आपदा शब्द सुनते ही जो सबसे पहले हमारे दिमाग में आता हैं, वह है मानवीय पीड़ा| आपदा और मानवीय आजीविका को स्त्री विमर्श से जोड़कर देखने पर जो मुद्दे मेरे सामने है, वही मेरे शोध का आधार हैं| स्त्री समाज की ख़ास इकाई जिसको साहित्य, समाज और विज्ञान में हमेशा प्रकृति का दर्ज़ा दिया गया है| समाजशास्त्रियों, जेंडर के विशेषज्ञों और नारीवादी भी यह मानते है कि औरतें प्रकृति के ज्यादा करीब हैं| स्त्री और प्रकृति के इस सम्बन्ध को समझने का सबसे आसान लहजा है प्रकृति की पूजा से जुड़े त्यौहार और उनमें अगर अपने विषय और शोध-क्षेत्र के करीब से बात करूँ तो पानी से जुड़े पूजा और व्रत ख़ास है जिनमें ललही छठ, डाला छठ, करवा चौथ आदि प्रमुख हैं|
पानी की अहमियत समझती ‘महिला किसान’
कुछ समय पहले तक या ग्रामीण अंचलो में आज भी आपको ये सभी त्योहार धूमधाम से मानते हुए औरतें मिल जाएँगी, जिसमें वो जल-संसाधनों के पास कभी अपने बेटे तो कभी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए अमुक नदी से तालाब से बीच सुर में गाते गुनगुनाते विनती करते मिल जाती हैं| इन्हें हम ग्रामीण परम्परा जिन्हें लोक परम्परा और लिटिल ट्रऐडीशअन की संज्ञा देते हैं, स्थानीय नदी या तलाब से औरतों की आजीविका ही नहीं बल्कि भावनाएं भी जुड़ी होती हैं इसलिए जब वह नदी या जलस्त्रोत आपदा का रूप धारण करके उन औरतों के जीवन को प्रभावित करती होगी तो वह केवल शारीरिक और आर्थिक ही न होकर मानसिक भी होती होगी| पानी की ज़रूरत महिला किसान मेरे ख्याल में ज्यादा समझती हैं क्योंकि वे पानी से केवल सिंचाई का ही नहीं बल्कि अन्य घरेलू काम भी करती हैं जिसमें नदियों से तालाबों से पानी लाना भी शामिल हैं जिसके रास्तों में वह समूह में बात करते और अपना सुख दुःख बतियाते जाती है कि “अबकी फसल अच्छी हुई तो गुलिया का ब्याह धूमधाम से होगा|” “हा गंगा मैय्या सब नीक करिहें” दूसरा स्वर पर चिंता में| तीसरा स्वर कहता है “ अबकी बाढ़ आवेगी तो सब गंगा मैया आपन संघे सब लेके ओरा जाएँगी” तीनो चिंतित है और उनकी इस चिंता का हिसाब किसी डाटा में दर्ज भी न होगा|
आपदा अध्ययन और आजीविका अध्ययन ने महिलाओं को ‘सेकंड सेक्स’ का ही दर्ज़ा दे रखा हैं|
आपदा का अध्ययन और महिला
डिजास्टर (आपदा) का अध्ययन करते हुए मैंने एक शोधकर्ता के तौर पर यही पाया कि अभी तक के आपदा अध्ययन में जब भी महिलाओं का अध्ययन किया जाता है तो वह केवल मिले हुए डाटा का अध्ययन होता है| हम केवल डाटा का विशलेषण करके नुक्सान बता देते हैं पर जब बात स्त्री विमर्श की हो तो यह अध्ययन अधूरा हो जाता है| आपदा के अध्ययन को जब औरत के लिए किया जाता हैं तो समाजशास्त्री और अन्य विशेषज्ञ इससे दोहरी मार की संज्ञा देते है लेकिन वास्तव में ये उससे कहीं ज्यादा होता है| क्योंकि इससे उनकी भावनाएं-आस्था भी प्रभवित होती हैं| उसपर भी कई बार ऐसी हालात बनती हैं जहाँ पर उन्हें उस जगह को छोड़कर पलायान करना पड़ता हैं तब हम उनकी तकलीफ का अंदाज़ा शायद नहीं लगा सकते|
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अध्ययन से नदारद पीड़ित महिला की आवाज़
शोध अध्यन के दौरान मैंने ये बात महसूस की है कि आज भी अध्ययन में औरतें हाशिए पर हैं| इसका सबसे अच्छा उदाहरण यही हैं कि आपदा अध्ययन की किताबों में महिलाओं पर चैप्टर होते हैं पर वो उतने में ही सिमित हो जाती हैं| कुछेक चैप्टर में मर्दों की अपेक्षा महिलाओं का कितना नुक्सान हुआ, इसका तुलनात्मक अध्ययन होता हैं| बाकी में उस डाटा के साथ निहित अन्य चैप्टर होते है| जो नहीं होता वह हैं पीड़ित महिला की आवाज़|
स्त्री समाज की ख़ास इकाई जिसको साहित्य, समाज और विज्ञान में हमेशा प्रकृति का दर्ज़ा दिया गया है|
हम आउटसाइडर व्यू से सारा नज़रियाँ बनाते चले जाते हैं और यह मान लेते हैं कि मौजूदा हालत बेहद खराब है| हाँ, बेशक यह संकट हैं पर डार्विन के उत्तर्जीवता सिद्धांत की ओर देखें तो औरतों की भूमिका बाढ़ या आपदा के बाद अधिक सक्रिय हो जाती हैं| उन्हें खुद को बचने के साथ ही अपनी और अपने परिवार से जुड़ी आजीविका को भी बचने की जद्दोजहद करनी होती हैं| ऐसे में एक बाहरी के तौर पर उस जीव समूह के आन्तरिक संघर्ष को नकार देना या उसको अकादमिक में जगह न देना कम से कम मानव विज्ञान को बोझिल कर देता हैं| मानव विज्ञानी के तरह से देखने के लिए हमे इनसाइडर और आउटसाइडर दोनों की तरह किसी समस्या को देखे जाने की जरूरत हैं क्योंकि शोध का विषय डाटा नहीं बल्कि ख़ास मानव समूह हैं|
आपदा अध्ययन में औरत का दोयम दर्जा
मानव विज्ञान में हर इंसान ख़ास है इसलिए केस स्टडी भी बेहद ख़ास चरण हैं| आपदा के विषय में अध्ययन में एक दिलचस्प विषय मुझे समझ आता हैं कि महिला समूहों की ‘आपदा प्रबंधन में भूमिका|’ अगर हम आपदा अध्ययन की ओर देंखे तो महिलाओं को वल्नरेबल ग्रुप की तरह प्रस्तुत किया जाता हैं जबकि अगर माना जाये तो महिला समूह आपदा के समय एक-दुसरे के लिए सहायता समूह की भूमिका निभाती है और इस अध्ययन में जो कमी हैं वो संभावित इसलिए हैं क्योकि हम जब डाटा लेते हैं तब महिला की जरूरत को हाशिये पर रखकर इस बात का अध्ययन करते हैं की ‘कितने लोगों की मौत हुई|’ पर इसमें भी जीवित महिलाओ ने एक-दुसरे की कैसे मदद की? इस बात का अध्ययन नहीं हो पाता, जो कि इंटरव्यू और केस स्टडी के द्वारा हो सकता हैं|
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इसलिए मेरे नज़र में जेंडर वुल्नेर्बिलिटी ये हैं कि महिला का अध्ययन एक डाटा के तौर पर ही सीमित हैं| यह सच है कि महिला किसानों की हालत अच्छी नहीं है| यह भी सच है कि महिलाएं शारीरिक तौर पर कमजोर होती हैं| यह भी सच है कि हमारे पास नदियों-तालाबों के संयोजन के लिए और बाढ़ प्रबंधन के लिए उचित व्यवस्था नहीं हैं| पर इन सबमें जो जरुरी बात है वो ये कि आपदा अध्ययन और आजीविका अध्ययन ने महिलाओं को ‘सेकंड सेक्स’ का ही दर्ज़ा दे रखा हैं जिसमें वे बेचारी महिलाओं के लिए योजना बनाए जाने पर ज़ोर देते हैं और महिलाओ की ज़रूरत और बराबरी के हक़ को नकार देंते हैं|
यह लेख इलाहाबाद विश्वविद्यालय की शोध-छात्रा तोषी पाण्डेय ने लिखा है|