फ़िल्म ‘द गर्ल फ्रेंड’ शुरुआत में सामान्य प्रेम कहानी लग सकती है, लेकिन धीरे‑धीरे यह पितृसत्तात्मक समाज में प्रेम और नियंत्रण के असली यथार्थ को सामने लाती है। इसे देखकर दर्शक इससे जुड़ाव महसूस कर पाएंगे, क्योंकि यह प्रेम के नाम पर होने वाले नियंत्रण और असमानता जैसे ज़रूरी विमर्श को केंद्र में रखती है। आमतौर पर कमर्शियल फिल्मों में इस तरह के ज़रूरी सामाजिक और लैंगिक न्याय के मुद्दे गायब रहते हैं।
एक समानता और न्याय का समाज तब बनता है, जब वहां के नागरिकों के लिए बराबरी की दुनिया का स्वप्न देखा जाता है। द गर्लफ्रैंड जैसी फिल्में उसी सपने की एक परिकल्पना हैं, जहां समाज के ढांचे को बदलने की ज़रूरत को दिखाया गया है। क्योंकि किसी भी नियंत्रित करने वाले वातावरण में प्रेम की स्वाभाविकता खत्म हो जाती है। फ़िल्म में यह बख़ूबी दिखाया गया है कि शुरुआत में नियंत्रित करने वाला प्रेम आकर्षक लगता है। लेकिन आगे चलकर यह एक लड़की के लिए एक कैद और घुटन में बदल जाता है।
द गर्लफ्रैंड जैसी फिल्में उसी सपने की एक परिकल्पना हैं, जहां समाज के ढांचे को बदलने की ज़रूरत को दिखाया गया है। क्योंकि किसी भी नियंत्रित करने वाले वातावरण में प्रेम की स्वाभाविकता खत्म हो जाती है।
पिता और प्रेमी के नियंत्रण के बीच संघर्ष
फिल्म की नायिका भूमा अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर्स करने और लेखिका बनने का सपना लेकर यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेती है, वहां उसकी मुलाकात विक्रम से होती है। वह एक ‘ऑलराउंडर’ और आकर्षक युवक है, जिसके भीतर पितृसत्तात्मक मानसिकता गहराई से भरी हुई है। युवावस्था में महिला और पुरुष के बीच आकर्षण स्वाभाविक होता है, और इसी स्वाभाविकता के बीच उन दोनों के बीच प्रेम पनपता है। लेकिन वह दोनों प्रेम को बिल्कुल अलग-अलग नज़रिए से देखते और जीते हैं। पहली ही मुलाक़ात में भूमा की सहमी हुई आंखों में विक्रम को अपनी माँ की छाया दिखाई देती है। वह उसे हासिल करके अपनी माँ की तरह ही घर में रखना चाहता है। वहीं दूसरी तरफ फिल्म की नायिका, जिसे उसकी माँ का प्यार नहीं मिला और हमेशा पिता के नियंत्रण में रहना पड़ा। वह अपना खयाल रखने के साथ – साथ पिता का भी ख्याल रखते हुए बड़ी हुई है।
वह घर में पिता के प्रेम में नियंत्रित रहती है और कॉलेज में प्रेमी भी उसी मानसिकता का मिलता है, जिसके चलते वह पितृसत्तात्मक जीवन शैली से निकल ही नहीं पाती है। वह होस्टल में विक्रम के कमरे में जाकर रोज़ उसका कमरा ठीक करती है। उसकी चीजें व्यवस्थित करने के साथ कमरे में रोज झाड़ू भी लगाती है। फ़िल्म के ये दृश्य इतने स्वाभाविक लगते हैं कि लगता ही नहीं कि ये दृश्य हम फ़िल्म में देख रहे हैं। क्योंकि ध्यान से देखें तो हमारे आसपास ऐसे दृश्य हर रोज़ देखने को मिल जाते हैं। फ़िल्म में जब वह विक्रम के साथ रहने लगती है, तो उसके जीवन के लगभग सभी निर्णय वही लेने लगता है। वह कहां जाएगी, कहां नहीं जाएगी, क्या करेगी और क्या नहीं करेगी। यही पैटर्न उसके मायके में भी रहा है, जहां उसके जीवन के सारे फैसले उसके पिता तय करते थे।
फ़िल्म में जब वह विक्रम के साथ रहने लगती है, तो उसके जीवन के लगभग सभी निर्णय वही लेने लगता है। वह कहां जाएगी, कहां नहीं जाएगी, क्या करेगी और क्या नहीं करेगी। यही पैटर्न उसके मायके में भी रहा है, जहां उसके जीवन के सारे फैसले उसके पिता तय करते थे।
एक महिला का पितृसत्तात्मक संघर्ष
निर्देशक राहुल रविंद्रन ने फ़िल्म में फ़िल्माए हुए दृश्यों के माध्यम से पितृसत्तात्मक परिवेश में पले -बड़े लड़के और लड़की के बीच संबंधों और भावों की रेखाओं को बहुत बारीकी से पकड़ा है। कहीं-कहीं फ़िल्म धीमी गति से चलती है, लेकिन दृश्य खत्म होते – होते कोई बड़ी बात जरूर कह देती है। इस तरह फ़िल्म अपने मुद्दों को बेहतरीन प्रतीकों और रूपकों में जाहिर कर पाती है। इसका वो दृश्य बेहद प्रभावी है, जिसमें भूमा विक्रम की मां से मिलती है। उस दृश्य में दोनों के बीच में कोई संवाद नहीं होता है। लेकिन जब कैमरा बारी -बारी से दोनों के चेहरे को ब्लर करता है, तो ऐसे लगता है जैसे स्त्री जीवन की सदियों की पीड़ा को कह रहा हो। विक्रम की सहमी हुई माँ, जो भूमा से भी संवाद नहीं कर पाती है, पितृसत्तात्मक दमन का एक करुण प्रतीक है। उसकी डरी हुई आंखों में अनगिनत घरों की महिलाओं की पीड़ा और चुप्पी झलकती है।
इस फ़िल्म पर चर्चा और बहस होना ज़रूरी है, क्योंकि ये आज के दौर की महिलाओं से जुड़ा सवाल है। एक महिला को सहज रूप में पढ़ाई और जीवनसाथी चुनने के साथ दोस्ती करने ,घूमने से लेकर नौकरी करने तक के फैसले लेने के पक्ष में यह, फ़िल्म बहुत सशक्त तरीके से बात करती है। किस तरह पितृसत्तात्मक परिवेश में ढला हुआ पुरुष महिला की आज़ादी के तमाम आयामों पर नियंत्रण करना चाहता है। यहां तक कि उसको खुद का फैसला लेने से रोकने के दबावपूर्ण तर्क और इमोशनल ब्लैकमेलिंग के प्रचलित तौर तरीकों के माध्यम से रोकने की कोशिश करता है।
निर्देशक राहुल रविंद्रन ने फ़िल्म में फ़िल्माए हुए दृश्यों के माध्यम से पितृसत्तात्मक परिवेश में पले -बड़े लड़के और लड़की के बीच संबंधों और भावों की रेखाओं को बहुत बारीकी से पकड़ा है। कहीं-कहीं फ़िल्म धीमी गति से चलती है, लेकिन दृश्य खत्म होते – होते कोई बड़ी बात जरूर कह देती है।
प्यार के नाम पर शोषण की राजनीति
फ़िल्म में क्लाइमेक्स के दृश्य बहुत कम हैं। उन्हें जल्द ही खत्म कर दिया गया है। यह बड़ी खामी है। निर्देशक को फ़िल्म के उन दृश्यों और संवादों पर और ठहरना चाहिए था। लेकिन फिर भी फ़िल्म अपनी बात कह ही लेती है। यह फ़िल्म पितृसत्ता के सारे आयामों को बहुत मजबूती से चिन्हित करती है। सॉरी बोलने के लिए लड़के का लड़की के पैरों पर गिर जाना, लड़की के दिमाग में यह बात बैठाना कि तुम्हें दोस्तों की ज़रूरत क्यों है? अब मैं ही तुम्हारा सब कुछ हूं। मैं तुम्हें खुश रखूंगा, तुम्हारा ध्यान रखूंगा। इस तरह वह लड़की के पूरे व्यक्तित्व को ही नियंत्रण में रख रहा होता है।अपने तमाम शोषण को रोमांटिसाइज करते हुए, तारीफ़ में माँ से तुलना करना। तुम मेरी माँ जैसी हो, मेरा माँ जैसा ख्याल रखती हो।
हद तब हो जाती है जब अपनी माँ की हमेशा चुप रहने वाली आदत को देवी से तुलना करना और ये कहना कि आजकल की लड़कियां ऐसी कहां होती हैं? मेरी माँ तो बाबा के सामने कभी मुंह नहीं खोलती थी, नहीं तो बाबा का बेल्ट ही बात करता था। यहां फ़िल्म पितृसत्ता के सबसे भयानक पहलू को खोल कर रख देती है। फ़िल्म में विक्रम के एक महिला के साथ अमानवीय व्यवहार को जिस तरह से ग्लैमराइज किया गया है । यह समाज में ये उसी रूढ़िवादी सोच की देन है, जहां ये अमानुषिक प्रवित्तियां सींची जाती हैं। जहां पुरुष को मनुष्य नहीं देवता और महिला को दासी माना जाता है।
जब अपनी माँ की हमेशा चुप रहने वाली आदत को देवी से तुलना करना और ये कहना कि आजकल की लड़कियां ऐसी कहां होती हैं? मेरी माँ तो बाबा के सामने कभी मुंह नहीं खोलती थी, नहीं तो बाबा का बेल्ट ही बात करता था। यहां फ़िल्म पितृसत्ता के सबसे भयानक पहलू को खोल कर रख देती है।
टॉक्सिक रिश्तों से सशक्तिकरण तक का सफर
इस फ़िल्म में भूमा के रूप में रश्मिका मंदाना ने सामान्य भारतीय परिवारों से यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई लड़की का अभिनय बहुत संजीदगी से निभाया है। वहीं विक्रम शेट्टी ने भी अपना रोल बखूबी निभाया है। नियंत्रण भाव वाले पुरुष को विक्रम शेट्टी ने कमाल का जिया है। कॉलेज के मेस में जब दोनों खाना खाने जाते हैं। तो वह रोज उसकी थाली परोस कर लाती है और वो बेफिक्री से दोस्तों के साथ बैठा बातें करता रहता है। वह उसे अपने हाथ से खाना खिलाती रहती है। ये सारे दृश्य फ़िल्म के उद्देश्य को बखूबी कहते हैं। कॉलेज कैम्पस में वह हमेशा विक्रम के साथ रहती है। लेकिन जब वह खेल में डूबा रहता है, तो उसको कोई अहमियत नहीं देता है । ये सारी पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियां हैं। पूरी फिल्म ही समाज में महिला -पुरुष के संबंधों पर केंद्रित है।
फ़िल्म अपने क्लाइमेक्स में पहुंचकर पूरे प्रभाव के साथ सामने आती है, जहां भूमा एक सशक्त महिला के रूप में उभरती है और इस टॉक्सिक रिश्ते से बाहर निकलने का साहस करती है। इस संबंध से अपनी मुक्ति की बात वह जिस साहस के साथ फेयरवेल पार्टी में जाहिर करती है। वह दर्शकों को अपनी ओर बहुत ज़्यादा आकर्षित करती है। हालांकि असल में इस तरह बहुत कम लड़कियां नियंत्रण वादी सम्बन्धों से निकल पाती हैं, क्योंकि सामाजिक ढांचा ऐसे सम्बन्धों से गुथा हुआ है, जहां समाज की मर्दवादी सोच का परिणाम अक्सर लड़की के हिस्से आता है और फ़िल्म में तो नायिका इससे निकल ही जाती है। पर असल जीवन में लड़कियां कहां ऐसे रिश्तों से निकल पाती हैं। फ़िल्म के उस दृश्य में जब वह कहती है, मैं एक दिन ऐसा लड़का चुनकर दिखाउंगी जिसे मैं खुद अपने बीते हुए संबंधों के बारे में बता सकूं। हालांकि फ़िल्म में दिखाया जाता है कि आखिर में वह किसी और लड़के से शादी नहीं करती बल्कि आत्मनिर्भर बनती है। दुनिया घूमती है और अपने पिता का ख्याल रखती है।
यह फ़िल्म दिखाती है कि पितृसत्तात्मक और टॉक्सिक रिश्ते कैसे एक लड़की की आज़ादी और आत्मसम्मान पर असर डालते हैं। फ़िल्म में भूमा अपने सपनों और अधिकारों के लिए संघर्ष करती है, जबकि विक्रम का किरदार पितृसत्ता और नियंत्रण का प्रतीक है। शुरुआत में प्रेम आकर्षक लगता है, लेकिन धीरे‑धीरे यह घुटन और नियंत्रण में बदल जाता है। फ़िल्म का मुख्य संदेश है कि सच्चा प्रेम केवल बराबरी और सम्मान पर आधारित हो सकता है, और किसी भी असमान या नियंत्रित रिश्ते से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है। यह फ़िल्म महिलाओं की आज़ादी और आत्मनिर्भरता की अहमियत को साफ तौर पर सामने लाती है।

