हिन्दू धर्म में पारंपरिक शादी के रीति-रिवाज में फेरे के बाद एक रस्म होती है जिसे ‘पैर पूजने की’ के नाम से जाना जाता है। कहते है कि विवाहित पति-पत्नी को गौरी शंकर का रूप माना जाता है इसीलिए लड़की के माता-पिता बेटी-दामाद के पैर छूते है। अब सवाल ये है कि अगर सच में वे लक्ष्मी-नारायण का रूप है तो लड़की के माता-पिता ही क्यों पैर छूते है, हर किसी को उनके पैर छूने चाहिए लड़के के माता-पिता को भी। क्या लड़के के घरवालों को गौरी-शंकर के आशीर्वाद की ज़रूरत सिर्फ इसलिए नहीं होती क्योंकि वे लड़के के माता-पिता है| हमारे शास्त्र इस बारे में क्या कहते है इसके बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन उन संस्कारों (हिन्दू परिवार में लालन-पालन के दौरान मिले) की जानकारी मुझे बखूबी है जो मुझे बचपन से दिए गये है, जहाँ हमें अपने से बड़े लोगों का अभिवादन-सम्मान उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने के बारे में सिखाया गया है|
अब इसे समाज का दुर्भाग्य ही कहेंगें कि आधुनिकता का चोंगा पहने समाज ने अपनी खोल तो फैशनेबल कर ली है लेकिन व्यवहार में आज भी वो उन्हीं दकियानूसी रस्मों को अपनाता है|
उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाचल व अन्य राज्यों में मैंने इस रस्म के बारे में सुना था। और चूँकि मैं राजस्थान की रहने वाली हूं तो सोचा शायद पापा से जानू की क्या हमारे यहां भी ऐसी कोई रस्म होती है ?
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रस्म का विश्लेषण
मैंने अपने पापा से जब इस सिलसिले में पूछा तो उन्होंने बताया कि शादी के तुरंत बाद नानी जी-नाना जी ने भी उनके पैर छूए थे और उसके बाद भी जब पापा नानी के यहां जाते थे तो नानी जी पैर तो नहीं छूती थी लेकिन पापा भी उनके पैर नहीं छूते थे। उन्होंने बताया की एक बार बुआ जी और ताऊ जी के साथ नानी जी बैठे थे और पापा ने अपने से बड़ी बहन और भाई के पैर छूए और नानी जी की पैर नहीं छुए। ये बात नानी जी को बहुत बुरी लगी। नानी जी ने अपनी नाराजगी मम्मी को बताई और फिर मम्मी ने पापा को बताया। पापा ने बताया की उसके बाद से उन्होंने नानी जी के पैर छूने शुरू कर दिए। पापा ने तब समझा की वो मेरी मां की उम्र की है। वो भी उन्हीं तमाम बुजुर्गों में है जिससे मिलते ही वो सबसे पहले पैर छूते है।
तर्कों के आधार पर हमें पैर पूजने की रस्म का विश्लेषण करना ज़रूरी है|
अब इसे समाज का दुर्भाग्य ही कहेंगें कि आधुनिकता का चोंगा पहने समाज ने अपनी खोल तो फैशनेबल कर ली है लेकिन व्यवहार में आज भी वो उन्हीं दकियानूसी रस्मों को अपनाता है| आज भी कई इलाकों में लड़की के माता-पिता अपने दामाद के पैर छूते है। आखिर ऐसी प्रथा क्यूं है। अगर शास्त्रों के अनुसार दामाद देवता का रूप है तो बहू भी तो लक्ष्मी का रूप है| ऐसे में इस लक्ष्मी को शादी के बाद सबके पैर छूना संस्कार है और दामाद का अपने माता-पिता समान सास-ससुर से पैर छुआना एक रस्म।
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तर्कों के आधार पर हमें पैर पूजने की रस्म का विश्लेषण करना ज़रूरी है| वरना यूँ ही हम बिना कुछ सोचे-समझे इन्हें ढ़ोते चले जायेंगें और अपने साथ-साथ लगातार असमानता के बीज बोते जायेंगें| हमें सोचना होगा कि आखिर इन रस्मों की बनावट में इतना हैर-फैर क्यों है। वैसे तो हमारे शास्त्रों में तो हर रोज बड़ों के अभिवादन से आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी की बात कही गयी है| ऐसे में, अगर बड़े अपने से छोटे का पैर छूयेंगे तो क्या उनकी उम्र कम नहीं होगी?
पुरुषों के ज़रिए बदलाव की ओर कदम
हम लड़कियों को शादी के बाद बहु बनकर अपने से बड़ो के पैर छूने में कोई आपत्ति नहीं है तो दामाद बनने पर कुछ लड़को को क्यूं? यहाँ मैंने कुछ इसलिए लिखा है क्योंकि कई लड़के है जो इस रस्म का विरोध भी करते है वो भी लड़कियों की तरह अपने सास-ससुर को माता-पिता के समान मानते है एक दामाद की तरह नहीं बल्कि एक बेटे की तरह पेश आते है।
तो ऐसे ही कुछ पुरुषों से उम्मीद है कि वो इस प्रथा के बारे में अपने से जुड़े लोगों से बात करें और इसमें बदलाव लाए शायद पुरुषों को पुरुष के द्वारा समझना सहज लगेगा। इसके साथ ही, हम महिलाओं को खुद भी ऐसी हर रस्म के खिलाफ अपनी आवाज़ और विचार को अपने व्यवहार में लाना होगा, जो रस्में समाज में महिला और पुरुष के बीच असमानता को बढ़ावा देती है और अलग-अलग तरीके से महिलाओं को कमतर दिखाने-बताने का काम करती है|
यह लेख कावेरी सिंह (कामिनी) ने लिखा है|
Ye kis prakar ki fitrat hai.kuch palon ki jindagi .is tarh ki baaton mein gujaar Raha hai pshuwat samaj. Kuch ishwr Ka gudgaan Karo dhyam Karo .Kitano bhi thotha muha Nahi insan karta Apne man ki hai. Kabhi Swami Vivekanand ka karmyog read karon. Apki brain mein sakratmakta ayegi.