बच्छांव गांव की बच्चियों से मैं पहले भी मिली थी। उनसे महिला अधिकार और माहवारी जैसे विषयों पर चर्चा भी की थी और साथ मिलकर कई जागरूकता रैलियों का आयोजन भी किया था। लेकिन उस दिन जब एक कार्यक्रम में मैं बच्चियों से मिली तो उनके व्यवहार में काफ़ी कुछ बदला लगा। किशोरी महोत्सव के उस कार्यक्रम में बच्चियां उत्साहित नहीं बल्कि बेहद सयंमित लगी। तभी मंच से चर्च के फादर ने बच्चियों को संबोधित करते हुए कहा –
‘तुम्हारा पिता कौन है?’
बच्चियों ने एक सुर में ज़वाब दिया – ‘फादर आप।’
फादर ने फिर कहा ‘तुमलोग किसकी बात मानोगी? और किसके बताए रास्ते पर चलोगी?
बच्चियों ने फिर एकसाथ ज़वाब दिया – ‘फादर आपके।’
फिर कार्यक्रम के दौरान पता चला कि दलित जाति से ताल्लुक़ रखने वाले इन बच्चियों के परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया है। कहने को तो धर्म एक बेहद निजी विषय है, ये आपके विचार और सहमति पर निर्भर है। लेकिन ये क़तई नहीं भूलना चाहिए कि ये उतना ही राजनीतिक भी है, जिसके आधार पर दुनिया की ढेरों लड़ाई लड़ी गई। इस कार्यक्रम के बाद जब एक दिन इस गांव में फिर जाना हुआ तो परिवारों से ईसाई धर्म अपनाने के संदर्भ में बात हुई, जिसमें महिलाओं ने कहा कि ‘अपने धर्म में हमलोगों को कोई सुविधा नहीं थी। लेकिन इसमें हमलोगों को हर तरह की मदद मिलती है। इसलिए हमलोग हर संडे प्रार्थना में भी जाते है।’ उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को देखते हुए उनके बताए संदर्भों पर उनके तर्क सही भी थे। क्योंकि उनके घर चूल्हा जल रहा है या नहीं इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था। लेकिन अब कम से कम उन्हें अपनी दो जून की रोटी के लिए सोचना नहीं पड़ता है। हां ये अलग बात है कि अब गांव में महिलाओं और किशोरियां माहवारी या महिला अधिकार की चर्चा में नहीं बल्कि प्रार्थना में जाने लगी है।
धर्म के नाम चाहे भले ही अलग हो। लेकिन महिलाओं के संदर्भ में मूल एक ही – महिलाओं की चेतना को मारकर उन्हें अपना वाहक बनाना। बेशक अपनी ज़रूरत के हिसाब से धर्म चुनने के बाद परिवार भूखे नहीं मरेंगे, लेकिन इसका दूसरा पहलू ग़ुलामी का भी है जिसकी बेड़ियां महिलाओं और उन बच्चियों पर कसी गई। उन्हें तमाम आडम्बरों से न केवल समझाया गया बल्कि उनके व्यवहार में भी लाया गया कि वे ईश्वर को नहीं बल्कि बिचौलियों को अपना मालिक माने। उनके कहे अनुसार चले और व्यवहार करें।
ये वो ज़मीनी हक़ीक़त है जिसे हम देखना नहीं चाहते या ये हमें दिखाई ही नहीं देता, क्योंकि इसमें कुछ नया है ग़रीबी और जातिगत भेदभाव का फ़ायदा उठाकर धर्म की रोटियाँ सेंकी जाती रही है और आज भी सेंकी जा रही है। बाक़ी ये सभी जानते है पेट धर्म से नहीं खाने से भरेगा। इसलिए जो धर्म या विचार उनका पेट भरेगा और उन्हें सम्मान देगा हम उसी तरफ़ होंगें।
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धर्म में ‘महिलाएँ’ या महिलाओं पर ‘धर्म ?’
पर अब सवाल आता है धर्म में महिलाओं का। अब हम चाहे किसी भी धर्म का विश्लेषण करें, उसमें महिलाओं की स्थिति एक समान ही पाते है। हर धर्म में पूजा, प्रार्थना, व्रत, उपवास या फिर उसके चिन्हों को अपनाना सब महिलाओं के ज़िम्मे होता है। धर्म के नामपर उनकी यौनिकता को भी अलग-अलग माध्यमों से जकड़ा जाता है। मतलब पोषक और संचालक की भूमिका में हमेशा महिला को रखा जाता है पर अपने जेंडर के आधार पर भेदभाव भी महिलाएं ही झेलती है, क्योंकि धर्मों की नींव पितृसत्तात्मक सोच पर रखी गई है। आख़िर ये पितृसत्तात्मक सोच ही तो है जिसने गांव की छोटी बच्चियों की चेतना को ख़त्म कर फादर को शीर्ष पर रख दिया।
हमारे समाज में महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव और उनपर पितृसत्तात्मक सोच का थोपा जाना मानो हर धर्म में सार्वभौमिक है।
फादर के सवाल करते ही सभी बच्चियों का एक सुर में ज़वाब देना ये बतलाता है कि एक विचार को उनके मन में बेहद कम समय में कितनी गहराई से बैठाया गया है कि अब वे व्यवहार में इसे जीने लगी है। बेशक किसी विशेष धर्म से ताल्लुक़ रखने पर कुछ फ़ायदे हो सकते हैं, हमारे समाज में महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव और उनपर पितृसत्तात्मक सोच का थोपा जाना मानो हर धर्म में सार्वभौमिक है। इसलिए बेहद ज़रूरी है कि महिलाओं के संदर्भ में धर्म की राजनीति के हर पहलू को खोला जाए। वो पहलू जो महिलाओं के दमन और विशेषाधिकार के क़िस्से किन्हीं चिन्हों के आधार पर निर्धारित करते है। जो एक तरफ़ को महिलाओं को अपना सशक्त वाहक बनाते है लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ उनके साथ लैंगिक भेदभाव भी करते है।
चर्चा में सीमित धर्म ही क्यों?
अपने भारतीय परिवेश में सोशल मीडिया के माध्यम से विचारों के आदान-प्रदान में काफ़ी तेज़ी आयी है। क्रिया-प्रतिक्रिया-सकारात्मक-नकारात्मक सभी की चाल तेज है। शायद यही वजह है कि महिलाओं के संदर्भ में ‘धर्म’ के विषय पर भी चर्चा पहले से बढ़ने लगी है। धर्म विशेष में महिलाओं की स्थिति पर विश्लेषण-चिंतन हो रहा है। लेकिन अभी भी ये दायरा बेहद सीमित है, जिसे बढ़ाने की ज़रूरत है। क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि जिस वक्त हम किन्हीं दो या तीन धर्म में महिलाओं के शोषण और लैंगिक भेदभाव व हिंसा पर विचार कर रहे हों ठीक उसी वक्त कोई चौथे नाम का धर्म अपनी पितृसत्तात्मक सोच की जड़ें मज़बूत कर रहा हो।
मैं किसी धर्म -विशेष के ख़िलाफ़ नहीं हूं। लेकिन हाँ मैं ख़िलाफ़ हूं धर्म की पितृसत्तात्मक सोच के। वह सोच जो लैंगिक भेदभाव करती है, वो सोच को अपने वाहकों को विशेषाधिकार और अन्य के हिस्से दमन लिखती है। इसलिए अब समय है इस बात पर चिंतन करने का हमारे समाज में महिला का धर्म क्या है और क्या वाक़ई में महिलाओं को इसकी ज़रूरत है?
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