जनवरी में रिलीज हुई अक्षय कुमार की फिल्म ‘पैडमैन’ की काफी चर्चायें हुई| इस चर्चा की वजह थी इस फिल्म का विषय| फ़िल्म महिलाओं के काफी निजी विषय या यों कहें कि उस विषय पर केंद्रित थी, जिसपर लोग बात तो क्या उसका नाम लेने तक में शर्म करते हैं| यह फिल्म सैनिटरी पैड पर आधारित है| टीवी पर हमें हर ब्रेक में सैनिटरी नैपकीन की एडव्हर्टाईज दिखाई देती है| पर कभी गलती से किसी बच्चे ने अगर ये पूछ लिया कि ‘ये एडव्हर्टाईज किस चीज की है?’ तो उस बच्चे को डाटकर फौरन चुप करवा दिया जाता है या फिर कोई बहाना देकर उसे चुप कराया जाता है| पर ऐसा क्यों होता है? इसपर हमें सोचने की ज़रूरत है| क्यों उस वक्त उस बच्चे को मासिकधर्म के बारे में बताया नहीं जाता| ऐसा शायद इसलिए है कि आज भी हमारे देश में मासिकधर्म और सैनटरी नैपकिन को लेकर जितनी जागरूकता होनी चाहिए उतनी नहीं है|
आज भी स्कूल, कॉलेज यहाँ तक कि ऑफिस में भी चुपके से पूछा जाता है कि क्या तुम्हारे पास सैनेटरी नैपकीन है?
आज भी देश में कई महिलाएं मासिकधर्म के दौरान कपड़े का ही इस्तेमाल करती है| गांव का तो छोड़िये शहरों में भी कोई अलग हालात नहीं है| आज भी खुद को मॉडर्न बताने वाली उच्च-शिक्षित महिलाएं इस विषय पर खुलकर सबके सामने बात करना टालती है| ऑफिस और काम की जगह हो या पार्टी, ये बातें कान में कही जाती है और सबसे नज़रें छुपाकर बैग में या फिर थैली में सैनिटरी पैड दिया जाता है| पुरुषों के सामने तो क्या जहाँ सिर्फ महिलाएं होती है ऐसी जगह पर भी मासिकधर्म के बारे में खुलकर बात नहीं की जाती है|
और पढ़ें : देवी की माहवारी ‘पवित्र’ और हमारी ‘अपवित्र?’
मासिकधर्म होता क्या है? इस दौरान सैनिटरी नेपकिन का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? इस बारे में ना लड़कियों को ठीक से जानकारी होती है और ना लडकों को| टीवी पर दिखाई जाने वाली एडव्हटाईज किस चीज़ की है या सैनिटरी पैड कितने वक्त के लिए पहनना चाहिए? ये बातें बच्चों के समझ नहीं आती| इसलिए इसके बारे में जन जागरूकता होनी जरुरी है| सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए कम दाम के सैनिटरी नैपकिन की सुविधा उपलब्ध कराई जानी चाहिए| इसके साथ ही, सरकार और सामाजिक संस्थाओं को भी इसके लिए कुछ मजबूत कदम उठाने की ज़रूरत है|
मासिकधर्म पर बनी हमारी इस शर्म और चुप्पी को तोड़ने की बेहद ज़रूरत है|
सबसे ज़रूरी बात ये है कि सैनेटरी नैपकिन के बदलने के लिए और इस्तेमाल किये हुए सेनेटरी पैड फेकने के लिए कई जगह कूड़ेदान की सुविधा भी नहीं होती है, जिसके चलते महिलाओं को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है| आज भी कई महिलाओं को मासिकधर्म के वो खून के दाग गंदे लगते है| आज भी सैनिटरी पैड हम कागज में लेकर जाते है| पर मुझे ये बात समझ नहीं आती कि पैकेट बंद नैपकीन खरीदने में शर्म किस बात की? कई बार कागज में सैनेटरी नैपकिन लेकर जाने वालों से जब मैंने पूछा कि ये क्या लेकर जा रही हो तो लड़कियों ने अपने जवाब में पाव, बिस्किट या किसी और चीज़ का नाम लिया| समझ नही आता ये झूठा जवाब देने की नौबत क्यों आती है| मासिकधर्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है| ये हर औरत को होती है| हर किसी की ये कहानी है| फिर इसमें छुपाने जैसी क्या बात है| आज भी स्कूल, कॉलेज यहाँ तक कि ऑफिस में भी चुपके से पूछा जाता है कि क्या तुम्हारे पास सैनेटरी नैपकीन है? और ऐसा इसलिए किया जाता है कि किसी मर्द को ये पता न चले कि आपके मासिकधर्म शुरू हो गये हैं|
और पढ़े : ‘पैडमैन’ फिल्म बनते ही याद आ गया ‘पीरियड’
मासिकधर्म पर बनी हमारी इस शर्म और चुप्पी को तोड़ने की बेहद ज़रूरत है| वरना हम न तो किसी भी संसाधन या सुविधा तक पहुंच सकेंगें और न ही इससे पनपने वाली शारीरिक और सामाजिक समस्याओं का सामना कर पायेंगें| अब हमें स्वीकारना होगा कि मासिकधर्म कोई अज़ीब नहीं बल्कि एक सामान्य प्रक्रिया है| क्योंकि इसे असामान्य मानना ही अपने आप में एक बड़ी समस्या बन चुका है|
यह लेख श्रद्धा देसाई ने लिखा है|
तस्वीर साभार : एसबीएस डॉट कॉम