अपने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति जगजाहिर है, फिर बात चाहे आर्थिक पहलू की हो या सामाजिक पहलू की, क्योंकि अपने पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के लिए ढ़ेरों चीज़ें बकायदा परिभाषित और उनके दायरे निर्धारित किये गये| अब शायद आप ये कहें कि ये तो पहले की बात है अब तो महिलाएं हर क्षेत्र में आगे है| ज़रूर मैं आपकी बात सहमत हूँ, लेकिन इस बात पर भी जरा गौर फरमाइयेगा, महिलाएं आपके क्षेत्र में तो आगे है लेकिन अपने सवालों पर आज भी बेहद पीछे है| यहाँ इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि यहाँ बात महिलाओं की हो रही है, चंद सफल महिलाओं की नहीं| अगर हम बात करें ‘महिला स्वास्थ्य’ की तो आज भी हमारी किताब से लेकर हमारी सोच-जुबां इस विषय पर सिर्फ गर्भवती महिला तक सीमित है| इससे इतर अगर बात होती भी है तो महिलाओं से जुड़ी बिमारियों के बारे में| लेकिन ‘पीरियड’ जैसे मुद्दे आज भी हमारी किताब और जुबां से नदारद है|
फिल्म बनते ही याद आ गया ‘पीरियड’
बाज़ार में सेनेटरी पैड और उनके खरीदार तो मौजूद है लेकिन सवाल ये है कि इस विषय पर खुलकर बात करने वाले और इस खुली बात को सुनने वाले कितने है? पीरियड के मुद्दे को हमेशा से ही हमारे समाज में शर्म का विषय माना जाता रहा है| इसपर बात करना करना गंदी बात और इस दौरान ढ़ेरों परेशानियों के बावजूद चुप रहना लड़कियों की अच्छी बात मानी जाती है| वैसे तो हमारे समाज में हर जगह समस्या है, लेकिन अब इसे संयोग कहें या दुर्भाग्य कि जब समाज की किसी समस्या पर कोई फिल्म बन जाती है| ऐसा ही कुछ हुआ ‘पीरियड’ के संबंधित सेनेटरी पैड के मुद्दे पर बनी फिल्म पैडमैन के भी साथ| फिल्म बनते ही अचानक से ऐसा लगने लगा कि ‘अरे! ये तो प्रॉब्लम थी हमारे समाज में|’ लेकिन इतने सालों में कभी ध्यान ही नहीं गया और इसी बीच अचानक एक फिल्म का पोस्टर आया और हमारे मन में ज्ञान आया कि हमारे यहां औरतों को पीरियड भी होता है और उसमें पैड की दिक्कत भी होती है| बस फिर क्या था माहौल बनते ही फिल्म का ट्रेलर आया और सेल्फी विद पैड का सीजन आ गया| ये सब कुछ इतने जोर-शोर से ज़ारी रहा, जैसे अगर ये फिल्म चल गयी तो इस समस्या का समाज से समूल नाश हो जायेगा|
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जागरूकता वाले सेनेटरी जब जमीन पर पड़े थे
इतना ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षिका अपराजिता शर्मा ने अपने एक लेख के ज़रिए बीते 23 जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में अपनी फिल्म ‘पैडमैन’ के प्रचार के लिए अक्षय के कार्यक्रम का भी अनुभव भी साझा किया| उन्होंने लिखा कि अक्षय ने दिल्ली विश्वविद्यालय में मैराथन भी रखवायी, जिसमें बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स अपने प्रिय अभिनेता को देखने जुटें। इस भीड़ को फिल्म यूनिट और विद्यार्थी परिषद की ओर से सैनेटरी पैड भी बांटे गए।
फिल्म बनते ही अचानक से ऐसा लगने लगा कि ‘अरे! ये तो प्रॉब्लम थी हमारे समाज में|’
अक्षय ने सामने सैनेटरी पैड हवा में लहराकर यह संदेश देने की कोशिश की कि माहवारी से जुड़े मुद्दों और समस्याओं पर खुलकर बात करने की ज़रूरत है। खूब उत्साह और शोर के बाद वे पैड्स जो अभी थोड़ी देर पहले तक जागरूकता का परचम बने हाथों में लहरा रहे थे, पूरे कैंपस में जहां-तहां छितरे पड़े थे। देखते ही देखते नए – साफ सैनेटरी पैड कूड़े के ढेर में बदल गए। ऐसे आयोजनों से ना तो अवेयरनेस आती है ना ही शर्म की दीवारें तोड़ने से इनका कोई लेना देना है।
समाज को सेल्फी की नहीं सुधार की ज़रूरत है
इससे कहीं बेहतर क्या यह नहीं होता कि इन नए-साफ सैनेटरी पैड्स को किसी ऐसी संस्था को दिया जाता जहां महिलाएं काम करती हैं। किसी स्लम, विद्यालय, कार्यालय, फैक्ट्री या ज़रूरत की ऐसी ही किसी दूसरी जगह भेंट किया जाता जहां इनका सही इस्तेमाल होता।
बड़ी भारी संख्या में पैडमैन की चिंताओं से सरोकार रखने वाले इन युवाओं से पूछकर देखिए, क्या आपने अपने आसपास ऐसी सैनेटरी पैड वेण्डिंग मशीन को देखा है? जहाँ से ज़रूरत के समय सैनेटरी पैड लिए जा सकें। बाकी जगहों की बात तो छोड़िए, सिर्फ इतना ही बताइए कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कितने कॉलेजों में ऐसी मशीनें हैं, जहां से लड़कियां अचानक आ गयी डेट के बाद जाकर सैनिटेरी पैड ले सकें। पैड के परचम लहरा देने से विश्वविद्यालय में जागरूकता नहीं आयेगी, ना ही सेल्फी लगाने से सोसाइटी में।
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बात बोल्ड होने और बोल्ड दिखने से ज़्यादा गम्भीर है। असली चिन्ताएं अब भी वहीं हैं जिनसे अरुणाचल मुरुगनाथम लड़ रहे हैं। उन्होंने जो बेहद ज़रूरी काम किया वो ये नहीं कि पैड बनाया| बल्कि महंगी कीमतों पर बेचे जा रहे ज़रूरत की चीज़ को उन्होंने स्वास्थ्य लाभ और उपलब्धता के कारण सस्ती कीमतों में तैयार करने की चुनौती को पूरा किया। आप अपनी अतिरिक्त भावुकता में बात को कहीं और मोड़ दे रहे हैं। आप काले पोलिथीन में पैक करने, केमिस्ट से मांगकर लेने की शर्म तोड़ने के लिए ‘सेल्फी विद पैड’ हुए जा रहे हैं। आप झिझक तोड़ने की जो मुहिम चला रहे हैं उसे लेकर तो फेसबुक जनता काम भर की जागरूक है। लेकिन पीरियड्स से जुड़ी स्वास्थ्य सम्बंधी बातें इन सबमें हर बार पीछे ही छूट जाती हैं।
दाग़ और दर्द तक नहीं पीरियड की बात
अब हमें ये समझने की ज़रूरत है कि पीरियड का मुद्दा सिर्फ ‘दाग़’ और ‘दर्द’ तक सीमित नहीं है| क्योंकि महिला के माँ बनने से लेकर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का पता माहवारी से लगाया जा सकता है और कई बार ये ढ़ेरों खतरनाक बिमारियों का कारण भी बनती है| ग्रामीण क्षेत्रों में इस विषय पर काम के लिए पहला कदम पीरियड से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए उठाना चाहिए क्योंकि वास्तविकता ये है कि हमारे समाज में महिलाओं को पीरियड संबंधित जानकारियों से ज्यादा इससे जुड़ी भ्रांतियों का ज्ञान होता है और जिनका पालन भी वो उम्रभर करती है, जो न केवल उनके शरीर को बल्कि उनके जीवन को प्रभावित करता है|
ऐसे आयोजनों से ना तो अवेयरनेस आती है ना ही शर्म की दीवारें तोड़ने से इनका कोई लेना देना है।
स्वस्थ समाज की कल्पना हम एक स्वस्थ माहौल के बिना नहीं कर सकते हैं, जिसकी शुरुआत हमें आज से करनी होगी| पीरियड के मुद्दे पर देखा जाए तो आज भी अधिकाँश लड़कियां पहली बार पीरियड आने पर डर जाती है, क्योंकि इसके बारे में उन्हें पहले कुछ भी नहीं बताया जाता| ऐसे में ज़रूरी है कि किशोरियों को पीरियड के बारे पहले से प्रशिक्षित किया जाए, जिससे उनके पहले पीरियड का अनुभव उनके लिए डरावना न हो|
इसी तर्ज पर ये कहना गलत नहीं होगा कि ‘पैडमैन’ जैसी फिल्म के ज़रिए इस विषय को तो उजागर किया गया, जो बेहद ज़रूरी और सराहनीय प्रयास है| लेकिन इसे सिर्फ सेनेटरी पैड के इस्तेमाल तक सीमित कर देना ‘बाज़ार’ को बढ़ावा देना मात्र है, न कि समस्या का हल, जिसे पैडमैन का पीरियड (जिसे उन्हें खुद के समझे सांचे में प्रस्तुत किया है) कहना कहीं से भी गलत नहीं होगा| अब जब इस विषय पर बात हुई ही है तो ज़रूरी है कि अपने देश-समाज के अनुसार इस मुद्दे से जुड़े पहलुओं पर काम हो|
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