इंटरसेक्शनलयौनिकता सेक्स वर्कर के अधिकारों के लिए आन्दोलन से मिली सीख – दूसरी क़िस्त

सेक्स वर्कर के अधिकारों के लिए आन्दोलन से मिली सीख – दूसरी क़िस्त

मुद्दा यह नहीं है कि धंधा अपनी मर्ज़ी से किया जा रहा है या जबरन करवाया जा रहा है। यहाँ मुद्दा ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ के बीच चुनाव का है।

मीना सरस्वती सेषु व आरती पई

इस लेख का पहला भाग यहाँ प्रकाशित हुआ था।

क्या धंधा करना भी काम है?

क्या व्यवसाय करना काम है? क्या ऐसा कोई व्यवसाय जिसमे सेक्स सेवाएं प्रदान की जाती हों, काम की परिभाषा में शामिल किया जा सकता है? अगर किसी परिणाम की इच्छा से की गयी मानसिक या शाररिक गतिविधि काम है, तो फिर सेक्स वर्क करने वाले किसी व्यक्ति के लिए यह भी काम ही है। यदि जीवित रहने के लिए की गयी कोई गतिविधि काम है, तो भी सेक्स वर्क काम ही है। यदि किसी व्यक्ति द्वारा ली जाने वाली सेवा के लिए पैसों के भुगतान के बदले, उसके लाभ के लिए अपने शरीर का प्रयोग करते हुए कोई शारीरिक श्रम करना काम है, तो भी सेक्स वर्क काम ही माना जायेगा। अपने शरीर का प्रयोग कर अपने आर्थिक लाभ के लिए प्रदान की जाने वाली सेवा के सामान, सेक्स वर्कर भी सेक्स सेवाएं देकर आर्थिक लाभ पाते हैं।

क्या ऐसा करके सेक्स वर्कर, सेक्स की इस प्रक्रिया में से अंतरंगता को, या प्यार को, गोपनीयता को या फिर परस्पर आनंद की अनुभूति या कौतूहल को दूर कर देते हैं? सेक्स वर्क के बारे में लोगों की आम समझ इन्ही विचारों का इर्द-गिर्द धूमती रहती है। चूंकि सेक्स सेवाएं अधिकांशत: महिलाओं द्वारा केवल पुरुषों को ही प्रदान की जाती हैं, इसलिए ऐतिहासिक रूप से सेक्स वर्क को हमेशा काम समझे जाने की बजाए महिलाओं को गुलाम बनाने से जोड़कर देखा जाता रहा है। ‘वेश्या’ की परिभाषा से यह अवधारणा बन गयी है कि इस तरह की महिलाएं हमेशा ही पुरुषों की ‘शारीरिक ज़रूरतों’ को शांत करने के लिए गुलाम की तरह आसानी से ‘उपलब्ध’ रहती हैं।

सेक्स वर्कर वह व्यक्ति हैं जिन्हें पुरुष ‘प्रयोग’ करते हैं – सेक्स वर्कर के बारे में इस प्रचलित धारणा को सही न ठहराते हुए, सेक्स वर्कर यह मानते हैं कि वे अपनी सहमति से आर्थिक लाभ के लिए सेक्स सेवाएं प्रदान करते हैं। प्रचलित धारणा को ख़ारिज करने के उनके दो कारण हैं। पहला, कि सेक्स सेवाएं कभी भी मुफ्त नहीं दी जातीं और इनके लिए किये जाने वाला भुगतान मोलभाव कर पहले ही तय किया जाता है और सेवा मिलने से पहले भुगतान कर भी दिया जाता है। ग्राहक हमेशा ही सेक्स सेवा के लिए मूल्य चुकाते हैं – यदि सेक्स वर्क पर सेक्स वर्कर का सीधा नियंत्रण है तो उन्हें, और यदि सेक्स वर्कर का नियंत्रण नहीं है तो उसे जो सेक्स वर्कर को नियंत्रित करता है। दुसरे, किसी भी तरह का खतरा होने पर सेक्स वर्कर खतरे से बचने के लिए सेक्स सेवाएं देने का प्रस्ताव कर सकते हैं और इसे किसी भी तरह से हिंसा या दुर्व्यवहार नहीं कहा जा सकता। आपराधिक व्यवस्था में भी इसे काम का भाग ही समझा जाता है।

क्या धंधा शोषण है?

धंधा अत्यंत आपराधिक परिवेश में किया जाता है। सेक्स वर्क, अपने-आप में कोई अपराध नहीं है लेकिन इसे जिस तरह से किया जाता है, वह तरीका आपराधिक होता है – जैसे कि कोठा चलाना, ग्राहक ढूँढना, सेक्स वर्क करने वाली किसी महिला की कमाई खाना, किसी मजिस्ट्रेट द्वारा सेक्स वर्क से जुडी किसी महिला को उसकी इच्छा से या इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखना आदि। चूंकि सेक्स वर्कर प्राय: कानून का पालन नहीं कर रहे होते इसलिए छोटे-मोटे अपराधियों, ट्रैफिकिंग करने वाले (इसे मानव तस्करी भी कहते हैं, परन्तु यह शब्द विवादित है) कानून लागू करने वालों, भुगतान न करने वाले ग्राहकों, कोठा-मालिकों, क़र्ज़ देने वालों या सेक्स वर्कर पर भावनात्मक और/या वित्तीय प्रभाव रखने वाले लोगों (पुरुषों/महिलाओं) द्वारा उनके आर्थिक और यौन शोषण किये जाने की सम्भावना वास्तविकता का हिस्सा है।

सेक्स वर्क से जुडी महिलाएँ सीधे-सीधे ही ‘बुरी महिलाओं’ के श्रेणी में आ जाती हैं।

सेक्स वर्कर का शोषण इसलिए नहीं होता कि वे सेक्स सेवाएं देतीं हैं बल्कि असुरक्षित माहौल में काम करते हुए सेक्स सेवाएं देने के कारण वे शोषण की चपेट में आ जाती हैं। भारतीय दंड विधान की धारा 370 में शोषण को इस तरह से परिभाषित किया गया है, ‘शोषण के अंतर्गत हर वो क्रिया आएगी जिसमें किसी भी प्रकार का शारीरिक शोषण अथवा यौन शोषण, गुलामी में रखना या जबरन सेवा करने के लिए विवश करना या शरीर से जबरदस्ती किसी अंग को हटा देना शामिल है’।

‘यौन शोषण’ का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की मजबूरी, कमजोरी का लाभ उठाकर या उसके विश्वास का लाभ उठाका उनके साथ सेक्स करना या करने की कोशिश करना। किसी अन्य व्यक्ति के यौन शोषण से आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक लाभ उठाना भी इसी परिभाषा में शामिल है लेकिन यह केवल इसी तक सीमित नहीं होता। (यौन शोषण और दुर्व्यवहार से सुरक्षा पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव का बुलेटिन (PSEA) (ST/SGB/ 2003/13)

रोचक बात यह है कि यद्यपि सेक्स वर्क का सन्दर्भ देने या इसकी व्याख्या करने वाले हर अभिलेख में ‘शोषण’ शब्द प्रयुक्त होता है, फिर भी वैश्विक समुदाय ‘शोषण’ की किसी एक परिभाषा पर एकमत नहीं हो पाया है और इसीलिए इसके अर्थ को सही-सही समझ पाने में सैद्धांतिक और शाब्दिक असमंजस बना हुआ है।

क्या धंधा हिंसा है?

किसी पुलिसवाले द्वारा किसी आदिवासी महिला का बलात्कार कर दिए जाने पर हर कोई क्षुब्ध हो जाता है। लेकिन अगर वही महिला सेक्स वर्कर हो तो कोई भी इसे बलात्कार मानने को तैयार नहीं होता। अगर किसी महिला की हत्या हो जाती है तो इसे हत्या कर मामला माना जाता है, लेकिन अगर वही महिला सेक्स वर्क से जुडी हो तो इस हत्या को ‘प्राकृतिक मृत्यु’ समझ लिया जाता है – मानो कि सेक्स वर्क से जुड़े होने पर हत्या हो जाना तो स्वाभाविक परिणाम हो। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सेक्स वर्क में लगी महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा को महिलाओं के विरुद्ध हिंसा क्यों नहीं माना जाता?

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इसके कारण हमारी सामजिक संरचना में गहरे जुड़े हुए हैं। इनमे पितृसत्तात्मक विभाजन के तहत महिलाओं को ‘अच्छी’ और ‘बुरी’ महिला के रूप में बांटा गया है; ‘वेश्या’ होने का कलंक जो सेक्स वर्क से जुडी महिलाओं को दूसरी सभी महिलाओं से अलग करता है; और यह मान्यता कि सेक्स वर्क अपने आप में ही हिंसक है। हमारी यह सामाजिक व्याख्या ‘कलंकित कर हिंसा करने’ के रूप में परिलक्षित होती है।

जो महिलाएं पितृसत्तात्मक व्यवस्था और समाज के नियमों का पालन करती हैं उन्हें समाज ‘अच्छी महिलाओं’ के रूप में देखता है और ‘अच्छी महिला’ होने के नाते (केवल महिला होने के नाते नहीं) उन्हें समाज में कुछ विशेषाधिकार मिलते हैं। यही पितृसत्तात्मक व्यवस्था उन महिलाओं को, जो विषम-लैंगिक संबंधों का पालन नहीं करतीं, एकल हैं, यौन रूप से सक्रिय हैं, लेस्बियन हैं या सेक्स वर्क से जुडी हैं, ऐसी ‘बुरी महिलाओं’ के रूप में देखती है जो पैसे कमाने या मज़े करने के लिए विवाह संबंधों के बाहर सेक्स करती हैं। जब किसी ‘बुरी महिला’ का बलात्कार होता है या उस पर आक्रमण किया जाता है, तो ऐसे में समाज इसे  बलात्कार के रूप में नहीं देखता – समाज के नियमों के विरोधी के विरुद्ध किसी भी तरह के दुर्व्यवहार को आपराध नहीं समझा जाता।

सेक्स वर्क से जुडी महिलाएँ सीधे-सीधे ही ‘बुरी महिलाओं’ के श्रेणी में आ जाती हैं। रोचक बात यह है कि, हालांकि ‘वेश्याओं’ को यूँ तो पीड़ित समझा जाता है, लेकिन दूसरी ओर उन्हें व्यभिचारिणी (यौन रूप से स्वछंद), पथभ्रष्ट (सेक्स वर्क से अनैतिक रूप से पैसा कमाने वाली) और कमज़ोर नैतिक चरित्र वाली भी समझा जाता है। ‘वेश्याओं को बुरा समझने वाली इस मान्यता में ऐसी ‘बुरी महिलाओं’ को दुश्चरित्र मान समाज के अच्छे चरित्र पर उनके कारण पड़ने वाले ‘बुरे असर’ पर ज़ोर दिया जाता है; उन्हें ऐसी महिलाएं करार दिया जाता है जो समाज के मान्य आचरण को छोड़ गलत आचरण करती हैं। लोगों की सोच, उनकी राय, सामाजिक नीतियाँ और कानून हमेशा ही इन बुरी, गलत और दुश्चरित्र महिलाओं से प्रभावित होते रहे हैं। इसलिए इन महिलाओं पर कानून का पहरा रहता है, उन्हें डराया धमकाया जाता है और दबिश की जाती है ताकि उन्हें उस समाज द्वारा मुक्त कराया जा सके, सुधारा जा सके और पुनर्वासित किया जा सके जो उनके जीवन की दिशा बदल सके और उनके जीवन पर नियंत्रण बना सके।

क्या धंधा ट्रैफिकिंग है?

‘सेक्स वर्क’ को एक हिंसक कृत्य समझने के कारण समाज सेक्स वर्क में होने वाली रोज़मर्रा की हिंसा को हिंसा नहीं मानता। ट्रैफिकिंग और सेक्स वर्क के साथ जुड़ जाने से यह परिस्थिति और भी जटिल बन जाती है और यह विचार अधिक पुख्ता हो जाता है कि सेक्स वर्क अपने आप में एक हिंसक कार्य है। फिर इससे अंतर नहीं पड़ता कि ट्रैफिकिंग की पीड़ित लड़कियां अगुवा की जाती हैं या खरीदी जाती हैं, आपराधियों के माध्यम से लायी जाती हैं या फिर उन्हें प्यार या दोस्ती के नाम पर फुसला कर लाया जाता है।

इस तरह की सोच में यह माना जाता है कि सभी सेक्स वर्क करने वालों को जबरन इस काम में लगाया जाता है और यह कि सेक्स के बदले पैसा लेना यौन शोषण और यौन हिंसा के सामान ही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी परिस्थिति में, भले ही वह यौनिक हो या कुछ और, किसी भी तरह का बल प्रयोग करना हिंसा ही है। लेकिन यह मान लेना कि हर सेक्स वर्क जबरन ही कराया जाता है या कि यह हिंसक होता ही है, इसका परिणाम यह होता है कि सेक्स वर्क करने वालों के साथ होने वाली हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता।  ऐसे में जब सेक्स वर्क करने वाली महिला और उसके ग्राहक के बीच के हर यौनिक समागम को बलात्कार मान लिया जाता है तो महिला के साथ वास्तव में बलात्कार होने की कोई गुंजाईश ही नहीं रह जाती।

क्या धंधा अपनी मर्ज़ी से किया जाता है?।

यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि धंधा अपनी मर्ज़ी से किया जा रहा है या जबरन करवाया जा रहा है। यहाँ मुद्दा ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ के बीच चुनाव का है। अच्छी महिला/बुरी महिला के रूप में महिलाओं को वर्गीकृत किये जाने और समाज में नैतिकता को प्रमुखता देने के बाद इस अच्छे या बुरे के बीच चुनाव करने का सारा दोष सेक्स वर्क में लगी महिला के माथे मढ़ दिया जाता है। और सेक्स वर्क से जुडी महिलाओं को न चाहते हुए भी यह चुनाव करना ही पड़ता है कि वे ‘अच्छी’ बने या ‘बुरी’। एक बार (समाज की मान्यताओं और नैतिकता की परवाह न कर) बुरी बनने का फैसला कर लेने पर उनके लिए वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होता। ऐसा कर लेने पर उनके मन में यह भाव भी उठता है कि उन्होंने समाज की बेड़ियों को तोड़ फेंका है और तब उनका यह बुरा बनना ही उनकी पहचान बन जाता है। समाज उनके बुरे बनने के इस निर्णय को कभी माफ़ नहीं करता और यह मान लिया जाता है कि उन्होंने औरत होने की नैतिक मर्यादा का उल्लंघन किया है। सेक्स वर्कर के साथ हिंसा और उन्हें कलंकित कर दिया जाना ही इस गलती की सज़ा होता है।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था और समाज के नियमों का पालन करती हैं उन्हें समाज ‘अच्छी महिलाओं’ के रूप में देखता है|

सेक्स वर्क को कलंकित कर दिए जाने में निहित हिंसा में सेक्स वर्क से जुड़े लोगों की वास्तविकता, विशेषकर सेक्स वर्क में लगी महिलाओं के अनुभवों की सच्चाई को स्वीकार नहीं किया जाता। इन महिलाओं की आवाज़ कोई नहीं सुनता, उनको आवाज़ उठाने ही नहीं दी जाती; सुनना तो दूर की बात है। क्या यह भी उनके साथ हिंसा नहीं है? सेक्स वर्क को कलंकित कर दिए जाने वाली हिंसा, वास्तव में, मुख्य कारण है जिसकी वजह से इसमें लगी महिलाएं अपने बहुत से अधिकारों को नहीं पा सकतीं। सेक्स वर्कर संगठन VAMP की सेक्स वर्कर महिलाओं का कहना है कि, ‘हम अपने रोज़मर्रा के जीवन में हिंसा का सामना करती हैं, और वह समाज हमारे प्रति और अधिक हिंसा कर हमें इसके लिए दण्डित करता है और हमारे जीवन और जीवन जीने के तरीके पर अपना नियंत्रण बनाना चाहता है’। ‘सेक्स वर्क में लगी हम महिलाएं उस समाज का विरोध करती हैं जो हमारे बारे में फैसला ले लेने के अपने रवैये से हमारे साथ और अधिक हिंसा करता है’। इसलिए VAMP संगठन का कहना है कि ‘हम कलंकित किये जाने की इस हिंसा का मुकाबला करने का माद्दा रखते हैं, और आदर के साथ जीवन जीने की इच्छा रखने का भी दम भरते हैं’।

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सेक्स वर्क को केवल अच्छे या बुरे, नैतिक या अनैतिक काम के रूप में देखे जाने की आवश्यकता हैं। बल्कि इसे जीवन जीने के एक ऐसे तरीके के रूप में देखा जाना चाहिए जिसमे कई तरह की हिंसा, पीड़ित होने के अनुभव, स्वायत्तता और गठजोड़ शामिल है। जब तक सेक्स वर्क के सूक्ष्म भेद को नहीं देखा जाता या जब तक सेक्स वर्क से जुडी महिलाओं को एक ऐसे कामकाजी समूह के रूप में नहीं देखा जाता जिनका जीवन उनके द्वारा दी जाने वाली सेक्स सेवायों पर निर्भर करता है, तब तक सेक्स वर्क में लगी महिलाओं की ज़िन्दगी से जुडी समस्याओं को अर्थपूर्ण तरीके के हल कर पाने का कोई रास्ता नहीं निकल पायेगा।


इस लेख को सोमेन्द्र कुमार ने अनुवादित किया है|यह लेख इससे पहले तारशी (हिंदी) में प्रकाशित हो चुका है, जिसे मीना सरस्वती सेषु व आरती पई ने लिखा|

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