न जाने मैं कब इतनी बड़ी हो गयी,
खेल-कूद, दौड़-भाग को भूल,
जीवन के पतंग की लरी हो गयी
कामकाज को, चाल-ढाल को,
सीख-सीख कर मैं बड़ी हो गयी
अनमनी बेरुखी सी , गुमसुम मुरझाई सी,
किसी पिंजडे की चिड़िया सी ,
मैं ऐसे ही बड़ी हो गयी
मैं कागज की गुड़िया सी, हाथों की कठपुतली सी,
किसी की इज्जत, किसी का मान हो गयी
अपने से दूर, अपने मन से दूर,
न जाने कब परायी हो गयी
चहकना भूल गयी, उड़ना भूल गयी ,
पिंजड़े में बैठी, मैना के जैसी,
आसमान से क्यों लड़ाई हो गयी ?
आज, खेल का नाम सुनकर,
बचपन के समंदर में, गोटा लगाया,
मन को बहकाया, दौड़ाया-भगाया,
फिर से आज खेल में सबको हराया,
कितनो को गिराया, कितनो को हंसाया।
चीखी-चिल्लाई, ठहाके लगाई
ये कौन थी आज बिलकुल समझ न पाई
Prarthana Thakur has recently reclaimed back her love for creating heartfelt poems in Hindi, alongside her passion for working at PACE (Parvaaz Adolescent Centre for Education), an educational programme with a gender and feminist perspective for adolescent girls, by Nirantar.
Nice..this represent the reality of life.