“कहां है भारत की वह महान नारी, वह पवित्रता की देवी सीता, जिसके कमल जैसे नाजुक पैरों ने आग के शोलों को ठंडा कर दिया और मीराबाई जिसने बढ़ कर भगवान के गले में बाहें डाल दीं। वह सावित्री जिसने यमदूत से अपने सत्यवान की जीवन-ज्योत छीन ली। रजिया सुल्ताना जिसने बड़े-बड़े शहंशाहों को ठुकरा कर एक हब्शी गुलाम को अपने मन-मंदिर का देवता बनाया। वह आज लिहाफ में दुबकी पड़ी है या फोर्स रोड पर धूल और खून की होली खेल रही थी।”
यह वक्तव्य है लेखिका इस्मत चुगताई उर्फ ‘उर्दू अफसाने की फर्स्ट लेडी’ का। जिन्होंने महिला सशक्तीकरण की सालों पहले एक ऐसी बड़ी लकीर खींच दी, जो आज भी अपनी जगह कायम है। उनकी रचनाओं में स्त्री मन की जटिल गुत्थियां सुलझती दिखाई देती हैं। महिलाओं की कोमल भावनाओं को जहां उन्होंने उकेरा, वहीं उनकी गोपनीय इच्छाओं की परतें भी खोलीं। इस्मत ने समाज को बताया कि महिलाएं सिर्फ हाड़-मांस का पुतला नहीं, उनकी भी औरों की तरह भावनाएं होती हैं। वे भी अपने सपने को साकार करना चाहती हैं।
पंद्रह अगस्त, 1915 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मीं इस्मत चुगताई को ‘इस्मत आपा’ के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुसलिम तबके की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई, पर जवान होतीं लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है।
इस्मत चुगताई ने महिलाओं के सवालों को नए सिरे से उठाया, जिससे वे उर्दू साहित्य की सबसे विवादस्पद लेखिका बन गर्इं। उनके पहले औरतों के लिखे अफसानों की दुनिया सिमटी हुई थी। उस दौर में तथाकथित सभ्य समाज की दिखावटी-ऊपरी सतहों पर दिखते महिला-संबंधी मुद्दों पर लिखा जाता था, लेकिन इस्मत ने अपने लेखन से आंखों से ओझल होते महिलाओं के बड़े मुद्दों पर लिखना शुरू किया। उनकी शोहरत उनकी स्त्रीवादी विचारधारा के कारण है। साल 1942 में जब उनकी कहानी ‘लिहाफ’ प्रकाशित हुई तो साहित्य-जगत में बवाल मच गया। समलैंगिकता के कारण इस कहानी पर अश्लीलता का आरोप लगा और लाहौर कोर्ट में मुकदमा भी चला। उस दौर को इस्मत ने अपने लफ्जों में यों बयां किया-
‘उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया। ‘लिहाफ’ से पहले और ‘लिहाफ’ के बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गई। ये तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है। मैं खुश हूं कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए। मंटो को तो पागल बना दिया गया। प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया। मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया। मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था। मैं बहुत खुश और संतुष्ट थी। फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और साहित्यिक मौत या जिंदगी की परवाह नहीं थी। ‘लिहाफ’ का लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है। जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी। ‘लिहाफ’ मेरी चिढ़ बन गया। जब मैंने ‘टेढ़ी लकीर’ लिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी। उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को ‘लिहाफ’ ट्रेड का बना दूं। मारे गुस्सा के मेरा खून खौल उठा। मैंने वह उपन्यास वापस मंगवा लिया। ‘लिहाफ’ ने मुझे बहुत जूते खिलाए थे। इस कहानी पर मेरी और शाहिद की इतनी लड़ाइयां हुर्इं कि जिंदगी युद्धभूमि बन गई।’
इस तरह इस्मत को समाज की निर्धारित लेखन-धारा से हट कर लिखने की जुर्रत का खमियाजा सामाजिक, मानसिक और आर्थिक क्षति से भरना पड़ा। इन सबके बावजूद इस्मत ने माफी न मांग कर कोर्ट में लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। उनके भाई मिर्जा अजीम बेग चुगताई प्रतिष्ठित लेखक थे। वे इस्मत के पहले शिक्षक और ‘मेंटर’ भी रहे। 1936 में जब इस्मत बीए में थीं, लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ सम्मेलन में शरीक हुई थीं। बीए और बीएड करने वाली वे पहली भारतीय मुसलिम महिला थीं। रिश्तेदारों ने उनकी शिक्षा का विरोध किया तो उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत में कुरान के साथ गीता और बाइबिल भी पढ़ी। महिला लेखकों में उनकी जगह पूरे उप-महाद्वीप में बहुत ऊंची है।
इस्मत पर प्रारंभिक दौर में हिजाब इम्तियाज अली और डा. रशीद का प्रभाव देखा जा सकता है। वे हमेशा सामंती और कठोर-अत्याचारी आवाजों के विरुद्ध रहीं। उनके पात्रों की तुलना मंटो से की जाती है। उर्दू में मंटो और इस्मत बेमिसाल लेखक हैं। समाज के ठेकेदारों की इन दोनों ने ऐसी-तैसी की।
इस्मत प्रबुद्ध, निर्भीक, रुढ़िभंजक और प्रगतिशील कथाकार है। उर्दू के आलोचक उनकी जिन कहानियों को ‘सेक्सी’ कहते हैं, वे सही अर्थ में ‘समाजी लड़खड़ाहटों की कहानियां’ है। उनके ऊपर डीएच लारेंस, फ्रायड और बर्नार्ड शॉ का भी प्रभाव है। चोटें, कलियां और छुई-मुई उनके अफसानों के संग्रह हैं, जो उपन्यासों से कहीं अधिक कहानियों में प्रभावशाली है।
स्त्रीवादी विचार उनके यहां तब देखने को मिला, जब इस उपमहाद्वीप में उसका आगमन नहीं हुआ था। ‘टेढ़ी लकीर’ को उर्दू उपन्यासों में अच्छा दर्जा मिला। ‘कागजी है पैरहन’ संस्मरण है और ‘दोजख’ नाटकों का संकलन। उन्होंने अपनी और मुसलमान, दोनों की छवि तोड़ी। ऐतिहासिक उपन्यास ‘एक कतरा खून’ में हुसैन के नेतृत्व में कर्बला के मैदान में हक के लिए लड़ी गई लड़ाई है, जहां उनकी आवाज इंसानियत की आवाज है, जो आज कम सुनाई देती है।
इस्मत ने आज से करीब सत्तर साल पहले पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। उनके अफसानों में औरतें अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती हैं।
साहित्य और समाज में चल रहे स्त्री विमर्श को इस्मत आपा ने आज से सत्तर साल पहले ही प्रमुखता दी थी। इससे पता चलता है कि उनकी सोच अपने समय से कितनी आगे थी। उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री चरित्रों को बेहद संजीदगी से उभारा। इसी कारण उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं। स्त्रियों के सवालों के साथ ही उन्होंने समाज की कुरीतियों अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उनके सभी अफसानों में करारा व्यंग्य मौजूद है।
उनकी पहली कहानी गेंदा अपने दौर की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका ‘साक़ी’ में 1949 में छपी। पहला उपन्यास जिद्दी 1941 में आया। उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा लिखी। फिल्म जुगनू में अभिनय भी किया। उनकी पहली फिल्म छेड़छाड़ 1943 में आई। इस्मत कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। उनकी आखिरी फिल्म गर्म हवा (1973) को कई पुरस्कार मिले।
कोई दो राय नहीं कि इस्मत चुगताई स्त्री मन की चितेरी हैं। उन्होंने तत्कालीन दौर की महिलाओं की दशा-दुर्दशा को बखूबी समझा और उसे समाज के सामने पूरी संजीदगी से रखा। वे धर्म-समुदाय से ऊपर उठ कर सोचती थीं। इसलिए वे अपनी रचनाओं में बेहद उदार और ‘बोल्ड’ लगती हैं। रूढ़िवादियों को उनकी रचनाएं अखरती हैं तो क्या? उनकी बला से।
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