पितृसत्तात्मक समाज की ये खासियत है कि यहाँ महिलाओं के दमन और पुरुष के विशेषाधिकार की शुरुआत हमेशा महिला शरीर से की जाती है| इसके तहत महिला अधिकार से जुड़े हर मुद्दे को उनके शरीर के भूगोल में समेटकर समाज के तथाकथित अस्मिता के संदर्भ में देखा जाता है| नतीजतन महिला का अस्तित्व और उसके अधिकार समाज के बनाये ढाँचे में दम तोड़ देते है| ऐसे में अगर हम आधी आबादी के ऐसे पूरे मुद्दे पर चर्चा करेंगें तो शायद दमन की राजनीति का एक लंबा इतिहास लिखा जा सकता है| लेकिन फ़िक्र न करें मैं यहाँ कोई इतिहास नहीं लिखने जा रही, बल्कि एक ऐसे विषय पर चर्चा करने जा रही हूँ जिसके प्रशिक्षण का हिस्सा मैं बीते दिनों रही|
ये विषय है गर्भसमापन या अबोर्शन का| महिला स्वास्थ्य से जुड़ा यह एक ऐसा विषय है, जिसे आमतौर पर हमारा समाज गलत नज़रों से देखता है और जिसके चलते यह हमारे रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ा एक रहस्यमयी मुद्दा बन जाता है| बीते दिनों मुझे गर्भसमापन के विषय पर केंद्रित प्रशिक्षण में शामिल होने का मौक़ा मिला| नई दिल्ली की नारीवादी संस्था ‘क्रिया’ महिला अधिकार, जेंडर और यौनिकता से जुड़े मुद्दों पर काम करने के लिए विश्वभर में जानी जाती है और अपनी इसी पहचान-काम को कायम रखते हुए 4 अक्टूबर से 8 अक्टूबर 2018 तक क्रिया व कॉमनहेल्थ के संयुक्त प्रयास से ‘गर्भसमापन, जेंडर और अधिकार’ के मुद्दे पर प्रशिक्षण का आयोजन किया गया था| देशभर के अलग-अलग हिस्सों से आये करीब तीस प्रतिभागियों ने इस प्रशिक्षण में हिस्सा लिया| यों तो ये सभी प्रतिभागी सामाजिक सरोकार के अलग-अलग क्षेत्र से जुड़े थे, लेकिन इन सबमें समानता ये थी कि ये किसी विषय पर समाज की बताई गयी निषेधों की परिभाषा स्वीकारने की बजाय उसके पहलुओं को उजागर करने और उनका विश्लेषण करने का न केवल इरादा रखते थे बल्कि इसी इरादे के साथ काम भी कर रहे थे|
भेदभाव का अहम मसला ‘मूल्य’ का होता है| – आनंद पवार
प्रशिक्षण के शुरूआती दिनों में पितृसत्ता, जेंडर, यौनिकता और यौन स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर स्वस्थ चर्चा का दौर चला और इस सत्र में प्रशिक्षक की भूमिका में रहे आनंद पवार| इस प्रशिक्षण का ये सबसे ज़रूरी हिस्सा था क्योंकि इन विषयों पर साफ़ समझ के बिना हम गर्भसमापन के विषय को महिला अधिकार के रूप में भले ही बोलें लेकिन वास्तव में उसे मजबूती से स्वीकार नहीं कर सकते हैं| प्रशिक्षण के अंतर्गत आनंद जी ने बेहद सरल, सहज और सटीक भाषा-तकनीक से जेंडर और इससे जुड़े भेदभाव के पहलू को स्पष्ट किया| भेदभाव के संदर्भ में उन्होंने बताया कि जैसे ही हम किसी भी चीज़ को कीमत (पैसे, गुण या अन्य विशेषण के संदर्भ में) से जोड़ते हैं, वहीं से भेदभाव की शुरुआत हो जाती है| सरल शब्दों में कहें तो ‘भेदभाव का अहम मसला ‘मूल्य’ का होता है|’
ज़रूरी है कि गर्भसमापन की बजाय लिंगचयन पर रोक लगाई जाए, जिससे महिलाओं के गर्भसमापन का अधिकार प्रभावित न हो|
पितृसत्ता बच्चेदानी पर नियन्त्रण करने वाली व्यवस्था है| – सुचित्रा दलवी
सुचित्रा दलवी जो की एक स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और मौजूदा समय में गर्भसमापन के मुद्दे पर देश-विदेश में बतौर प्रशिक्षक भी अपनी सक्रिय भूमिका अदा कर रही हैं| सुचित्रा जी गर्भसमापन के विषय पर केंद्रित इस प्रशिक्षण में मुख्य प्रशिक्षकों में से एक थी| उन्होंने गर्भसमापन की प्रक्रिया से लेकर गर्भनिरोधकों के उपायों से जुड़े इन सभी चिकित्सीय विषयों को सहजता से समझाया| इसके साथ ही, उन्होंने महिला स्वास्थ्य से जुड़े इन अहम मुद्दों पर पितृसत्ता के बारीक़ विचारों को भी उजागर किया| पितृसत्तात्मक व्यवस्था में गर्भसमापन को महिला-अधिकार के रूप में स्वीकार करने और इसे लागू करने में आने वाली समस्याओं के कारण पर उन्होंने प्रकाश डालते हुए कहा कि ‘पितृसत्ता बच्चेदानी पर नियन्त्रण करने वाली व्यवस्था है|’
गर्भसमापन के दृष्टिकोण से जनगणना को जन्मस्तर से देखने की ज़रूरत होती है| – अलका बरुआ
प्रशिक्षण के अंतर्गत गर्भसमापन से जुड़े आंकड़ों के खेल को अलका बरुआ ने भलीभांति समझाया| उन्होंने बताया कि अक्सर हमारे आंकड़ों की समझ जेंडर और समानता के मुद्दे पर हावी हो जाती है और इसके चलते हम अपनी सभी समस्या को आंकड़ों में बदलकर देखने लगते है| इसीलिए हमें किसी भी आंकड़ों पर बिना विश्लेष्ण किये आँख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए| वरना हमारी समझ सिर्फ आंकड़ों तक सीमित हो जायेगी|
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लिंगचयन अपराध है न की गर्भसमापन| – सुचित्रा दलवी
गर्भसमापन की जब भी बात होती है तो उसके साथ लिंगचयन का मुद्दा हमेशा जोड़ दिया जाता है और इसपर फैसला दिया जाता है कि ये गलत और गैर-क़ानूनी है| हमारी ऐसी धारणा की कई वजहें हैं जिसमें प्रमुख है – लिंगचयन को अपराध बताने की बजाय गर्भसमापन को गलत ठहराने की आदत| भारतीय संविधान में गर्भसमापन को वैधानिक रूप दिया गया है| वहीं लिंगचयन के आधार पर होने वाले गर्भसमापन को गैर-क़ानूनी माना गया है| ये दोनों अलग-अलग बातें हैं, जिसे समझना बेहद ज़रूरी है| मैंने अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुना है कि ‘भ्रूण कन्या हत्या का प्रमुख कारण गर्भसमापन की सुविधा का आसानी से उपलब्ध होना है|’ यहाँ ये समझने की ज़रूरत है कि अगर हम भ्रूण का लिंगचयन करते है तो मुख्य अपराध यही है| क्योंकि लिंगचयन के बाद गर्भसमापन हो या न हो, लिंग के आधार पर अच्छे-बुरे व्यवहार का शिकार भ्रूण को झेलना ही पड़ता है| इसलिए ज़रूरी है कि गर्भसमापन की बजाय लिंगचयन पर रोक लगाई जाए, जिससे महिलाओं के गर्भसमापन का अधिकार प्रभावित न हो|
भेदभाव का अहम मसला ‘मूल्य’ का होता है|
कई बार हमारे साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विषयों को अच्छे से समझते है और उसी आधार पर अपना एक विचार या दृष्टिकोण भी बनाते है| लेकिन जब हम उन विषयों पर कभी बहस करनी पड़ जाए तो हमारे तर्क सीमित से लगने लगते है| गर्भसमापन के विषय पर मैंने हमेशा से यही महसूस किया था, लेकिन इस प्रशिक्षण की ये सीख मेरी सबसे पसंदीदा रही जिसने मुझे एक बेहद मजबूत तर्क दिया कि ‘अपराध गर्भसमापन नहीं बल्कि लिंगचयन है’ और इसके आधार पर मैं अब कहीं भी गर्भसमापन की पैरोकारी कर सकती हूँ|
इन सबके साथ ही, प्रशिक्षण की संचालिका रही दिशा सेठी और रुप्सा मलिक जी का मित्रवत सहज व्यवहार और सरोकार से जुड़ा व्यवहारिक विचार इस पूरे प्रशिक्षण की अहम या यों कहें कि मज़बूत रीढ़ थी| कुल मिलाकर कहूँ तो मौजूदा समय में जब हर तरफ महिला-अधिकार की बात हो रही है तो ऐसे में ज़रूरी है कि गर्भसमापन जैसे अहम महिला-अधिकार के विषयों को समझा-परखा जाए और इसके लिए ऐसे प्रशिक्षण का आयोजन बेहद ज़रूरी है| ये न केवल आज के समय की मांग है बल्कि बेहतर भविष्य की भी यही मांग है|
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तस्वीर साभार : क्रिया