इंटरसेक्शनलयौनिकता भारतीय समाज की ‘शर्म’ सिर्फ एक ‘भ्रम’ है

भारतीय समाज की ‘शर्म’ सिर्फ एक ‘भ्रम’ है

पोर्न उद्योग के विस्फोटक विकास के सामाजिक कारणों और परिणामों पर अब हमें विस्तार से विचार करने की ज़रूरत है।

पोर्न उद्योग के विस्फोटक विकास के सामाजिक कारणों और परिणामों पर अब हमें विस्तार से विचार करने की ज़रूरत है। कच्चा मन खुद के शरीर और विपरीत लिंग के विषय में कई सवालों से भरा है| सवाल सुनकर केवल उसे झिड़क, डांट या दो-चार तमाचे मिलते हों तो मन कुंठा, जुगुप्सा और रहस्य से भरता जाएगा। अपराध रहस्य और कुंठाग्रस्त मनोवृत्ति की बदबूदार कोठरी में यहाँ से शुरू होते हैं। या गलत तरह की पोर्न सामग्री (उत्पीड़न,सामूहिक हिंसा,हार्डकोर अथवा बाल पोर्नोग्राफी) कुछ अशिक्षित,अविवेकी हाथों में पड़ने से अपराध बढ़ रहे हैं। चोरी-छिपे इनकी खरीद, डाउनलोडिंग और इन्हें देखने से अपराधी मनोवृत्ति तो पहले ही उक्त पाठक/दर्शक को घेर चुकी होती है, जिसे हमारे बंद और घुटते समाज में और हवा मिलती है।

सेक्सुअलिटी को लेकर हमारे समाज में जो चुप्पी है, अवसर पाते ही वह बलात्कार, शोषण और यौन-अपराधों की चीख के रूप में सामने आती है। जिज्ञासाएं अदम्य हैं| लेकिन उन पर समाज अनैतिकता-नैतिकता के बंधन कसे हुए है। लिहाजा वे अपने उत्तर खोजने के लिए इन बंधनों के साथ-साथ मानवीयता की भी सारी सीमाएं तोड़ते हुए रास्ते खोजती हैं। यह चुप्पी ही वह जगह है जहां औरतों पर शारीरिक हमले, बलात्कार और यौन-शोषण के नर्क बनाए जाते हैं।

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सह-संबंध और करणीय में बड़ा अंतर है। यह दोनों समान नहीं हैं। व्यापक स्तर पर पोर्न सामग्री हमारे बाज़ार में पसरी हुई है। दरियागंज और चाँदनी चौक सरीखे दिल्ली शहर के कई प्रमुख बाज़ार हैं, जहाँ दुकानदार फुसफुसाते हुए 150-200 रुपये में आपका 2 GB कार्ड ‘फुल’ कर देते हैं। पालिका बाज़ार में भी ‘ब्लू फिल्में’ आसानी से ग्राहक की जेब के अन्दर आ सकती हैं। साल 2008 में ‘सविता भाभी’ शीर्षक से पहला भारतीय पोर्नोग्राफिक कार्टून बाज़ार में आया, जिस पर एक पूरी फिल्म मई 2013 में ऑनलाइन रिलीज़ की गई है। पोर्न के असीम विस्तार के पीछे बाज़ार में पोर्नोग्राफिक संस्कृति के उभार की अनदेखी करना संभव नहीं है।

सेक्सुअलिटी को लेकर हमारे समाज में जो चुप्पी है, अवसर पाते ही वह बलात्कार, शोषण और यौन-अपराधों की चीख के रूप में सामने आती है।

आज ‘गूगल सर्च इंजन’ पर सब कुछ केवल एक ‘क्लिक’ की दूरी पर है। इंटरनेट एक खुली चुनौती है, जिससे युवा सिर्फ नौकरियाँ ही नहीं खोज रहे हैं, बल्कि उन रहस्यों को भी खोल रहे हैं, जिन पर बात करने की हमारे समाज में मनाही है। नब्बे के दशक से इंटरनेट दैनिक जीवन का हिस्सा बनता गया। इसके पहले पोर्न केवल एडल्ट स्टोर्स (जोकि चोरी-छिपे इन्हें बेचते थे) तक सीमित था। पर इंटरनेट के आने से पोर्न की सुलभता में भारी विस्फोट हुआ है। बची-खुची कसर 3G और स्मार्टफ़ोन्स से पूरी हो गई है। जिसने इनके दर्शक समूह के नितांत एकांत की समस्या को भी हल कर दिया है।

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इन सामग्रियों की पहुँच के ज़रिये इनके रूप और भी बदले हैं। उद्योग चलाने के नए-नए उपाय हर क्षेत्र मैं खोजे जाते हैं और पोर्न के क्षेत्र में यह उपाय ‘हिंसा’ से खोजा गया है। बाज़ार स्पर्धा का दूसरा नाम है। पोर्नोग्राफी के साथ भी ऐसी ही हालत है, जहाँ नैतिक, मानवीय और प्राकृतिक सभी मूल्यों को बहुत पीछे छोडते हुए नए-नए गति-विज्ञान रचे जा रहे हैं। महिलाओं का उत्पीडन, सामूहिक-हिंसा, जानवरों और बच्चों से संबंधित पोर्नोग्राफिक सामग्री बाज़ार के इसी गति-विज्ञान की देन है।

इसी का नतीजा है कि आज अधिक हिंसक और दूसरों को कष्ट देने वाले दृश्य महज़ दो क्लिक् दूर हैं| स्कूली शिक्षा बहुत बड़ी चुनौती का सामना कर रही है। नैतिकता के पाठ एक जगह हैं और बच्चों की सहज जिज्ञासाएँ दूसरी जगह। यही जिज्ञासाएँ बढती उम्र के साथ जब शांत नहीं की जाती तो कुंठित मनोवृत्तियों का रूप लेने लगती हैं, जिनसे जन्म होता है एक हिंसक चरित्र का। इसलिए पारंपरिक स्कूली-शिक्षा में आज कुछ बदलावों की ज़रुरत है। शुरू से ही बच्चों को आपसी संबंधों का गरिमामय रूप दिखाना और यौन-शिक्षा को स्कूली शिक्षा अनिवार्य हिस्सा बनाना होगा।

परिवारों में जहाँ बच्चों कि स्थिति इस स्तर तक सोचनीय है, वहीँ महिलाओं कि बदहाली कि भी कोई सुनवाई नहीं है।

लम्बे समय से हम सभी स्त्रियों के साथ बढ़ते हुए हिंसक अपराधों पर बहस कर रहे हैं। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार का कारण स्त्रियों की ही गतिविधियों में, उनके घर से बाहर निकलने, कपड़ों के मीटर-सेंटीमीटर में खोजे जा रहे हैं। महिलाओं के साथ बढ़ते अपराधों को इस तर्क-कुतर्क के बाद समझने का प्रयास किया भी जाए तो बाल अपराधों को कैसे समझा जाए ? बाल-शोषण भी उतनी ही गम्भीर समस्या है। यूनिसेफ कि रिपोर्ट यह दावा करती है कि भारत में 5-12 साल की उम्र का हर दूसरा बच्चा शोषण का शिकार है। सबसे अधिक मामलों में यह शोषण अभिभावकों व परिजनों ही करते हैं  जिसके चलते 70 फीसद मामले दब के रह जाते हैं।

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परिवारों में जहाँ बच्चों कि स्थिति इस स्तर तक सोचनीय है| वहीं महिलाओं की बदहाली की भी कोई सुनवाई नहीं है। घूँघट,बुर्खे और परदे कि ओट में वे सुरक्षित हैं, यह केवल पुरुषों द्वारा स्त्रियों के लिए रचा गया एक भुलावा है। जिसकी चक्करदार गलियों में लगभग हर घर के भीतर विवाह पूर्व या पश्चात उनके साथ दुष्कर्म हो रहे हैं। विवाह के बाद होने वाले बलात्कार भारतीय समाज का एक सच हैं। यह परिणाम है उस खोखले होते समाज का, जिसका ‘पर्दादार’ होना अब केवल उसका भ्रम है।


यह लेख नीतू तिवारी ने लिखा है, जिसे इससे पहले मेरा रंग में प्रकाशित किया जा चुका है|

तस्वीर साभार : lovemyall

Comments:

  1. Mahesh Verma says:

    Is samaj ke logon ki ese vikrati manskita Dekh Kar tars ATA hai.kya yahi wo samaj hai. Jo kaam vasana SE upar kabhi Kuch sonch hi nhi pa rah hai. Jo nari hamere desh ki Adarsh thi aaj wo vasana me lipt hai. Isaka karn hai Adhyatm SE door .naitikata Ka patn Isaka Karna hai mansik vikrati. Aaj samaj sidha patan ki or Ka Raha hai. Irani nichata is samaj ko kis khade me lekar jiregi sonch bhi Nahi sakte ho. samaj me Jo gandagi faili hai. Iska jimmeder parents Hain .jinako Apne bachon me Dosh dikhai nhi dete.aaj ager bacchon ko Sahi sanskar diye jayen to samaj ka ek Naya roop Diya ja Sakta hai.
    Ager parents Apne bachon ko adhytamik shiksha Ka ghyan karya Jaye to sudhar mumkin hai.nhi to Rog mahilyo Ka Rona Kabhi Nahi sudhar sakta.aane wali bhvi generation Ka nirman parents hi to Kar rahe hai. To sudharo APNI and wali santano ko .kyon Rona rote firte. Jo Kuch nhi Kar sakte Sarkar SE surksha adhikar ki maang karte Hain
    Kara bato Sarkar kis kis ke peeche police lagayegi. APNI surksha Apne aap Karo.. karma is superior .jesa karm waisa phal.

  2. प्रीति कुमारी says:

    Feminism india कभी बुरका, खतना , मेवात में बकरी के साथ दुराचार,हलाला , मुताह , बहुविवाह , मुस्लिम समाज में पितृ सत्ता आदि पर क्यों नहीं लिखती

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