भारतीय संविधान में समता और समान अवसरों की अवधारणा को केंद्र में रखा गया है, लेकिन ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों के लिए यह अधिकार अब भी अधूरा बना हुआ है। साल 2024 में रक्षिका राज बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार के उस सरकारी आदेश को खारिज कर दिया था, जिसमें तमिलनाडु राज्य में ट्रांसजेंडर समुदाय को सबसे पिछड़ा वर्ग श्रेणी के तहत 1 फीसद वर्टिकल आरक्षण प्रदान किया था, जोकि सिर्फ जाति के आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण था। उच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों के लिए इस प्रकार के वर्टिकल आरक्षण को रद्द कर दिया था और यह साफ तौर पर बताया कि ट्रांसजेंडर समुदाय की पहचान एक जाति नहीं, बल्कि एक सामाजिक लैंगिक पहचान है।
उच्च न्यायालय ने कर्नाटक में इसी तरह की प्रचलित प्रथा का विरोध करते हुए ट्रांस समुदाय को समान 1फीसद क्षैतिज आरक्षण की अनुमति दी, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू हो गई कि क्या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को केवल सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर ओबीसी आरक्षण मिलना चाहिए या उन्हें अलग पहचान के आधार पर क्षैतिज आरक्षण दिया जाना चाहिए। मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में ट्रांसजेंडर समुदाय के हित में संतुलित और न्यायोचित फैसला सुनाते हुए नालसा के फैसले की व्यावहारिक व्याख्या की है, साथ ही क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर आरक्षण के बीच अंतर को मान्यता दी है।
उच्च न्यायालय ने कर्नाटक में इसी तरह की प्रचलित प्रथा का विरोध करते हुए ट्रांस समुदाय को समान 1फीसद क्षैतिज आरक्षण की अनुमति दी, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू हो गई कि क्या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को केवल सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर ओबीसी आरक्षण मिलना चाहिए या उन्हें अलग पहचान के आधार पर क्षैतिज आरक्षण दिया जाना चाहिए।
भारतीय संविधान के तहत आरक्षण

भारत के संविधान में सभी लोगों को बराबरी का अधिकार दिया गया है। संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 14 से 16 के तहत यह तय किया गया है कि सभी नागरिकों को समान अवसर मिलेंगे, खासकर शिक्षा और सरकारी नौकरियों में । आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि जो लोग समाज में बहुत पीछे रह गए हैं या जिनके साथ ऐतिहासिक रूप से भेदभाव हुआ है, उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिल सके। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को जो आरक्षण दिया जाता है, वह पीढ़ियों से चले आ रहे जाति आधारित भेदभाव को ध्यान में रखकर दिया जाता है। ओबीसी को जो आरक्षण मिलता है वह सिर्फ जाति के आधार पर नहीं बल्कि उनके सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन और कम प्रतिनिधित्व के आधार पर दिया जाता है।
साल 1992 में इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार के एक ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के लिए 27 फीसद आरक्षण को सही ठहराया था। इसके बाद संविधान में 93वां संशोधन करके यह सुनिश्चित किया गया कि पिछड़े वर्गों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण दिया जा सके। इसका लाभ उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक नालसा बनाम भारत संघ मामले में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के दायरे का विस्तार करते हुए कहा कि ट्रांसजेंडर समुदाय कानूनी रूप से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का लाभ पाने के हकदार और पात्र हैं। यह भी साफ किया गया कि पिछड़े वर्ग का मतलब केवल जाति नहीं है, बल्कि कोई भी समुदाय जो समाज में पीछे है या जिनका प्रतिनिधित्व कम है, उन्हें आरक्षण का हक मिल सकता है।
आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि जो लोग समाज में बहुत पीछे रह गए हैं या जिनके साथ ऐतिहासिक रूप से भेदभाव हुआ है, उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिल सके।
भारत में ट्रांसजेंडर आरक्षण की वर्तमान स्थिति
साल 2014 में नालसा नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। इसमें उन्होंने मांग की कि समाज में पुरुष और महिला के अलावा जो लोग खुद को अन्य लिंग के रूप में पहचानते हैं, उन्हें भी कानूनी मान्यता दी जाए।सुप्रीम कोर्ट ने इस पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि हर व्यक्ति को यह मौलिक अधिकार है कि वह अपने लिंग की पहचान खुद तय कर सके। चाहे वह पुरुष हो, महिला हो या फिर खुद को वह जिस भी पहचान में देखना सहज महसूस करता हो। कोर्ट ने इसे किसी के लिंग की सहज भावना कहा, यानी जो पहचान व्यक्ति को अपने अंदर से महसूस होती है।इस ऐतिहासिक फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया कि वे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सरकारी दस्तावेज़ों में ‘तीसरे लिंग’ के रूप में पहचान दें। साथ ही, उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का अधिकार मिले और उनके लिए खास सामाजिक योजनाएं बनाई जाएं ।

लेकिन कोर्ट ने यह नहीं बताया कि यह आरक्षण किस तरह का होना चाहिए वर्टिकल जाति के आधार पर या क्षैतिज पहचान के आधार पर। इसके अलावा, यह भी साफ़ नहीं किया गया कि कोई व्यक्ति अपनी ट्रांसजेंडर पहचान को कानूनी रूप से कैसे साबित करेगा। इस मामले के बाद केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया कि वे शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और सार्वजनिक नियुक्तियों के मामले में ट्रांस समुदाय को सभी प्रकार के आरक्षण प्रदान करें । इसी दिशा निर्देश के आधार पर कर्नाटक से शुरू होकर कई राज्यों ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को 1 फीसद आरक्षण देने का फैसला किया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देखने में बहुत बड़ा और बदलाव लाने वाला लगता है क्योंकि यह ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को आरक्षण देने की बात करता है। लेकिन इसमें एक समस्या भी है। कोर्ट ने कहा कि ट्रांसजेंडर लोगों को “सभी तरह के आरक्षण” मिलें, लेकिन यह साफ़ नहीं किया कि यह आरक्षण कौन सा होना चाहिए वर्टिकल या क्षैतिज इस वजह से लोगों को समझ नहीं आया कि ट्रांसजेंडर समुदाय को किस आधार पर आरक्षण मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया कि वे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सरकारी दस्तावेज़ों में ‘तीसरे लिंग’ के रूप में पहचान दें। साथ ही, उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का अधिकार मिले और उनके लिए खास सामाजिक योजनाएं बनाई जाएं ।
क्या है क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर आरक्षण ?
भारत के संविधान में दो प्रकार के आरक्षण की व्याख्या की गई है एक वर्टिकल आरक्षण और दूसरा हॉरिजॉन्टल यानी क्षैतिज आरक्षण। वर्टिकल आरक्षण जाति आधारित होता है। इसमें सरकार कुछ सीटें उन समुदायों के लिए आरक्षित करती है जो ऐतिहासिक रूप से समाज में पीछे रहे हैं। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति शामिल होते हैं। यह व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत, राज्य और केंद्र सरकारों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के लिए सरकारी सेवाओं में पद आरक्षित करने का अधिकार देते हैं और इसकी एक विशेषता है अहस्तांतरणीय यानि खाली आरक्षित सीटें अन्य श्रेणियों के अभ्यर्थियों को आवंटित नहीं की जा सकतीं हैं। इसी के साथ इसे ट्रांस समुदाय के व्यक्तियों तक सीमित रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने योग्यता आधारित चयन इंद्रा साहनी केस के साथ संतुलन बनाए रखने के लिए ऊर्ध्वाधर आरक्षण पर 50फीसद की सीमा लगाई है।
क्षैतिज आरक्षण लैंगिक पहचान आधारित होता है। इसके अंतर्गत विशेष वर्ग जैसे महिलाओं, बुजुर्ग व्यक्तियों, ट्रांसजेंडर समुदाय और विकलांग व्यक्तियों आदि को आरक्षण दिया जाता है। क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के अंतर्गत दी गई है। इसकी अपनी अलग विशेषताएं हैं जैसे इन्टर ट्रांसफेराबल यानी अगर क्षैतिज आरक्षण के लिए कोटा नहीं भरा जाता है, तो बची हुई सीटें वर्टिकल श्रेणी के अन्य पात्र उम्मीदवारों को दी जा सकती हैं। न्यूनतम गारंटी का होना भी इसकी एक विशेषता है। ये व्यवस्था तय करती है कि इन खास समूहों को हर वर्ग में एक तय हिस्सा जरूर मिलेगा, चाहे वे किसी भी जाति या श्रेणी से हों। क्षैतिज आरक्षण प्रत्येक वर्टिकल वर्ग के अंतर्गत अलग रूप से दिया जाता है। उदाहारण के लिए, यदि महिलाओं को किसी संस्थान या वर्ग में 50 फीसद का क्षैतिज आरक्षण दिया गया है।
वर्टिकल आरक्षण जाति आधारित होता है। इसमें सरकार कुछ सीटें उन समुदायों के लिए आरक्षित करती है जो ऐतिहासिक रूप से समाज में पीछे रहे हैं। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति शामिल होते हैं।
इसका अर्थ यह होगा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग इन तीनों वर्गों में महिलाओं को अलग- अलग 50 फीसद आरक्षण दिया जाएगा। वर्टिकल और क्षैतिज आरक्षण के बीच मुख्य अंतर आवंटन के आधार पर देखा जा सकता है। वर्टिकल आरक्षण सामाजिक और शैक्षिक हाशियाकरण से निर्धारित होता है, जबकि क्षैतिज आरक्षण लिंग या विकलांगता जैसे मुद्दों को संबोधित करता है। इसमे एक अंतर प्रतिच्छेदन यानी (जब कोई व्यक्ति एक से ज्यादा पहचानों के साथ जुड़ा होता है) के आधार पर भी देखा जा सकता है। क्षैतिज आरक्षण वर्टिकल आरक्षण को ओवरलेप करता है, जिससे उम्मीदवारों को दोनों श्रेणियों से लाभ मिलता है। उदाहरण के लिए, एक ओबीसी महिला ओबीसी आरक्षण और महिला आरक्षण दोनों के तहत आरक्षण प्राप्त कर सकती है।
ट्रांसजेंडर पहचान को लैंगिक पहचान माना जाए

यह मामला रक्षिका राज नाम की एक योग्य नर्स का था, जो एक ट्रांसजेंडर महिला हैं। उन्हें आरक्षण तो मिला, लेकिन उन्हें सबसे पिछड़ा वर्ग के तहत रखा गया जैसे कि ट्रांसजेंडर होना कोई जाति हो। इसमें उनकी असली पहचान यानी लिंग पहचान को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था। न्यायमूर्ति इलानथिरायन ने अपने फैसले में नालसा मामले का संदर्भ दिया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे ट्रांस व्यक्तियों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के रूप में मान्यता दें।
क्षैतिज आरक्षण लैंगिक पहचान आधारित होता है। इसमें विशेष वर्ग जैसे महिलाओं, बुजुर्ग व्यक्तियों, ट्रांसजेंडर समुदाय और विकलांग व्यक्तियों आदि को आरक्षण दिया जाता है।
इससे शैक्षणिक प्रवेश और सार्वजनिक नियुक्तियों में सभी प्रकार के आरक्षण लागू हो सकें। कोर्ट ने माना कि ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों की पहचान कई स्तरों पर होती है जैसे लिंग, जाति, वर्ग आदि। अगर इन सभी पहचान के मेल को या इंटरसेक्शन नहीं समझा गया, तो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को आरक्षण का सही फायदा नहीं मिल पाएगा। न्यायमूर्ति ने आगे कहा कि इस बात के साफ निर्देश के बावजूद कि ट्रांसजेंडर पहचान को लिंग पहचान के रूप में माना जाना चाहिए, अधिकारियों द्वारा ‘ट्रांसजेंडर’ को एमबीसी श्रेणी के तहत एक जाति के रूप में वर्गीकृत करना गलत था।
ट्रांसजेंडर समुदाय को क्यों नहीं मिलते समान अधिकार

ट्रांस समुदाय के अधिकांश लोग या तो अशिक्षित हैं या कम शिक्षित हैं, जिसके कारण वे समाज के शिक्षित वर्ग में ज्यादा शामिल नहीं हो पाते हैं। साल 2011 में हुई जनगणना के अनुसार ट्रांसजेंडर लोगों की जनसंख्या 4.9 लाख थी और जिसमें से केवल 46 फीसद लोग ही साक्षर थे, जो सामान्य जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। जिसकी साक्षरता दर 74फीसद है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुसार उन्हें वंचित समूह के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यानि उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के रूप में 25फीसद आरक्षण प्राप्त है। उनके कम शिक्षित होने के कारणों में गरीबी, अपने परिवार और दोस्तों से बहिष्कार, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं शामिल हैं। चूंकि उन्हें शिक्षा के अवसर नहीं दिए जाते हैं। इसलिए उन्हें रोजगार नहीं मिल पाता है। ओपन डेमोक्रेसी में छपे एक लेख के अनुसार, मुंबई की कार्यकर्ता अभिना अहेर ने कहा, भारत में लगभग 80फीसद ट्रांसजेंडर लोग या तो सेक्स वर्क में लगे हुए हैं या भीख मांगते हैं, और उनमें से बड़ी संख्या में लिंग आधारित दुर्व्यवहार और हिंसा का सामना करना पड़ता है।
यह मामला रक्षिका राज नाम की एक योग्य नर्स का था, जो एक ट्रांसजेंडर महिला हैं। उन्हें आरक्षण तो मिला लेकिन उन्हें सबसे पिछड़ा वर्ग के तहत रखा गया जैसे कि ट्रांसजेंडर होना कोई जाति हो।
ट्रांसजेंडर समुदाय को किसी भी अन्य समुदाय की तरह कानूनी रूप से उतना संरक्षण प्राप्त नहीं है और इस वजह से, वे उन अपराधों के लिए आसानी से पीड़ित हो जाते हैं जो उन्होंने किए ही नहीं। वे बहुत हिंसा से गुज़रते हैं और घृणा अपराधों के शिकार बन जाते हैं। डीडब्ल्यू में छपे लेख के अनुसार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस भी ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के मुद्दों को गंभीरता से नहीं लेती है, बल्कि पुलिसकर्मी उनका मजाक उड़ाते हैं या उनकी शिकायत दर्ज करने से मना कर देते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2020 में विभिन्न अपराधों के सभी शोषित व्यक्तियों में से 236 ट्रांसजेंडर थे, जिसमें सर्वाइबर व्यक्तियों की कुल संख्या का 0.006 फीसद है। हालांकि एनआरसीबी के आंकड़ों के मुताबिक उस साल ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ बलात्कार की कोई घटना दर्ज नहीं की गई थी। इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि ट्रांस समुदाय को अपनी शुरक्षा के लिए भी कानूनी सुविधा से अनभिज्ञ होना पड़ता है।
समावेश की दिशा में अगला कदम

ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को लेकर सिर्फ अदालतों के फैसले काफी नहीं हैं। ज़रूरी है कि सरकार ज़मीनी स्तर पर ठोस कदम उठाए। सबसे पहले, राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड बनाए जाएं, ताकि ट्रांस समुदाय को सशक्त बनाया जा सके। ट्रांस समुदाय भेदभाव के खिलाफ बने कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए ताकि ट्रांसजेंडर लोगों के साथ अन्याय करने वालों को सज़ा मिले। स्कूलों, कॉलेजों और दफ्तरों में लैंगिक संवेदनशीलता और जागरूकता की ट्रेनिंग अनिवार्य की जाए, जिससे समाज में जागरूकता और स्वीकार्यता बढ़े। इसके अलावा, जो भी नीतियां ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए बनाई जाएं, उनकी समय-समय पर समीक्षा होनी चाहिए और उसमें समुदाय के लोगों की सीधी भागीदारी तय की जानी चाहिए। ऐसा करके ही हम एक समावेशी और बराबरी पर आधारित समाज की ओर बढ़ सकते हैं।
भारतीय संविधान में समानता और न्याय की जो बुनियादी कल्पना की गई है, वह तभी सही सावित होगी जब ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों को भी उसी सम्मान, सुरक्षा और अवसर के साथ जीवन जीने का अधिकार दिया जाएगा, जैसा कि समाज के अन्य वर्गों को मिलता है। रक्षिका राज बनाम तमिलनाडु राज्य जैसे मामले यह दिखाते हैं कि अदालतों ने ट्रांसजेंडर पहचान को एक जाति नहीं बल्कि सामाजिक लैंगिक पहचान के रूप में मान्यता दी है और क्षैतिज आरक्षण की जरूरत को जरूरी बताया है। हालांकि न्यायिक आदेशों से दिशा जरूर मिलती है, लेकिन असली बदलाव नीतियों के प्रभावी योजना और सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन से ही संभव है। जब तक ट्रांस समुदाय को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, और न्यायिक प्रणाली में बराबरी का स्थान नहीं मिलेगा, तब तक संवैधानिक अधिकार अधूरे ही रहेंगे। यह ज़रूरी है कि ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों को उनकी अलग पहचान और अनुभवों के आधार पर समावेशी नीतियों का लाभ दिया जाए न केवल आरक्षण के माध्यम से, बल्कि सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और अवसरों की व्यवस्था के माध्यम से। यह वो रास्ता है जो हमें एक ऐसे भारत की ओर ले जाएगा जहां हर व्यक्ति की पहचान, गरिमा और अधिकार को बराबरी से स्वीकारा जाएगा।