समाजकानून और नीति हम ही से है संविधान

हम ही से है संविधान

भारत जो विविधता का देश माना जाता है और शायद इसी विभिन्नता को केंद्र में रखकर संविधान की उद्घोषणा ‘हम’ से होती है| पर अब सवाल ये है कि क्या वास्तव में ये ‘हम’ इस संविधान के संरक्षण से बच पाया है? या सिलसिलेवार तरीके से इस ‘हम’ से कई विभिन्नताओं का बहिष्कार कर दिया गया है|

आज हम बात करने जा रहे है ‘हम’ की| ‘हम’ वो हम, जिसे हमारे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बकायदा लिखा गया है कि –

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए

दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा

इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।

हमारे देश के सर्वोच्च विधान को आज लागू हुए सत्तर साल हो चुके है| जब भी संविधान की प्रस्तावना को पढ़ती-सुनती हूँ तो कई बार मन में ये सवाल आता है कि कौन हैं ये ‘हम’, जिनके लिए देश का संविधान कटिबद्ध है? भारत जो विविधता का देश माना जाता है और शायद इसी विभिन्नता को केंद्र में रखकर संविधान की उद्घोषणा ‘हम’ से होती है| पर अब सवाल ये है कि क्या वास्तव में ये ‘हम’ इस संविधान के संरक्षण से बच पाया है? या सिलसिलेवार तरीके से इस ‘हम’ से कई विभिन्नताओं का बहिष्कार कर दिया गया है| आइये ज़रा हम इन पहलुओं को देखने की कोशिश करतें है| इससे पहले ये साफ़ कर दूँ कि जैसे संविधान हम सबका है वैसे ही ‘हम’ से बहिष्कार किसी एक व्यक्ति या दल द्वारा नहीं किया गया है, बल्कि ये सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है जो कभी धीमी तो कभी तेज़ गति से होता रहा है|

पहला सवाल ये है कि इस ‘हम’ में आधी आबादी शामिल है, जो आज भी तरह-तरह की यौन हिंसाओं और गैर बराबरी के तले कुचली जा रही है? घरेलू हिंसा, सार्वजनिक स्थलों, कार्यक्षेत्र व सामुदायिक हिंसा ऐसी एक भी जगह या पहचान नहीं है जिसने इन सबसे इतर औरत को बराबरी की पहचान दिलाई हो|

वहीं एल जी बी टी क्यू, ट्रान्सजेर और यौनकर्मी ये वो पहचाने है, जिनके हक़ में अभी तक मान-सम्मान-पहचान तक तो क्या आधारभूत समझ तक हमारे समाज में ठीक से विकसित नहीं हो पायी है| इसी तर्ज पर, दलित आदिवासी बहनें और समुदाय जो आज भी जल, जंगल और ज़मीन की अपनी लड़ाइयों में कोई जीत या फिर सांत्वना हासिल नहीं कर पाए हैं| आये दिन जेलों में सिर्फ अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने के मूलभूत अधिकारों के लिए अमानवीय व्यवहार झेलते-सहने के बावजूद कोई मरहम नहीं मिला|

दलित जो आज भी ना केवल जातीय बल्कि वर्गीय हिंसा से कुचले जा रहे है उनको भी असल मायनों में समता नहीं मिल पायी है| साथ ही, ज़मीनी स्तर पर उनके प्रति संकुचित मानसिकता में भी कोई कमी नहीं आयी है और  बदलाव तो दूर की बात है| 

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इसी तरह, उत्तर-पूर्व के साथी जिन्हें आज भी नक़्शे से बाहर मानकर देश दिल में अपना हिस्सा नहीं बना पाए हैं| उन्हें आज भी केवल अलग  संस्कृति, वेश-भूषा और खानपान के लिए पहचाना जाता है| या यों कहें कि इन्हीं आधारों पर अनदेखा किया जाता है| वहीं, अल्पमत के साथी जिन्हें आज भी शक की नज़रों से न केवल देखा जाता है बल्कि आसानी से भीड़ बनकर हमलों से दहलाया जाता है, उन्हें हर समय असुरक्षा का ना केवल अहसास कराया जाता है बल्कि उनकी सीमाएं भी खींची जाती है| ऐसे में जब हम एकतरफ देश की विभिन्नताओं पर दंभ भरते है, वही अगले ही पल समुदाय में रहने और सुरक्षा घेरे बनाने का दबाव बनाते है|


दलित आदिवासी बहनें और समुदाय जो आज भी जल, जंगल और ज़मीन की अपनी लड़ाइयों में कोई जीत या फिर सांत्वना हासिल नहीं कर पाए हैं|

अब तक की मेरी इस चर्चा से हो सकता है आपको ये लगे कि मैं उन पहलुओं पर बात कर रही हूँ, जिसपर बरसों से हल्ला हो रहा है| तो आइये आपके इस मुगालते को भी खंगाल लेते है, बात करते है कुछ संस्थानों और जाने माने प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी वर्ग की|

सबसे पहले बात करते है लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ ‘पत्रकारिता’ की| चकाचौंध-सी दिखने वाली दुनिया की सच्चाई ये है कि जब कोई पत्रकार अपनी कलम और कैमरे को जमीनी सरोकार से निष्पक्ष व बेबाक तरीके से जोड़ने की कोशिश करता है तो उसे कभी आपातकाल तो कभी निर्मम हत्या से नवाजा जाता है| इसका सबूत देता है साल 2018, जब सात जाने-माने पत्रकार मार दिए गए क्यूंकि उन्होंने सच उठाने और फ़ैलाने की कोशिश की|

उच्च संस्थाओं,विश्वविद्यालयों में किस तरह समता, बराबरी, बोलने की आज़ादी को ख़त्म किया जा रहा है, यह गहन चिन्तन का विषय है कि कैसे यहाँ खुला सोचने और बदलने वाली नस्ले पैदा हो पाएंगीं? फिर चाहे प्रोफेसर्स पर तरह-तरह की रोक लगाना, निष्कासन करना हो या विद्यार्थियों के हित में काम करने वाली स्वायत संस्थाओ पर अंकुश लगाना हो या उन पर थोपी जाने वाली बायोमेट्रिक निगरानी तकनीक या पी एच डी के लिए अनिवार्य मौखिक परीक्षा हो|

बड़ी अजीब बात है कि उस समाज में जहाँ हाशिये पर रहने वाले समुदायों तक शिक्षा नहीं पहुंच पाई है, वहां उच्च शिक्षा में तमाम नियम-कायदों का नारा लगाया जाता है| ऐसे में ये कहना कहीं से भी गलत नहीं होगा कि जिस तरह नीचे से लेकर ऊपर तक शिक्षा और शिक्षण संस्थाओं का निजीकरण हो रहा है, जल्द ही एक बड़ा तबका शिक्षा के अधिकार की इस दौड़ से बाहर हो जायेगा|

वहीं दूसरी तरफ गौरतलब है कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत जो महिला आरक्षण दिया गया, उसमें कई बाधाओं के बाद भी महिला पंचों ने जो बदलाव की मुहीम चलाई वो बड़ी क्रांतिकारी रही हैं| साथ ही इन प्रयासों से 33 फीसद महिला आरक्षण अभियान को भी संबल मिला| पर महिलाओं के इस राजनीतिक नेतृत्व को ग्राम पंचायत से राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की बजाय सरपंच चुनाव के लिए 8 पास होने की अनिवार्यता लागू की गयी| मतलब मौके उसकी झोली में होंगें, जिन्हें पहले से ही मौके मिले हों| फिर वो मौका प्राथमिक शिक्षा का ही क्यों न हो|  

अजीब बात है कि उस समाज में जहाँ हाशिये पर रहने वाले समुदायों तक शिक्षा नहीं पहुंच पाई है, वहां उच्च शिक्षा में तमाम नियम-कायदों का नारा लगाया जाता है|

छात्रों, वकीलों, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, एक्टिविस्ट्स/कायकर्ताओं, कलाकारों पर आये दिन जो देशद्रोह के इल्ज़ाम लगते है और किस तरह की अमानवीय हालातों में उन्हें जेलों में रखा जाता है वो उनके नागरिक होने के हक़ पर गहरी चोट है|कहते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी| इस ‘हम’ की तलाश या यों कहूँ कि इस ‘हम’ से निष्काषित की खोज इतनी बड़ी हैं कि वैश्विक स्तर पर हर तीन में से एक महिला अपने जीवन में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती है| तो साथिओं यही समय है कि ‘मैं’ को छोड़कर ‘हम’ को अपना ईमान बनाने का| तभी हम उस ‘हम’ को पा सकेंगे, जिसकी बात और रक्षा हमारा संविधान करता है| सच कहूँ तो चूक हमसे भी हुई है कि हमें बांटा गया और हमने उस बंटवारे को ना केवल स्वीकारा बल्कि पाला पोसा भी है| अब जब घर घर गीता, कुरान, बाइबल, गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ संविधान भी पढ़ा जायेगा वो ‘हम’ खुद-ब-खुद बन जायेगा|

फिर आइये साथ मिलकर ये प्रण करें कि ये संविधान हमारा है और हम एक है और एक होकर हमारे, हमारे द्वारा, हमारे लिए बने संविधान को हारने नहीं देंगे और एक ऐसे राष्ट्र निर्माण में भागीदार बनेंगे जो सबका और सबके लिए हो –  क्योंकि हमारा है संविधान हम से है संविधान…!

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तस्वीर साभार : steemit.com

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