न्याय व्यवस्था किसी भी लोकतांत्रिक देश की रीढ़ होती है। जब अदालतें समाज के हाशिये पर खड़े लोगों के पक्ष में फैसले देती हैं, तो वे केवल कानूनी राहत नहीं देतीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की दिशा भी तय करती हैं। साल 2025 भारतीय न्यायपालिका के लिए ऐसा ही एक अहम वर्ष रहा। इस दौरान अदालतों ने महिलाओं, ट्रांसजेंडर समुदाय और आदिवासी महिलाओं के अधिकारों को मज़बूत करने वाले कई महत्वपूर्ण फैसले सुनाए। ये फैसले सिर्फ़ काग़ज़ों तक सीमित नहीं हैं। इनमें उन लोगों की ज़िंदगी बदलने की क्षमता है, जो लंबे समय से सम्मान, समानता और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
1-स्तनपान के अधिकार को सुनिश्चित करना राज्य की ज़िम्मेदारी
2025 की शुरुआत में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक स्थानों पर ब्रेसटफीडिंग को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार बताया। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने ‘मातृ स्पर्श बनाम भारत संघ’ मामले में कहा कि ब्रेसटफीडिंग मातृत्व का स्वाभाविक और आवश्यक हिस्सा है। इसे शर्म या सामाजिक कलंक से जोड़ना अनुचित है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार में माँ का यह अधिकार शामिल है कि वह बिना किसी डर या संकोच के अपने बच्चे को ब्रेसटफीड करा सके। अदालत ने राज्य को निर्देश दिया कि सभी सार्वजनिक स्थानों पर ब्रेसटफीड कक्ष की व्यवस्था की जाए। कार्यस्थलों पर फीडिंग रूम बनाए जाएं। मॉल, रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डों पर भी यह सुविधा उपलब्ध कराई जाए।
2-तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का अधिकार
2 दिसंबर 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक अहम फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं विवाह के समय दी गई संपत्ति को वापस पाने की हकदार हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इसमें माता-पिता द्वारा दिए गए स्वर्ण आभूषण, नकद धनराशि, उपहार और विवाह के दौरान मिली सभी मूल्यवान वस्तुएं शामिल हैं। मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि पति द्वारा इन वस्तुओं को अपने पास रखना अनुचित है। यह फैसला मुस्लिम महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। तलाक के बाद कई महिलाएं आर्थिक असुरक्षा का सामना करती हैं। यह निर्णय उन्हें अपने परिवार द्वारा दी गई संपत्ति को कानूनी रूप से वापस पाने का अधिकार देता है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यह अधिकार केवल मेहर तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी उपहारों और संपत्ति पर लागू होता है।
3-ट्रांसजेंडर लोगों के लिए समावेशी और सुरक्षित कामकाजी वातावरण
17 अक्टूबर 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को लेकर एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने सभी नियोक्ताओं को ट्रांसजेंडर कर्मचारियों के लिए समावेशी और सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। न्यायालय ने आदेश दिया कि नौकरी के आवेदन पत्रों में पुरुष और महिला के साथ ‘अन्य’ जेंडर विकल्प देना अनिवार्य होगा। ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को अपनी लिंग पहचान के अनुरूप वर्दी चुनने की पूरी स्वतंत्रता होगी। इसके साथ ही, जेंडर पुष्टि से जुड़ी चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए विशेष चिकित्सा अवकाश की व्यवस्था करना भी आवश्यक होगा।
अदालत ने सभी कार्यस्थलों पर लिंग-तटस्थ शौचालयों की अनिवार्य व्यवस्था और भेदभाव के खिलाफ प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने पर भी ज़ोर दिया। न्यायालय ने कहा कि रोजगार में भेदभाव ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के गरिमापूर्ण जीवन और समानता के अधिकार का उल्लंघन है। यह फैसला ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए केवल कानूनी सुरक्षा नहीं देता, बल्कि सामाजिक स्वीकृति और सम्मान की दिशा में भी एक मजबूत संदेश देता है। यह निर्णय कार्यस्थलों को अधिक समावेशी, संवेदनशील और समान बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
4- ट्रांसजेंडर महिलाओं को पूर्ण कानूनी मान्यता
16 जून 2025 को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति वेंकट ज्योतिर्मय प्रताप ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा कि ट्रांसजेंडर महिला का मतलब महिला ही है। यह भारत का पहला न्यायिक निर्णय है, जिसमें ट्रांसजेंडर महिलाओं को भारतीय कानून के तहत पूरी तरह से ‘महिला’ के रूप में मान्यता दी गई है। न्यायालय ने साफ़ किया कि किसी व्यक्ति की महिला पहचान को उसकी जैविक प्रजनन क्षमता से नहीं जोड़ा जा सकता। अपने निर्णय में न्यायमूर्ति ने लिखा कि महिलाओं को केवल संतान उत्पन्न करने की क्षमता के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता।
ट्रांसजेंडर महिलाएं भी उतनी ही महिला हैं, जितनी वे महिलाएं जिन्हें जन्म से महिला के रूप में पहचाना गया है। निर्णय के अनुसार, ट्रांसजेंडर महिलाओं को धारा 498ए सहित सभी महिला-सुरक्षा कानूनों का संरक्षण मिलेगा। वे महिला-केंद्रित सरकारी कल्याणकारी योजनाओं की भी समान रूप से पात्र होंगी। यह फैसला ट्रांसजेंडर महिलाओं के लिए कानूनी सुरक्षा और सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
5-आदिवासी महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबर का हक
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2025 में राम चरण बनाम सुखराम मामले में आदिवासी महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति ज्योमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि आदिवासी समुदायों में भी महिलाओं को पैतृक संपत्ति में पुरुषों के समान अधिकार मिलना चाहिए। यह फैसला इसलिए अहम है क्योंकि हिंदू उत्तराधिकार कानून अनुसूचित जनजातियों पर स्वतः लागू नहीं होता। आदिवासी समाजों में संपत्ति से जुड़े मामलों का निपटारा अक्सर पारंपरिक रीति-रिवाजों के आधार पर किया जाता रहा है, जहां महिलाओं को लंबे समय तक विरासत के अधिकार से वंचित रखा गया।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि किसी आदिवासी समुदाय में विरासत से संबंधित कोई स्पष्ट कानून मौजूद नहीं है, तो संविधान के न्याय, समानता और सद्भावना के सिद्धांत लागू होंगे। अनुच्छेद 14 और 15 का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से बाहर रखना असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है। यह फैसला आदिवासी महिलाओं के आर्थिक अधिकार और सामाजिक समानता की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।
6- बार काउंसिलों में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण अनिवार्य
वर्ष 2025 में सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनी पेशे में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति ज्योमाल्या बागची की पीठ ने योगमाया एम.जी. बनाम भारत संघ मामले में बार काउंसिल ऑफ इंडिया को निर्देश दिया कि राज्य बार काउंसिलों के चुनावों में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण अनिवार्य रूप से लागू किया जाए। अदालत ने कहा कि यदि चुनाव में पर्याप्त महिला उम्मीदवार उपलब्ध नहीं होती हैं, तो सह-चयन के माध्यम से यह संख्या पूरी की जानी चाहिए।
न्यायालय ने साफ किया कि यह आरक्षण बिना किसी अपवाद के लागू होगा और इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी बार काउंसिल ऑफ इंडिया की होगी। अदालत ने टिप्पणी की कि बार काउंसिलें अब केवल ‘पुरुषों का क्लब’ नहीं रह सकतीं। महिला वकीलों को कानूनी प्रशासन और नीति-निर्माण में बराबर प्रतिनिधित्व का अधिकार है। यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बार काउंसिलें कानूनी शिक्षा, पेशेवर आचरण और नीतिगत फैसलों में अहम भूमिका निभाती हैं। महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से कानूनी पेशा अधिक समावेशी बनेगा और महिला वकीलों की चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा।
7- मातृत्व अवकाश पर दो-बच्चे की सीमा लागू नहीं
साल 2025 में सर्वोच्च न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं के मातृत्व अधिकारों को मज़बूत करते हुए एक अहम फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने के. उमादेवी बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य मामले में कहा कि तीसरे बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश से इनकार नहीं किया जा सकता। के. उमादेवी तमिलनाडु सरकार में स्कूल शिक्षिका हैं। उनकी पहली शादी से दो बच्चे थे, जिनकी कस्टडी तलाक के बाद पति को मिली। दूसरी शादी के बाद वर्ष 2021 में उनका तीसरा बच्चा हुआ। इसके बाद राज्य सरकार ने दो-बच्चे नीति का हवाला देते हुए उनका छह महीने का मातृत्व अवकाश अस्वीकार कर दिया। निचली अदालतों से राहत न मिलने के बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मातृत्व लाभ संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रजनन स्वतंत्रता और मातृत्व गरिमा का हिस्सा है। अदालत ने कहा कि दो-बच्चे नीति और मातृत्व अवकाश को टकराव के रूप में नहीं, बल्कि संतुलन के साथ देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने उमादेवी को पूरा मातृत्व अवकाश, वेतन और सभी लाभ दो महीने के भीतर देने का आदेश दिया। साथ ही राज्य सरकारों को ऐसी नीतियों की समीक्षा और संशोधन करने के निर्देश भी दिए। यह फैसला कामकाजी महिलाओं, विशेषकर तलाकशुदा या पुनर्विवाहित महिलाओं के लिए आर्थिक, शारीरिक और मानसिक सुरक्षा को मज़बूत करता है और लाखों महिलाओं के मातृत्व अधिकारों को संरक्षण देता है।
8- स्त्री-द्वेषी गालियां अपराध है
दिल्ली की द्वारका कोर्ट ने कहा कि जेंडर आधारित अपशब्द आईपीसी की धारा 509 के तहत अपराध है। अदालत ने माना कि ऐसी गालियां महिला की गरिमा, निजता और यौन सम्मान पर सीधा हमला हैं। मौखिक और मानसिक यौन हिंसा से सुरक्षा देना कानून का उद्देश्य है।
9-कार्यस्थल पर बाहरी व्यक्ति की यौन हिंसा: आईसीसी में शिकायत का अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि यौन हिंसा के मामलों में कामकाजी क्षेत्र का बाहरी व्यक्ति शामिल हो, तब भी सर्वाइवर अपनी संस्था की आईसीसी में शिकायत कर सकती है। कोर्ट ने कहा कि POSH अधिनियम त्वरित और सुलभ न्याय सुनिश्चित करता है और ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा व्यापक है।
10- विधवा को ससुर की पैतृक संपत्ति से भरण-पोषण का अधिकार
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि पति और ससुर की मृत्यु के बाद विधवा महिला ससुर की पैतृक संपत्ति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है। यह फैसला विधवा महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को मज़बूत करता है।

