साल 2012 में एक दौर आया था और जिस जूनून से आम लोगो ने महिला हिंसा और बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ़ कांधे से कांधा मिलाकर गलियों, कुंचो, गेटों को हिला दिया था| ऐसा लगता था कि एक स्वस्थ समाज का निर्माण होने वाला है, जहाँ यौन हिंसा, गैर-बराबरी जैसी बिमारियों का नामो निशान नहीं रहेगा और ऐसा हुआ भी| तुरंत-फुरंत सरकारी मशीनरी हलचल में आयी और जस्टिस वर्मा कमेटी इस दिशा के निर्माण के लिए बना दी गयी और आया हजारों-लाखो लोगो के सहयोग का नतीजा “नया बलात्कार विरोधी कानून 2013” जिसमें केवल इतिहास और वर्तमान को ही नहीं बल्कि भविष्य में एक न्यायपूर्ण यौन हिंसा रहित समाज हो सके- ये तोहफा भी दिया गया! मुझे याद है जब जस्टिस वर्मा इस बिल का ड्राफ्ट शेयर कर रहे थे तब इज़हारे ख़ुशी में किसी ने कहा था ‘मेरे जीवन का सारा संघर्ष सफल हो गया| अब मैं चैन से रह सकती हूँ| ऐसी ही कितनी आशाएं जो न्याय में विश्वास और सम्मान रखती है सालभर जाहिर होती रही|
कानून ने दिया ‘ना’ कहने का हक़
खैर कई प्रगतिशील मुद्दों के साथ इस कानून में आयी “सहमति” की बात, जो मेरी और कई बराबरी और इंसाफ पसंद लोगों के लिए बड़ी उपलब्धि थी| वो केवल कानून और न्याय के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक-बदलाव की बड़ी उम्मीद थी, जो बरसों से चली आ रही ‘औरत को उपभोग की वस्तु मानने वाली पितृसत्तामक सोच पर तो घात करती ही है साथ ही, फैसले लेने के औरत के हक़ को भी पुख्ता करती है|’ इस तरह यौन सम्बन्ध से जुड़े फैसले ये अपने आप में बड़ा क्रांतिकारी कदम था| ये बात उस जगह के लिए है जहाँ औरतों को आज भी पढ़ने, काम करने, जीवन साथी चुनने, शादी करने या न करने, बच्चे पैदा करने या न करने और तो और घर में आने वाले थोड़े महंगे सामान – फ्रीज़, टीवी तक पर रायशुमारी के लिए पूछा नहीं जाता है| वहां उन्हें यौन सम्बन्धो पर मर्जी से हाँ या ना करने और कहने का हक़ देना अपने आप में बड़े परिवर्तन का वाहक था|
महिला की ‘ना’ कहने वाली जादू की पुडिया
सहमति को लेकर जो परिभाषा भी कानून में लिखी गयी अपने आप में बड़ी दूर की कौड़ी थी| वो सब लोग और खास तौर से जस्टिस वर्मा एंड कमेटी के सदस्य बधाई के पात्र है, क्योंकि ये कई अर्थो में बदलाव की बड़ी वाहक है – जो कहती है कि यौन सम्बन्ध बनाने के लिए औरत की “हाँ“ होना जरुरी है| ये बड़ा ही खास प्रावधान था | खासतौर पर उस समाज में जहाँ औरत की ‘ना’ को फिर चाहे वो हल्की हो या भारी, सदियों से ‘हाँ’ मानने के संस्कार चले आ रहे हैं| जहाँ सालों से महिला आंदोलन “ना मतलब ना” की पैरवी कर रहा है| पर संस्कार के नाम पर “ना मतलब हाँ” टस से मस नहीं हो रहा है| ऐसे में सहमति मतलब “हाँ” की कंडीशन/शर्त बड़ी सोची समझी दूरगामी पहल थी और है| “हाँ” की अनिवार्यता इसलिये भी बेमिसाल सोच थी, क्योंकि हम आज भी उसी समाज में है जहाँ पुरुष को ‘ना’ बर्दाश्त नहीं| और ‘हाँ’ सुनना उसकी फितरत में नहीं, जिसके उदाहरण आये दिन होने वाले एसिड हमले है जो एक एकतरफा इजहार के बदले मिलने वाले ना को न सह पाने का नतीजा होता है या फिर औरत के चरित्र पर होने वाले हमले या औरतो की अधूरी यौन इच्छाओं में दिखती है जो हाँ से जुड़ती है| ऐसे में यौन संबंधों में औरत द्वारा कही या दर्शायी जाने वाली हाँ बड़ी जादू कि पुड़िया सी लगती है, जो एक गोली से कई बिमारियों का इलाज कर एक स्वस्थ समाज के निर्माण कर सकती है|
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एक फैसले से कानून की उड़ा दी धज्जियां
लेकिन अब इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि आज 2013 के कानून में शान से आयी ये सहमति खुद सहमी पड़ी है, क्योंकि खुद न्यायलय ने अपने एक फैसले में दिखा दिया कि जज साहब अभी खुद पितृसत्ता से परे नहीं हो पाये है और सहमति और भी “हाँ” कहने की? इनके गले नहीं उतर रही तो पहला मौका मिलते ही सहमति के बिना कानून में लिखे से सहमत हुए ऐसी धज्जिया उड़ाई है कि समाज की आधी आबादी को तो क्या, उसके आंदोलन और क़ानूनी सहमति को मथुरा से भी पहले के समय में धकेल दिया गया है|
सहमति को लेकर जो परिभाषा भी कानून में लिखी गयी अपने आप में बड़ी दूर की कौड़ी थी|
पितृसत्ता की मार झेलता भारतीय कानून
हैरानी की बात तो ये है कि छोटी सी बात जो कानून कहता है कि –‘अगर किसी खास परिस्थिति में किसी भी कमतरी या सत्ता के नशे में आपको सहमति है या नहीं|’ बड़े न्यायलय के बड़े से न्यायधीश को समझ क्यों नहीं आयी और शक के बिनाह पर असमंजस की यह स्थिति सहमति कैसे मान ली गयी ? या फिर सहमति के साथ मिली यौन बराबरी से विचलित जज साहेब को चरम उन्माद, फिर चाहे भय से झूठा ही सही का सन्दर्भ इतना विचलित कर गया की पितृसत्तात्मकता नैतिक जिम्मेदारी और पुरुष एकजुटता इतनी हावी हो गयी जिसके नीचे कानून और इंसाफ दोनों कुचल गये|
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सिर्फ इतना ही नहीं कानून-गो साहेब ने नए रास्ते खोल दिये है| एक असंवेदनशील, गैर-बराबर और अन्यायपूर्ण अराजक समाज के लिए जिसे कानून की पूरी सहमति के इंतजाम होने के पूरी संभावनाएं हैं| पर जैसा कि आंदोलन कहता रहा है ‘अब आगे ही जाना है|’ इसलिए ये वक़्त खामोश बैठकर पीछे धकेले जाने का नहीं है बल्कि आगे आकर कांधे से कांधा मिलाकर आवाज बुलंद करने का है| उन सबको चेताने का है जो हमारी सहमति के बिना हमे पीछे धकेलना चाहते है और हमारी संवैधानिक और क़ानूनी आज़ादी को ताक पर लगाना चाहते है| उन्हें समझना होगा कि यौन स्वायत्तता और शारीरिक अखंडता हमारा अधिकार है, जिसे छिनने वाले आप कोई नहीं होते|