक जगहों को समावेशी बनाना है और विभिन्न लोगों की जरूरतों के अनुसार अपने शहरों को बनाना है, तो हमें विकलांग व्यक्तियों, महिलाओं और ट्रांस और क्वीयर समुदाय के लोगों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करना होगा। उन्हें नेतृत्व कौशल से सशक्त बनाना और उनकी आवाज़ को बुलंद करना प्रणालीगत बदलाव लाने में मदद करेगा। इसके अलावा विभिन्न सार्वजनिक सेवा केंद्र जैसे स्वास्थ्य सुविधाएं, पुलिस स्टेशन, अदालतें, आश्रय स्थल और हेल्पलाइन या यहां तक कि डिजिटल दुनिया जैसे सभी जगहों को सुलभ बनाने होंगे। सार्वजनिक स्थानों में बुनियादी जरूरतें जैसे पर्याप्त स्ट्रीट लाइट और सीसीटीवी कैमरों की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। सार्वजनिक जगहों का निर्माण इस तरीके से किया जाना चाहिए कि वहां हर एक इंसान बिना किसी भेदभाव या कमी महसूस करे सुरक्षित रहे।  

सार्वजनिक स्थान किसी भी समाज को जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जब इन स्थानों का निर्माण महज पुरुष की जरूरतों को ध्यान में रखकर किया जाता है, तो महिलाएं, विकलांग, क्वीयर या ट्रांस समुदाय और हाशिए पर रहने वाले सभी लोग अनदेखे, असुरक्षित और अलग-थलग रह जाते हैं। इंटरसेक्शनैलिटी अपनाना सिर्फ डिज़ाइन बदलने का सवाल नहीं है, बल्कि यह स्वीकार करने की प्रक्रिया है कि हर व्यक्ति के जरूरतें, अनुभव और चुनौतियां अलग हैं। ऐसे में सुलभ बुनियादी ढांचा, सुरक्षित परिवहन, प्रतिनिधित्व और न्याय व्यवस्था में भरोसा ये सब मिलकर ही असल में सुरक्षित सार्वजनिक स्थान बनाते हैं। समाज में समावेशिता तभी आ सकती है, जब हर एक इंसान अपनी पहचान के साथ सहज रूप से बिना डरे सार्वजनिक जगहों में घूम सके। 

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