इंसान के दिमाग में जब कोई सोच लंबे समय तक बनी हो तो वो एक विचारधारा का रूप ले लेती है और एक विचारधारा जब लंबे समय तक चले तो वो एक व्यवस्था का रूप ले लेती है| तीन लाइनों में मैंने ये बात जितनी आसानी से लिख दी है यकीन मानिए ये उतनी आसान वास्तविकता में है नहीं| ऐसे में एक लंबी प्रक्रिया के बाद स्थापित व्यवस्था को बदलने की कल्पना, बेहद दूर की कौड़ी बन जाती है|
इसी तर्ज पर, पितृसत्तात्मक समाज में महिला की प्रस्थिति को बदलना भी एक दूर की कौड़ी जैसा है| आधुनिकता के दौर में जीते हमारे समाज में यों तो अब हम बेहद आसानी से कहते हैं कि महिला और पुरुष समान है| लेकिन जब हम आंकड़ों और दिखाई पड़ने वाली समानता की तह पर नज़र डालते है तो ये तस्वीर एकदम उल्ट नज़र आती है| अब सवाल आता है इस असमानता को दूर करने के लिए किये जा रहे प्रयासों और उनके दूरगामी प्रभावों पर|
इसी कड़ी का एक अहम हिस्सा है – महिला आरक्षण विधेयक| बीते कई सालों से जब कोई नयी सरकार सत्ता में आती है तो हर बार की तरह महिला आरक्षण बिल पर बहस तेज़ होने लगती है और उम्मीद की कई किरणें नज़र आने लगती है| पर अब इसे दुर्भाग्य कहें, संयोग कहें या पितृसत्ता की सोची-समझी साजिश कहें कि ये किरणें कुछ ही समय बाद सत्ता की व्यवस्था के मंथन, फाइल और सरकारी प्रक्रिया के अंधियारे में ओझल-सी दिखाई देने लगती है|
चूँकि हाल में ही एकबार फिर से इस विषय पर चर्चा का दौर फिर शुरू हुआ है तो आइये हम इस विधेयक के कुछ और पहलुओं को समझने-जानने और उजागर करने की कोशिश करते हैं|
क्या है महिला आरक्षण बिल?
राज्य सभा से महिला आरक्षण विधेयक को बहुमत से पारित कर दिए जाने के बाद यह उम्मीद जगने लगी कि इसे ज़ल्द ही कानूनी रूप दे दिया जाएगा। इसे भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में मील का पत्थर माना जा रहा है। हालांकि अभी इसे लोकसभा और आधे से अधिक राज्यों से पारित किया जाना बाकी है| सरल शब्दों में कहा जाए तो महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी गले की फांस बना हुआ है। यह इनसे न तो उगलते बन रहा है न निगलते ही बन रहा है। पिछले दस से अधिक सालों से शायद ही कोई संसद सत्र होगा जिसमें महिला आरक्षण बिल की बात न उठी हो।
ये संविधान के 85 वें संशोधन का विधेयक है। इसके अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद सीटों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया है। इसी 33 फीसद में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी है। जिस तरह से इस आरक्षण विधेयक को पिछले कई सालों से बार-बार पारित होने से रोका जा रहा है या फिर राजनीतिक पार्टियों में इसे लेकर विरोध है इसे देखकर यह लगता है कि शायद ही यह कभी संसद में पारित हो सके।
महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी गले की फांस बना हुआ है।
शुरुआत से ज़ारी है विवादों का दौर
पहली बार इस विधेयक को देवगौड़ा के नेतृत्व वाली लोकसभा में साल 1996 में पेश किया गया था तब भी सत्तारूढ़ पक्ष में एक राय नहीं बन सकी थी। तब भी विधेयक की खिलाफत शरद यादव ने की थी और बीते साल जब बिल पेश किया जा रहा था तब भी शरद यादव ने ही इसका विरोध किया था। साल 1998 में जब इस विधेयक को पेश करने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री थंबी दुरै खड़े हुए थे तब संसद में इतना हंगामा हुआ और हाथापाई भी हुई उसके बाद उनके हाथ से विधेयक की प्रति को लेकर लोकसभा में ही फाड़ दिया गया था।
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लोकसभा में अटका महिला आरक्षण बिल
महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से पारित होने के बाद लोकसभा में अटका हुआ है। नायडू के उद्बोधन के बाद विभिन्न दलों से संबंधित महिला सांसदों ने इस विषय पर अपने विचार रखे और महिला आरक्षण विधेयक को ज़ल्द से ज़ल्द पारित किए जाने पर जोर दिया। वरिष्ठ कांग्रेस नेत्री अंबिका सोनी ने कहा था कि, ” संसद व विधानसभाओं में महिला आरक्षण बिल पारित कराने के लिए सदन की ओर से एक प्रस्ताव पारित करना चाहिए।” नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी ने इसका समर्थन करते हुए कहा था कि,” महिलाओं, खासकर छोटी-छोटी बच्चियों के विरुद्ध बढ़ रहे यौन अपराधों पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा सरकार को विपक्ष के साथ मिलकर देश में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने का वातावरण तैयार करना चाहिए।”
महिला आरक्षण विधेयक के समर्थकों का मानना है कि इससे महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
महिला आरक्षण विधेयक का प्रभाव
गौरतलब है कि आरक्षण से किस स्तर तक क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा । सरकारी नौकरियों में दिए गए आरक्षण के कारण निस्संदेह एक क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा, जो बिना आरक्षण शायद संभव नहीं हो पाता । आज समाज के सबसे निचले समुदाय का व्यक्ति बड़े पदों पर आसीन हो गया लेकिन यह भी उतना ही सही है कि आज दलितों में भी एक अभिजात्य वर्ग पैदा हो गया है। इस बीच में महिला की स्थिति जस की तस बनी हुई है|
आरक्षण का फायदा उठाकर उसी वर्ग को इसका लाभ लगातार पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलता जा रहा है, जबकि दूसरे लोग विकास के निचले पायदान पर ही पड़े हुए हैं। ये आरक्षण की मौजूदा स्थिति है| इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि महिला आरक्षण का भी यही हश्र न हो जाए । महिलाओं में भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता लानी होगी । शहरों में तो महिलाएँ कमोवेश अपने अधिकारों के प्रति जागृत हैं पर गांवों में यह काम व्यापक स्तर पर करना होगा । ये सिर्फ शिक्षा और जन-जागरूकता से ही संभव है ।निस्संदेह यह बदलाव जनजीवन के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करेगा । ऐसे में महिला आरक्षण विधेयक का महत्त्व और बढ़ जाता है । अगर वह अमल में आया तो महिला सशक्तीकरण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा । ऐसे में सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि इस विधेयक को लोकसभा में पारित कराकर महिलाओं के पक्ष में एक सकारात्मक संदेश भेजे ।
महिला आरक्षण विधेयक के समर्थकों का मानना है कि इससे महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा मिलेगा। जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। समावेशी लोकतंत्र में राजनैतिक सत्ता किसी भी तरह के भेदभाव को मिटाने का सबसे प्रभावी हथियार है। संसद और राजनीतिक दल पुरुष सत्ता का केंद्र नहीं रहेगी। लिंग-जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव घटेंगे।
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तस्वीर साभार : prabhatkhabar