इंटरसेक्शनलजेंडर ‘बाहर रहकर लड़कियां पढ़ाई नहीं अय्यासी करती है’

‘बाहर रहकर लड़कियां पढ़ाई नहीं अय्यासी करती है’

ये कुछ ऐसी बातें हैं जो अक्सर समाज व नाते-रिश्तेदार, उन माता-पिता से करते पाए जाते हैं जो अपने बेटे-बेटी में बिना फर्क किए, बेटियों को आगे बढ़ने और पढ़ाई करने के लिए अपने घर से दूर भेजते हैं।

आधुनिकता के इस दौर में महिलाएं हर क्षेत्र में जमाने के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहीं है, फिर बात चाहे शिक्षा की हो या नौकरी की, खुद का व्यवसाय स्थापित करने की हो या गृहस्थी बसाने की, वे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है। अब इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज के अलग-अलग क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, इसी तरह एक सच यह भी है कि आज भी महिलाओं के लिए यह सफर आसान नहीं है।

बात चाहे गृहस्थी बसाने के साथ अपनी नौकरी को मैनेज करने की हो या सफल भविष्य के लिए घर-परिवार से दूर रह कर पढ़ाई करने की हो पितृसत्ता अलग-अलग रूप लिए उनके रास्ते में रोड़ा बन कर तनी नज़र आती है। इस बात का अंदाज़ा इन कुछ उलाहनों से लगाया जा सकता है –

‘घर से बाहर पढ़ने गई है, न जाने पढ़ाई के नाम पर क्या-क्या गुल खिला रही होगी।’

‘बाहर रह कर लड़कियां पढ़ाई नहीं, अय्याशी करती हैं।’

‘हॉस्टल में न जाने कैसे-कैसे कपड़े पहनती होगी। क्या पता नशा भी करती हो।’

‘हॉस्टल में रह कर पढ़ाई पूरी की है तो खाना पकाना थोड़े ही जानती होगी और न कोई तौर-तरीका होगा|’

ये कुछ ऐसी बातें हैं जो अक्सर समाज व नाते-रिश्तेदार, उन माता-पिता से करते पाए जाते हैं जो अपने बेटे-बेटी में बिना फर्क किए, बेटियों को आगे बढ़ने और पढ़ाई करने के लिए अपने घर से दूर भेजते हैं। निरंतर अलग-अलग रूप लिए इन उलाहनों से न केवल माता-पिता का बल्कि उनकी बेटी का मनोबल भी प्रभावित होता है।

आज हर क्षेत्र में महिलाएं अपनी सफलता का परचम लहरा रही हैं, लेकिन इसके विपरीत ऐसी कई महिलाएं भी हैं, जिन्हें समाज के इन उलाहनों के समाने घुटने टेकने को मजबूर करते हुए, समाज के अनुसार महिला की गढ़ी परिभाषा में ढाल दिया जाता है।

बात की जाए मध्यमवर्गीय परिवारों की तो यहां इस तरह की समस्याओं से हर दूसरा परिवार जूझता नज़र आता है। ये अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं, जिसके लिए अपने खर्चों में कटौती कर पैसों की बचत करते हैं और बेटी को काबिल और कामयाब बनाने के लिए अच्छे से अच्छे शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई करने भेजते हैं। दुर्भाग्यवश, ऐसे परिवारों को लगातार समाज के इन तंजों से भी दो-चार होना पड़ता है, जिससे एक दिन थक-हार कर उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है और वे इससे बचने के लिए अलग-अलग उपाय करने लगते हैं।

‘बहुत उम्मीदें है तुमसे, हमारी इज्जत का खयाल रखना’

अपनी हॉस्टल-लाइफ में घर-परिवार से दूर, जब भी कॉलेज से लौटती और शाम के वक्त मां से बात होती, तब फोन रखते वक्त मां यह बात मुझसे ज़रूर कहती-बहुत उम्मीदें है तुमसे, हमारी इज्जत का खयाल रखना। मेरे साथ रहने वाली करीब हर एक लड़की को अपने घर से ऐसी नसीहतें मिलती हैं। कई बार इन सब बातों से इतनी चिढ़ हो जाती। मन होता कि पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर घर में बैठ जाऊं। यह बात एकदम सही है कि अपनों को ही हमेशा आपकी चिंता होती है, जिसके लिए वे आपको हमेशा सलाह देते हैं, पर लड़कियों के सन्दर्भ में ‘इज्जत’ के नाम वाली नसीहतें उन्हें दोहरी पीड़ा देती हैं। एक पीड़ा खुद को ‘इज्ज़त’ की जंजीर में जकड़े होने की और दूसरी, लोगों के विश्वास को खुद पर कायम करने की।

‘पीरियड्स मिस हो गए तुम्हारे? अपना सामान बांधो और तुरंत घर आओ’

यूट्यूब पर लॉस्ट एंड फाउंड की प्रस्तुति ‘स्पोइलड डॉटर’ नामक विडियो अपनी पढ़ाई और करियर के लिए बाहर रहने वाली लड़कियों के संघर्ष को बखूबी दिखाता है। यह विडियो इस बात को दिखाता है किस तरह पीरियड्स मिस होने की बात सुनते ही मां बिना कुछ सोचे-समझे अपनी बेटी को तुरंत घर बुला लेती है। बेटी दिन-रात अपने पंख को उड़ान देने के लिए खूब मेहनत करती है, जिससे न तो उसका समय से खाना हो पाता है न पूरी नींद सोना, जो कि पीरियड्स मिस होने की वजहों में से एक है, पर इन सब बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए मां अपनी बेटी के घर वापस आने पर कहती है कि ‘कितना विश्वास था तुम पर हमें।’

हमारे समाज के लिए वाकई यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बात कि लड़की के पीरियड्स मिस होने को उसकी अस्वस्थता मानने से पहले यह मान लिया जाता कि वह गर्भवती है।

सगाई कर लो फिर पढ़ाई करती रहना

समाज जब अपने उलाहनों से लगातार माता-पिता को यह एहसास दिलाता है कि वे एक बेटी को जमाने के साथ कदम मिलाकर चलाना चाहते है, ऐसे में, ‘ज़माना बहुत खराब है|’, ‘लड़कियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं है|’, ‘आपकी बेटी तो सही है, लेकिन दामन पर दाग लगते देरी थोड़ी-ही लगती है|’ – जैसे तमाम सुझावों वाले उलाहनों से माता-पिता इस बात पर सोचने के लिए मजबूर कर देते है कि वे सुरक्षा के नाम पर कोई पुख्ता इंतजाम अपनी बेटी के लिए| और फिर क्या, शादी एकमात्र उपाय के तौर पर सामने आती है| बिना देर किये रिश्तेदार माता-पिता के सामने लडकों की प्रोफाइलों की लाइनें लगा देते है| जिसके बाद, शादी से इनकार करने पर बेटी को प्यार से यह कहकर मनाया जाता है कि ‘सगाई कर लो, पढ़ाई करती रहना|’

पोस्टिंग अगर अपने शहर में मिले, तभी नौकरी करनी है

यह डिमांड लड़की के पिता या पति दोनों में से किसी की भी हो सकती है| आखिर पितृसत्तात्मक समाज में लड़की का कोई अपना शहर थोड़े ही होता है! एक लड़की और उसके माता-पिता अपने जीवन की अहम पूंजी (समय और पैसे) को खर्च करके अपनी बेटी को इस काबिल बनाते हैं कि वह आत्मनिर्भर बने और उसकी अपनी एक पहचान हो| इस दर्शन के साथ शुरू होता है ‘बेटी पढाओ’ का सिलसिला, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि हर बेटी को अपनी शिक्षा को लागू करने का मौका मिले| लड़कियों के सन्दर्भ में अक्सर यह बात कही जाती है कि लड़कों की बजाय खुद का जीवन रचने का समय लड़कियों को कम दिया जाता है| क्योंकि जब वह पढ़-लिखकर समाज में अपनी एक पहचान बनाने को अग्रसरित होती है, ऐसे में नौकरी की पोस्टिंग से लेकर नौकरी करनी है या नहीं, ये दोनों अहम फैसले पितृसत्ता अपने हाथों में ले लेती है, फिर वह कुंवारी लड़की के पिता ‘सुरक्षा’ के नाम पर लें या शादीशुदा लड़की के ससुराल वाले अपनी सुखद गृहस्थी के नाम पर लें|

बदलाव प्रकृति का नियम है| आधुनिकता के इस दौर में यह सभी को प्रिय भी है| पर रोड़ा इसकी शुरुआत में आ जाता है, जिसे हर इंसान पड़ोसी के घर से शुरू होता देखना चाहता है| इस आधुनिकता ने स्त्रियों को पहले से थोड़ी ज्यादा जगह, थोड़ी ज्यादा स्वीकृति ज़रूर दी है| उससे भी बड़ी बात यह हुई है कि उनके सामने चुनाव के क्षेत्र ज्यादा हैं| पर यह भी सच है कि वे उपेक्षा और अन्याय की भी ज्यादा शिकार हो रही हैं| फिर बात चाहे पीरियड मिस होने पर पढ़ाई रुकवाने की हो या फिर उच्च-शिक्षा की डिग्री पूरी करने के बाद अपने करियर को उड़ान देने के वक़्त पर शादी करवाने की हो| अन्याय-अत्याचार के खिलाफ़ तो लड़ा जा सकता है| महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी-अपनी परिस्थितियों और औकात के हिसाब से लड़ भी रही हैं| अस्वीकार और तिरस्कार भी अपने किस्म की चुनौतियाँ फेंकते रहते हैं| आज ज्यादातर महिलाएं इन्हें भी स्वीकार कर रही हैं| पर उपेक्षा ! यह बड़ी भयानक होती है| न तो उपेक्षा का दर्द कहीं दर्ज हो पाता है और न ही उपेक्षा के खिलाफ़ लड़ाई|

समाज की योजना यह है कि स्त्री दिखे तो आधुनिक, पर रहे परंपरावादी| तभी गैर-बराबरी के उन रिश्तों को कायम रखा जा सकता है, जिनकी बुनियाद पर हमारी सभ्यता का भीतर से खदबदाता महल खड़ा है|

Also read: Why Women In India Are Marching On January 21? #IWillGoOut

Comments:

  1. Good Article…I agree with your thoughts.

  2. Totally True!
    Inspiring! Step for a Change!
    Proud of you!

  3. varun says:

    Maim aap ye khna chahti h Ki parents apne daughter ke bare Mai भला कम बुरा जादा sochati h….?

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