साल 2017 अब अपने अंतिम पड़ाव पर है और साल के इस आखिरी दौर में हम लाये है आपके सामने फेमिनिज्म इन इंडिया के उन हिंदी लेखों की फेहरिस्त, जिसे आपने अपने ढ़ेरों प्यार से बनाया इस साल के बेहतरीन हिंदी लेख| आप भी देखें ये झलकियाँ!
1- “भारत में स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष: इतिहास के झरोखे से” – दीपशिखा सिंह
हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श पितृसत्ता के खिलाफ मुखर होते हुए अब इस जगह पर पहुँच गया है जहाँ स्त्री अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान कर पाने में सक्षम है| यही वह आधार है जहाँ से सामाजिक और लैंगिक विभाजन के स्थान पर मनुष्यता की पहचान शुरू होती है| यह आधार स्त्रियों के लम्बे संघर्ष से ही निर्मित हुआ है| यदि भारत में स्त्रियों के संघर्ष का लम्बा इतिहास नहीं होता तो किसी सैद्धांतिकी या अवधारणा पर आधारित लेखन का बहुस्तरीय भारतीय समाज के सन्दर्भ में न तो खास प्रासंगिकता होती और न ही उसका ठोस देशज स्वरुप निर्मित हो पाता|
2- “पीरियड का चिट्ठा ‘कुछ आप बीती कुछ जग बीती’”– इना गोयल
मुझे इस बात पर बहुत ही आश्चर्य होता है कि क्यों महिलाओं के लिए आनंद का प्रश्न अनसुना कर दिया जाता है? कई सारी लड़कियां ऐसी होती हैं जिन्होंने कंडोम कभी देखा ही नहीं होता है और उन्हें इस बात का भरोसा ही नहीं होता है कि यह क्या कर सकता है। सम्भोग करने का मतलब होता है बच्चा पैदा करना। अभी भी मैं लड़कियों पर उत्पीड़न की इस विरासत को यादकर असंतुलित हो जाती हूँ।
3- “औरत का अस्तित्व और पराये धन की बात” – रोकी कुमार
लैंगिक समानता घर तोड़ने का काम नहीं करती बल्कि एक विकसित देश बनाने का काम करती है। बहुत जरूरी है कि हम महिलाओं को संपत्ति ना समझते हुए उनके लिए संपत्ति के अधिकार की बात करें। इसकी शुरुआत हमें अपने घर से करनी होगी| हमें समझना होगा कि लड़कियों को हम बचपन से इस बात की घुट्टी पिलाते है कि वो पराया धन है और लड़की खुद को इंसान की बजाय उस धन की तरह देखने-जीने लग जाती है जिसका एक मालिक होगा – यानी कि उसका पति| यह कहीं न कहीं महिला को खुद के लिए खड़े होने पर हमेशा रोड़ा बनता है|
3- “परंपरा वाली आधुनिक दुल्हन के लिए जरूरी होता श्रृंगार ‘हायम्नोप्लास्टी सर्जरी’” – सविता उपाध्याय
समाज की मर्यादा और नीति के बंधन हमेशा से पुरुष की अपेक्षा स्त्री पर अधिक चौकन्नी नजर रखते रहे हैं, इसलिए जो खोना या पाना रहा है, वह स्त्री के लिए रहा है| पर समय के साथ महिलाओं को भी बदलने की ज़रूरत है, उन्हें यह समझना होगा कि उनके शरीर पर उनका अधिकार है और उन्हें किसी को भी अपने पवित्र होने या ना होने का प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं है|
4- “पितृसत्ता क्या है? – आइये जाने” – स्वाती सिंह
महिलाएं चाहे किसी भी जाति या वर्ग की हों पितृसत्ता समान रूप से उनकी ज़िन्दगी को कठिन बनाती है| जैसे – अगर कोई महिला कामकाजी नहीं है तो उससे ज्यादा से ज्यादा घरेलू काम करवाया जायेगा| वहीं अगर महिला कामकाजी है तो उस पर अधिक से अधिक पैसे कमाने का दबाव डाला जायेगा| यहाँ शोषण दोनों महिलाओं का होता है बस उनके तरीके अलग-अलग होते हैं| इसी तर्ज पर, महिलाएं जिस खास वर्ग, जाति, धर्म, राष्ट्र या कबीले से ताल्लुक रखती हैं, उनके अनुसार पितृसत्ता के शोषण-दमन के तरीकों में बदलाव आता है|
5- “संस्कारी लड़कियों के नाम एक खुला खत…” – श्रद्धा उपाध्याय
शायद समाज का पितृसत्तात्मक पक्ष ही है कि औरत को जन्म से ही किसी रिश्ते, किसी संस्कार से बाँध दिया जाए। वो लाड़ली लक्ष्मी है क्योंकि उसके आने से घर में कुछ न हो तो कम-से-कम धन तो आये ही। समाज अक्सर महिला सुरक्षा के लिए सड़कों पर उतरता है क्योंकि उनके लिए महिलाएं केवल किसी की बेटी, बहन, बीवी या माँ है| पर जब बात यह हो कि वो सिर्फ एक औरत है तो उसे बस माँस का गट्ठर ही मान लिया जाता है। ऐसा लगता है कि रिश्ते बनते ही उस मांस के गठ्ठर में जान आ जाती है|
6- “भारत में क्वीयर मुसलमान होना – मेरी कहानी” – फ़राज़ सिद्धकी
एक दलित और आर्थिक तौर पर कमजोर मुसलमान के लिए अपनी इस सच्चाई से उन्हें रु-ब-रु करवाना एक डरावने ख्वाब जैसा है| यह समस्या तब और वीभत्स रूप ले लेती है जब इसका ताल्लुक महिलाओं से होता है| अपने समाज में एक सामान्य महिला का जीवन तमाम अपवादों और धार्मिक कुरीतियों का लगातार शिकार होता है, ऐसे में समलैंगिकता उनके जीवन की इन सभी परेशानियों को और भी भयावह रूप दे देता है|
7- “गर्व है मुझे कैरेक्टरलेस होने पर – मेरी कहानी” – स्वाती सिंह
भारतीय समाज में ‘कैरेक्टर’ एक ऐसा शब्द है जिसका इस्तेमाल हमेशा एक लड़की को मानसिक रूप से तोड़ने के लिए किया जाता है, जिसका नतीजा कई बार लड़कियों के लिए जानलेवा भी साबित होता है| लड़कियों के सन्दर्भ में अक्सर कहा जाता है कि उन्हें हर जगह खुद को साबित करना होता है, क्योंकि समाज हमेशा लड़कियों के लिए दोहरी चुनौती की पेशकश करता है| अब सवाल यह है कि आखिर कब तक खुद को साबित करने का सिलसिला ज़ारी रहेगा?
8- “करवा चौथ का ‘कड़वा-हिस्सा’ है ये अनछुए पहलू” – स्वाती सिंह
मैं ये नहीं कहती कि करवा चौथ मनाना गलत है| पर ये ज़रूर कहूंगी कि सिर्फ रस्म-रिवाज के नामपर इसे ढ़ोना पूरी तरह से गलत है| साथ ही, पारंपरिक ढकोसलों से निकलकर आधुनिक फैशन के नामपर नये ढकोसलों में फंसना भी सही नहीं| बाकी आप बेहद समझदार है| आशा है इसबार करवा चौथ को आप आडम्बर से कड़वा नहीं होने देंगी|
9- “पीरियड के मुद्दे ने मुझे मर्द होने का असली मतलब समझा दिया” – रामकिंकर कुमार
असल में मर्द होने का मतलब औरतों से अपनी तुलना करके उनको नीच दिखाना नहीं बल्कि उनसे जुड़े विषयों को संवेदनशील तरीके से समझकर स्वस्थ्य माहौल बनाना है| मैं ये नहीं कहूँगा कि आप सभी भी मेरी तरह इस मुद्दे पर काम करने में जुट जाइये, लेकिन ये ज़रूर कहूँगा कि ऐसे मुद्दों को मजाक का विषय बनाने की बजाय अपनी समझ और संवेदनशीलता बढाइये, ये आपके और आपके परिवार दोनों के लिए बेहद ज़रूरी है|
10- ‘बाहर रहकर लड़कियां पढ़ाई नहीं अय्यासी करती है’ – सविता उपाध्याय
महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी-अपनी परिस्थितियों और औकात के हिसाब से लड़ भी रही हैं| अस्वीकार और तिरस्कार भी अपने किस्म की चुनौतियाँ फेंकते रहते हैं| आज ज्यादातर महिलाएं इन्हें भी स्वीकार कर रही हैं| पर उपेक्षा ! यह बड़ी भयानक होती है| न तो उपेक्षा का दर्द कहीं दर्ज हो पाता है और न ही उपेक्षा के खिलाफ़ लड़ाई| समाज की योजना यह है कि स्त्री दिखे तो आधुनिक, पर रहे परंपरावादी| तभी गैर-बराबरी के उन रिश्तों को कायम रखा जा सकता है, जिनकी बुनियाद पर हमारी सभ्यता का भीतर से खदबदाता महल खड़ा है|