संस्कृतिकिताबें पितृसत्ता को चुनौती देतीं 5 समकालीन हिंदी लेखिकाएं

पितृसत्ता को चुनौती देतीं 5 समकालीन हिंदी लेखिकाएं

हिंदी की इन पांच समकालीन लेखिकाओं ने लेखन की अलग - अलग विधाओं ( यात्रा वृतांत, नोट्स, कहानी, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, आदि ) के ज़रिए पितृसत्ता के ढांचे को लगातार चोट पहुंचाई है|

‘लिखना’ आवाज़ उठाने, विरोध करने और बदलाव लाने के सभी सशक्त तरीकों में से एक है। इस सशक्त तरीके का प्रभाव पितृसत्तात्मक समाज में औरतों के लिखने से देखा जा सकता है, क्योंकि औरतें जब अपनी बात लिखतीं हैं तो ये अपने आप में पितृसत्ता के लिए चुनौती बन जातीं हैं| इसी तर्ज पर आज हम बात करेंगें हिंदी की पांच समकालीन लेखिकाओं के बारे में जिन्होंने लेखन की अलग-अलग विधाओं ( यात्रा वृतांत, नोट्स, कहानी, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, आदि ) के ज़रिए पितृसत्ता के ढांचे को लगातार चोट पहुंचाई है –

1. अनुराधा बेनीवाल

जनवरी 2016 में आई ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ अनुराधा की यूरोप यात्रा के संस्मरणों की श्रृंखला ‘यायावरी आवारगी’ की पहली किताब है। यह हिंदी में लिखा गया पहला यात्रा वृतांत नहीं है| इससे पहले भी कई यात्रा वृतांत लिखे जा चुके हैं|लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ अपनी तरह की पहली ही किताब है। किताब पढ़ते – पढ़ते जैसे मन बनने लगता है, कि अब तो बैकपैक उठाओ और बस कहीं चल पड़ो| पर कहीं भी जाने से पहले लड़कियों को तो सोचना पड़ता है न?  क्यों सोचना पड़ता है? क्योंकि दुनिया में अकेले घूमने पर लड़कियों को अपने जेंडर के कारण कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है| फेमिनिस्ट लेखिका सिमोन का एक मशहूर कथन है –

“स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है।”

इस कथन का मतलब यह है कि स्त्री और पुरुष के सोच – विचारों, व्यवहार के ढंगों में जो भी अंतर है वह जन्म से नहीं होता बल्कि यह ‘अंतर’ तो परिवार और समाज की दी जाने वाली भेदभावपूर्ण ट्रेनिंग का नतीजा है| इसी ट्रेनिंग के मुताबिक जिस आज़ाद हवा में सांस लेने का हक लड़कों को होता है, उसी आज़ाद हवा में लड़कियों को घुट – घुटकर जीना पड़ता है। अकेले दुनिया घूमना तो दूर की बात है, लड़कियों के लिए अकेले एक गली का चक्कर तक लगाना लगभग नामुमकिन काम होता है| पर अनुराधा इसी पितृसत्तात्मक ट्रेनिंग को चुनौती देते हुए न सिर्फ खुद दुनिया में अकेले घूमती हैं, बल्कि अपनी किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ के ज़रिए हर लड़की को इस बात के लिए प्रेरित करतीं हैं कि वह अपनी तयशुदा सीमाओं को लांघकर दुनिया में अकेले घूमने की, अपने रास्ते खुद तय करने की हिम्मत दिखाए|

इस किताब में ग़र सबसे खूबसूरत कुछ है तो वह है उसका अंत, उस अंत के बिना बेशक किताब अधूरी ही होती क्योंकि वह ‘अंत’ एक शुरुआत की तरह उभरकर सामने आता है –

एक ऐसी ख़ूबसूरत और आज़ाद दुनिया की शुरुआत जहाँ लड़कियों के इंसानी हकों और जज़्बातों के लिए बराबर जगह हो| “मेरी यात्रा अभी हुई शुरू हुई है और तुम्हारी भी। तुम चलना। अपने गांव में नहीं चल पा रही हो तो अपने शहर में चलना। अपने शहर में नहीं चल पा रही हो तो अपने देश में चलना। अपना देश भी मुश्किल करता है चलना तो यह दुनिया भी तेरी ही है, अपनी दुनिया में चलना। लेकिन तुम चलना।… तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी, और मेरी बेटी भी। फिर हम सबकी बेटियां चलेंगी। और जब सब साथ चलेंगी तो सब आज़ाद, बेफ़िक्र और बेपरवाह ही चलेंगी। दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जाएगी…।”

2. नीलिमा चौहान

बोलने, लिखने, विद्रोह करने वाली और अपने मन मुताबिक चलने वाली औरतों को समाज ‘बदचलन औरत’ , ‘बद्तमीज़ औरत’ जैसे अनगिनत तमगों से अक्सर नवाज़ता रहा है तो इन्हीं तमगों को बक़ायदा स्वीकार करके, समाज और पितृसत्ता को चिढ़ाते हुए, नीलिमा जी की किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ ने ज़बरदस्त तरीके से हिंदी साहित्य में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है।

औरतों का अपने अस्तित्व के जश्न मनाए जाने से, अपनी इच्छाओं और अपने जज़्बातों के बारे में ख़ुलकर बोलने से ग़र उन्हें ‘पतनशील’ माना जाता है, तो हाँ, हैं हम पतनशील|

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इस किताब में स्त्री – जीवन की हर मामूली और गैर मामूली बात को बेहद दिलचस्प अंदाज़ में बयां किया गया है। इसमें कोई कहानी या कविता नहीं है, कोई बेहद गंभीर लेख भी नहीं है, न ही बहुत आक्रमकता है और न ही कोमलता, चुटीले अंदाज़ में हर गंभीर मुद्दे को पेश किया गया है, जिससे यह नोट्स आसानी से पढ़े और समझे जा सकते हैं। फिर भी पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग इस कशमकश में ज़रूर रह जाएंगे कि यह हकीकत है या फसाना? खुद लेखिका भी किताब के अंत तक चलते – चलते इस बारे में चर्चा करतीं हैं| “शर्तिया कहती हूँ कि आपको यह सवाल कोंच रहा होगा कि यह पतनशील होना आखिर है क्या ? यह रास्ता है या मंज़िल ? ऐलान है या एहसास ? पतनशील पत्नियों की बातों में फटकार, फ़रेब, फ़ब्ती, फ़ितूर, फ़साद – सबका लुत्फ़ पाया होगा आपने…।”

3. कंचन सिंह चौहान

कंचन जी की कहानियां हिंदी साहित्य की दुनिया की उन कहानियों में से हैं जो स्त्रियों ने, स्त्रियों के बारे में और स्त्रियों के लिए ही लिखी गईं।

जहाँ ‘सिम्मल के फूल’ एसिड अटैक जैसे विषय की परतें टटोलने वाली कहानी है| वहीं ‘बद्ज़ात’ एक ऐसी कहानी है जो मैरिटल रेप की दर्दनाक सच्चाइयों को बयां करती है। और हाल ही में आई ‘ईज़’ सेक्स पॉज़िटिव फेमिनिज़्म के कॉन्सेप्ट को छूती हुई दिखाई देती है| इस कहानी में नायिका एस्कॉर्ट है जो बिना किसी दबाव या मजबूरी के, अपनी इच्छा से यह प्रोफेशन चुनती है। एक जटिल विषय को बहुत सहजता के साथ कहानी में पेश किया गया है। इस कहानी के ज़रिए पितृसत्तात्मक समाज के सभी पूर्वाग्रह आराम से चकनाचूर कर दिए गए हैं।

4. प्रतिभा कटियार

पितृसत्तात्मक समाज के अनुसार, बंदिशों को कबूल करके जीने वाली लड़कियां ही ‘अच्छी लड़कियां’ होतीं हैं। इन अच्छी लड़कियों का चलना – फिरना, बोलना, व्यवहार करना – सबकुछ पितृसत्ता के मन मुताबिक होता है। जहाँ इन अच्छी लड़कियों ने अपनी मर्ज़ी से कुछ किया, वहीं इन्हें ‘बुरी लड़कियां’ कहा जाने लगता है। इस तरह पितृसत्ता की हर बंदिश का विरोध करने वाली, सवाल उठाने वाली लड़कियां बुरी हैं|

प्रतिभा जी भी अपनी कविता ‘ओ अच्छी लड़कियों’ में यही बात कहती हैं-

“ओ अच्छी लड़कियों
तुम अपने ही कंधे पर ढोना जानती हो
अपने अरमानों की लाश
तुम्हें आते हैं हुनर अपनी देह को सजाने के
निभाने आते हैं रीति रिवाज, नियम
जानती हो कि तेज चलने वाली और
खुलकर हंसने वाली लड़कियों को
जमाना अच्छा नहीं कहता…|”

5. पल्लवी त्रिवेदी

लघुकथा लिखना बड़ा मुश्किल काम होता है| इसमें कम शब्दों में गहरी और असरदार बात कहनी होती है और पल्लवी जी ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया है। उनके द्वारा लिखी गई लघुकथा – ‘देवर – आधा पति परमेश्वर’ इंटरनेट पर आग की तरह फैली है। यह लघुकथा हँसी – मज़ाक के नाम पर किए जाने वाले सेक्सिस्ट व्यवहार को करारा जवाब देती है – :

एक लड़का और एक लड़की की शादी हुई, दोनों बहुत खुश थे !
स्टेज पर फोटो सेशन शुरू हुआ।
दूल्हे ने अपने दोस्तों का परिचय साथ खड़ी अपनी साली से करवाया,
“ये है मेरी साली, आधी घरवाली।”
दोस्त ठहाका मारकर हँस दिए !
दुल्हन मुस्कुराई और अपने देवर का परिचय अपनी सहेलियों से करवाया,
“ये हैं मेरे देवर…आधे पति परमेश्वर !”
ये क्या हुआ !
अविश्वसनीय ! अकल्पनीय !
भाई समान देवर के कान सुन्न हो गए !
पति बेहोश होते होते बचा !
दूल्हे, दूल्हे के दोस्तों, रिश्तेदारों सहित सबके चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी !
लक्ष्मण रेखा नाम का एक गमला अचानक स्टेज से नीचे टपक कर फूट गया !
स्त्री की मर्यादा नाम की हेलोजन लाईट भक्क से फ्यूज़ हो गयी !
थोड़ी देर बाद एक एम्बुलेंस तेज़ी से सड़कों पर भागती जा रही थी जिसमें दो स्ट्रेचर थे,
एक स्ट्रेचर पर भारतीय संस्कृति कोमा में पड़ी थी,
शायद उसे अटैक पड़ गया था !
दूसरे स्ट्रेचर पर पुरुषवाद घायल अवस्था में पड़ा था,
उसे किसी ने सिर पर गहरी चोट मारी थी !
आसमान में अचानक एक तेज़ आवाज़ गूंजी, भारत की सारी स्त्रियाँ एक साथ ठहाका मारकर हँस पड़ी थीं !

इन लेखिकाओं की कलम यह भरोसा दिलाती है कि पितृसत्ता के बने – बनाए ढांचे में जो दरारें पड़ना शुरू हुईं हैं, उसका सिलसिला थमेगा नहीं बल्कि पूरी रफ्तार के साथ लगातार चलता रहेगा और इस ढांचे को चकनाचूर करने में ‘स्त्री – लेखन’ बेशक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

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