समाज-देश-शहर-गाँव-कस्बा चाहे किसी भी नाम से किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में हो कमोबेश महिलाओं की स्थिति एक सी है| मौजूदा समय में जब दुनियाभर में विकास-आधुनिकता का डंका बज रहा है, तब महिलाओं की स्थिति में कोई ख़ास सुधार देखने को नहीं मिल रहा है| लेकिन सदियों से पितृसत्ता की मार झेलती महिलाओं की समाज में खुद के अस्तित्व को लेकर सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में कोशिशें ज़रूरी देखी जा सकती है| सफ़ल महिलाओं की कहानियाँ भी अब लिखी-पढ़ी जाने लगी है, लेकिन छोटे-छोटे प्रयासों से समाज में बड़े बदलाव लाने वाली महिलाओं की कहानियाँ आज भी कहीं-न-कहीं हमसे दूर है| यही वजह है कि वो महिलाएं जो समाज की सही मायने में नायिकाएं है उनकी कहानियाँ आज भी हमसे दूर है, इसलिए उनके प्रयासों को लिखना मैं अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझती हूँ| इसी तर्ज पर आज आपसे साझा कर रही हूँ उत्तर प्रदेश के बनारस शहर के पास के दो गाँव भीखमपुर (आराजी लाइन ब्लॉक) और खुशीपुर (कशी विद्यापीठ ब्लॉक) की नायिकाओं की सच्ची कहानियाँ|
खुशीपुर गाँव की सशक्त इरादों वाली ‘शबनम’
उसदिन दोपहर के वक़्त शबनम ने मुझे फोन किया| फोन उठाते ही शबनम ने रोते हुए पूछा कि ‘दीदी क्या डांस या नाटक करने से ‘रंडी’ हो जाते है?’ उसके इस सवाल ने मुझे सन्न कर दिया था| दो मिनट शांत रहने के बाद मैंने उससे कहा – नहीं ये किसने कहा? इसपर उसने बोला कि गाँव की औरतें और लड़कियों ने मिलकर गंदी-गंदी गालियों के साथ हमें कहा कि ‘गाँव की लड़कियों को ये सब डांस-नाटक सिखाने का ये जो तुम रंडियों वाला काम कर रही हो, नहीं करना है ये सब|’
छोटे-छोटे प्रयासों से समाज में बड़े बदलाव लाने वाली महिलाओं की कहानियाँ आज भी कहीं-न-कहीं हमसे दूर है|
ये कहानी है बनारस (उत्तर प्रदेश) के पास के गाँव खुशीपुर की| शबनम हाईस्कूल में पढ़ती है| गाँव में किशोरी दिवस के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम की जिम्मेदारी गाँव की तीन लड़कियों ने ली जिसमें बाकी की लड़कियों को डांस और नाटक तैयार करने का जिम्मा शबनम ने लिया था| ये गाँव ज्यादा विकसित नहीं है| हर नुक्कड़-चौराहे पर जुआ-खेलते और शराब पीते मर्द यहाँ देखें जा सकते है| एक सामाजिक संगठन ने इस गाँव में तमाम आर्थिक परेशानियों की मार झेलती गाँव की महिलाओं के विकास के लिए यहाँ महिला स्वयंसेवी समूह की स्थापना करवाई| पर दुर्भाग्यवश इस समूह की अध्यक्ष चुनी गयी महिला ब्राह्मणवाद की शिकार हो गयी| उसे गाँव में किसी और महिला या लड़की का आगे बढ़ना बिल्कुल नहीं भाता है, जिसके लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती है| इसी का शिकार बनी शबनम, जिसके बढ़ते कदम को देखकर अध्यक्ष ने गाँव की महिलाओं और लड़कियों को उसके खिलाफ भड़काया|
पर इस घटना ने शबनम के हौसले को खत्म नहीं किया बल्कि उसे एक नयी ऊर्जा दी| उसने कहा कि अब ये लोग चाहे जो कहे ‘मैं गाँव की लकड़ियों को आगे बढ़ाऊँगी और शबनम ने किशोरियों को डांस और नाटक की ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया और तमाम रुकावटों के बाद भी उसने कार्यक्रम में कमी नहीं रहने दी|
सदियों से पितृसत्ता की मार झेलती महिलाओं की समाज में खुद के अस्तित्व को लेकर सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में कोशिशें ज़रूरी देखी जा सकती है|
शबनम ने बताया कि उसके माता-पिता उसे पढ़ाना चाहते है और वो उसे हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते है| इसलिए शबनम ने भी अपने सपनों को नयी उड़ान देने की दिशा कदम बढ़ाना शुरू कर दिया| वो रोज स्कूल से आने के बाद कम्प्यूटर सीखने जाती है और माता-पिता ने बिटिया की सहूलियत के लिए उसे मोबाइल फोन भी दिया हुआ है| बस यही है गाँव के लोगों का आधार, जिसके अनुसार शबनम के चरित्र पर सवाल खड़े किये जाते है| गाँव के लड़के अक्सर आते-जाते उसपर भद्दे कमेंट करते है| लेकिन इन सबके बावजूद शबनम ने हार नहीं मानी, वो लगातार अपने सपनों को पूरा करने के लिए कोशिश कर रही है|
भीखमपुर गाँव में पितृसत्ता की सड़ी सोच से लोहा लेती राजकुमारी और बेबी
बनारस के पास (आराजी लाइन ब्लॉक) का गाँव है भीखमपुर| उस दिन गाँव में किशोरी उत्सव मनाया जाना था, जिसके आयोजन का जिम्मा गाँव की लड़कियों और महिलाओं को सिलाई सीखने वाली ‘बेबी’ पर था| मुझे भी किशोरी उत्सव में जाने का न्योता था, लेकिन किन्हीं कारणों से मेरा वहां जाना मुश्किल था| कार्यक्रम वाले दिन, सुबह के वक़्त बेबी ने मुझे फ़ोन करके कहा कि ‘दीदी आप आज ज़रूर आइये कार्यक्रम में, बहुत ज़रूरत है|’ जब मैंने पूछा कि कोई ख़ास बात? इसपर बेबी ने जवाब दिया कि ‘कई दिनों से गाँव के आवारा लड़के, लड़कियों पर कार्यक्रम को भद्दे-भद्दे कमेंट कर रहे है और उनलोगों ने धमकी भी दी है कि वे इस कार्यक्रम को नहीं होने देंगें|’ इसपर मैंने तय किया कि मैं ज़रूर कार्यक्रम में जाऊंगी| कार्यक्रम में जाने के बाद मुझे पता चला कि भीखमपुर एक ऐसा गाँव है जहाँ इसतरह का कार्यक्रम इससे पहले कभी नहीं हुआ था और लड़कियों को लेकर ये गाँव बेहद पिछड़ी सोच से ग्रसित था|
महिलाओं ने बताया कि किशोरी उत्सव के शुरुआत में जब महिला सामाजिक कार्यकर्ता गाँव की महिलाओं के साथ जागरूकता रैली निकालने जा रही थी तब लड़कों ने महिलाओं को घेरकर गंदी-गंदी गालियाँ दी और कहा कि ‘आज जो तुमलोगों का रंडी-नाच होने वाला है, वहां हमलोग आयेंगें पैसा लुटाने|’ महिलाओं ने उन्हें जवाब दिया कि ‘ठीक है, तुमलोग आ जाना कार्यक्रम में|’ वाकई कार्यक्रम में उन लड़कों में से एक लड़का कार्यक्रम में आकर गाली-गलौच करने लगा, जिसपर उसकी पिटाई की गयी| लेकिन कोई क़ानूनी कार्यवाई नहीं की गयी क्योंकि गाँव की बूढी महिलाएं खुद इज्जत की दुहाई देते बीच में आ गयी|
वो लड़का राजकुमारी नाम की लड़की का छोटा भाई था| राजकुमारी ने इस कार्यक्रम में सक्रिय भागीदारी ली थी और वो सिलाई भी सीखती थी| राजकुमारी के माता-पिता दोनों की मृत्यु हो चुकी है और उसका भाई मजदूरी का काम करता है, उसे अपनी बड़ी बहन का सिलाई के ज़रिए आत्मनिर्भर बनना और उसकी अपनी मेहनत से खुद की सशक्त पहचान बनाना बिल्कुल भी गवारा नहीं था और इसलिए वो हमेशा अपनी बहन को जलील करके झगड़ा करता है| कार्यक्रम के दिन भी उसने पहले राजकुमारी को जलील कर भद्दी-भद्दी गलियां देकर झगड़ा किया, लेकिन राजकुमारी ने बिना डरे उसका सामना किया, जो उसकी दिनचर्या का हिस्सा भी बन चुका है|
गाँव में आज भी महिलाओं की स्थिति सुधरने का नाम नहीं ले रही है|
पितृसत्ता की सड़ी सोच की मार झेलते भीखमपुर गाँव में बेबी और राजकुमारी एक मिसाल है ‘महिला सशक्तिकरण और विकास’ की, जहाँ वे गाँव में रहते हुए मर्दवादी सोच से न केवल लोहा ले रही है, बल्कि अपने साथ और महिलाओं और लड़कियों को भी सशक्त रूप से आगे बढ़ने, अपनी बात रखने और अपने हुनर को पहचान दिलवाने की दिशा में आगे बढ़ाने का काम कर रही है|
उल्लेखनीय है कि इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि यह किस्सा उस दौर का है जब महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नये मुकाम हासिल कर रही है| वहीं गांवों में आज भी महिलाओं की स्थिति सुधरने का नाम नहीं ले रही है| उनकी समस्याओं के निपटान के लिए अगर एक कदम आगे बढ़ो तो वे खुद किसी दूसरी समस्या का शिकार होकर दूसरी महिला के दमन पर उतारू हो जाती है और इस सबमें एक सच यह भी है कि हर किसी में शबनम, राजकुमारी और बेबी जैसी दृणशक्ति नहीं होती है, जो सामूहिक तौर पर ऐसे शब्द (जिसे समाज में सीधे तौर पर महिला-अस्तित्व के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है) सुनकर इससे हार मारने की बजाय इससे लड़ने का जज्बा रखे| लेकिन वहीं दूसरी तरफ मेरा विश्वास है कि अगर हम इन नायिकाओं की संघर्ष-गाथा, जो एक सशक्त अस्तित्व की जिन्दा मिशाल है, उनको गाँव से लेकर शहर तक अन्य महिलाओं से प्रभावी ढंग से साझा करेंगें तो ये महिलाओं के उत्साहवर्धन और सटीक प्रेरणास्रोत का काम करेगा| अगर आप भी मेरी इस बात से सहमत है तो दर्ज करिए उन नायिकाओं की संघर्ष गाथा|