अकेली औरत एक असंभव स्थिति रही है| हमारे मनुवादी संस्कारों में औरत के लिए हमेशा से अगर कहीं कोई गुंजाइश बनी है तो रक्षिता (जो रक्षा करने योग्य हो) रह कर बनी है| औरत न तो घर में अकेली देखी जा सकती है और न बाहर| समाज में घर से बाहर अकेली औरत एक असम्मानजनक स्थिति है| क्योंकि ‘सम्मान’ चाहने वाली औरत तो हमारे यहाँ पुरुषों के संरक्षण में होती है| औरत के लिए सुरक्षा एक ख़ास कवच है जिसे खोने की कीमत पर वह स्वतन्त्रता पा सकती है| लेकिन ये सुरक्षा भी उसे आसानी से हासिल नहीं होती है और इस सुरक्षा को पाने के लिए उसे जो सहन करना पड़ता है वो असहनशील है|
“अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है”
फिल्म ‘जब वी मेट’ से लिया गया ये डायलाग समाज का अकेली औरत के प्रति नज़रिया जाहिर करता है| ऐसे में सवाल यह है कि अकेली औरत के लिए समाज में क्या व्यवस्था है? अकेली औरत की पहचान क्या होगी? ये सवाल शाश्वत है, अविवाहिता, तलाकशुदा, विधवा औरत या कुछ और| वरना जो औरत विवाह संस्था में है, वह पुरुष की जिम्मेदारी है| उसे यह सिखाया जाता है कि उसे अपने बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं है| लेकिन वास्तविकता ये है कि विवाह औरत को उसकी देह और श्रम के बदले जीवनभर के लिए रोटी, कपड़ा और छत मुहैया कराता है और देता है बाहरी पुरुष से सुरक्षा का आश्वासन और वापिस लेता है उसका ‘आत्म’| वो ‘आत्म’ जो बचपन से ही बनने नहीं दिया जाता है|
समाज में औरत को देह मानकर उसके शोषण का इतिहास नया नहीं है|
देह में अस्तित्व की तलाश
अर्थ जगत में जगह बनाती औरत को मर्दों की सत्ता हमेशा पटकनी देने की फिराक में रही है| ख़ास ये है कि औरत ने देह से बाहर आकर बौद्धिक क्षमता के बल पर भी कहीं कोशिश की है तो उसे गिराने के लिए हथियार देह के ही इस्तेमाल किये गये हैं| समाज में औरत को देह मानकर उसके शोषण का इतिहास नया नहीं है| ख़ास ये है कि औरत को देह मानकर भी औरत को उसकी देह नहीं सौंपी गयी है| सुरक्षा और संरक्षण के नामपर औरत की देह पिता और पति के पास गिरवी रही है|
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औरत की विवाह संस्था के बाहर ज़िन्दगी जीने की इच्छा, देह भोग की इच्छा एकबार के सुख के बदले उम्रभर की सजा देता है| फिर विकल्प के तौर पर औरत को मिलता है कोठा या आत्महत्या का प्रयास| देह का सुख औरत को सिर्फ आतंक ही देता है|
खुद के दम पर आगे बढ़ती ‘अकेली औरत’
देह की क्रांति ने औरत को सारे विकल्प उसके पक्ष में ही नहीं सौंपे हैं| देह स्वामित्व और देह की छवि से पैसा कमाने की औरत की आकांक्षा को बाज़ार ने अपने हित में भुनाया है| औरत की इस स्वतंत्रता को सेक्स उद्योग ने हाथों-हाथ लपक लिया और औरत फिर खेल बन गई| सेक्स शोषण का औज़ार बनी रही कुछ रूप बदलकर| लेकिन औरत ने समझा है कि क्या शोषण घर पर नहीं हैं? समझौते ज़िन्दगी खत्म कर देते है इसलिए औरत ने इनकार की हिम्मत जुटाई है और सक्षम होने पर पति की ज्यादतियां सहने की अपेक्षा उसे घर से बाहर निकालने की हिम्मत भी दिखाई है| और खुद अपने दम पर बाहर आने की हिम्मत भी|
औरत की विवाह संस्था के बाहर ज़िन्दगी जीने की इच्छा, देह भोग की इच्छा एकबार के सुख के बदले उम्रभर की सजा देता है|
औरत की आज़ादी को, उसके बाहर आने को मर्दों ने अपनी तरह से भुनाया है| औरत ने बावजूद सारे उत्पीड़न, यौन शोषण और बाज़ार में अपने उपयोग के, अपने लिए पैर जमाने लायक जमीन तलाश ली है| अपने ‘आत्म’ को पहचानने के लिए उसे मालूम है कि बाहर निकलना ज़रूरी है| ये बाहर निकलना वापस लौटने के लिए नहीं है| परिवार और करियर में से अगर एक ही चुनने का उसे अधिकार है तो वह रूककर सोचने लगी है| परिवार में अगर गुंजाइश बनती है, पति बदलता है तो ठीक वरना अब वह अपने लिए भी सोचना चाहती है| औरत खुद आत्मनिर्भर हो सकती है| देह और श्रम के धरातल पर स्वतंत्रता की मांग करती यह औरत सुरक्षा के व्योम से बाहर आई है, समझौतों में अपनी ज़िन्दगी खत्म नहीं करती| इनकार की ताकत पहचानती है| अपने लिए फैसले लेना चाहती है और उनके परिणामों को भुगतने के लिए भी तैयार है|
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यह सच है कि समाज ने आज भी अपनी हाय तौबा नहीं छोड़ी है| लेकिन औरत ने अब जाना है कि बिस्तर के ‘सुख’ और उसकी ‘ताकत’ के अलावा भी शक्ति के स्रोत है जहाँ से अपने लिए जगह बनाई जा सकती है जो बौद्धिक और मानसिक विकास से संभव है| अपने दम पर कायम होने वाली यही पहचान औरत को समाज के लिए ‘अकेली औरत’ और औरत को उसके ‘आत्म’ से रु-ब-रु करवाती है|
स्रोत : ए लड़की, कृष्णा सोबती, पृ. 63, स्त्री: मुक्ति का सपना, पृ. 112