इंटरसेक्शनल बच्चों के लिए रचने होंगें नये खेल और कहानी, लैंगिक समानता के वास्ते

बच्चों के लिए रचने होंगें नये खेल और कहानी, लैंगिक समानता के वास्ते

खेल और कहानियाँ केवल बच्चों का मन बहलाने का साधन नहीं हैं| इन्हीं से बच्चे सबसे अधिक सीखते हैं| ये उनके मस्तिष्क विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं|

आंचल बांवा

चलिए आज एक सफर पर निकल चलें| अरे जूता- चप्पल न पहन लीजिएगा क्योंकि यह सफर यादों का सफर है| वह गाना नहीं सुने? “यादों की बारात निकली है आज…” तो कुछ वैसा ही सफर| लेकिन सफर कि एक शर्त है, जैसा-जैसा में बोलती जाऊँ बस वैसा-वैसा ही चलना है| न इधर एक न उधर दो| तो अब दिमाग की खिड़की का ताला तोड़ झट से पहुंच जाइए अपने घर कि छत पर जहाँ आप तीन-चार दोस्तों के साथ खेल रहीं हैं ‘घर-घर’| अरे! घर-घर का खेल नहीं खेली आप, चलिए कोई न मेरी तरह ‘हाउस- हाउस’ खेली होंगी|

अब ध्यान से देखिएगा अपने सारे नन्हें अनुभवों को समेट कर आप सुबह की चाय तैयार कर रही हैं| संग की दूसरी लड़कियां भी या तो सब्जी काट रही हैं या साफ-सफाई में लगी है| लेकिन साथ खेलने वाले बदमाश लड़के केवल छोटे-छोटे कपों में चाय उड़ा, एक बैग हाथ में हिलाते निकल जाते हैं और थोड़ी देर बाद चीखते हैं कि ‘शाम हो गई, हम वापिस आ गए|’ अब उनके सामने पेश होता है रात का खाना जो वह मज़े से नोश फरमाते हैं और फिर बर्तन आपके हाथ में थमा इधर-उधर हो जाते है| कुछ ध्यान आया ? कुछ और यादों की सेर करें?

सुबह वाले खेल से थककर ‘अम्मा’ कि गोद में चलते हैं| प्यारी- प्यारी अम्मा !!! ज़रा रूको, पहले चलते हैं दादी के पास कहानियां सुनने| पर दादी के पास तो बस राम, कृष्णा , प्रह्लाद ही है…कोई योगमाया नही है, कोई शांता नही है… लेकिन यह सब तो पुराने लोग हैं| कोई नई कहानी चाहिए| चलो, टी|वी में खोजते हैं| इसमें सिंडरेला,स्नो वाइट ,लिटिल मरमेड, रॅपन्ज़ेल सब हैं और इन सबके साथ है एक सुंदर सपनों वाला राजकुमार जो बिलकुल उन बदमाश लड़कों जैसा नहीं है जो खेल में अपने बर्तन पकड़ा कर भाग जाते हैं| बल्कि यह तो अच्छा वाला राजकुमार है जो बुरे लोगों से बचता है और खूब सारा प्यार करता है| अगर यह राजकुमार न होता तो किसी होती बेचारी इन लड़कियों कि ज़िन्दगी ? कितनी सुंदर थीं यह सब | एक दम परियों जैसी| गोरा रंग, लम्बे बाल, मीठा गाला और चमकीली फ्रॉक| रुको!!! इनके आकर्षण में मत खोओ| वापिस लौट आओ|

अब सफर के बाद कुछ प्रश्नों का जवाब देना होगा| तो बताओ मेरी जान कुछ ऐसा ही था न बचपन? कुछ इस तरह के खेल और कहानियां? इसी तरह के कार्टून और आकर्षण? किसने बनाए थे इस ‘घर-घर’ या ‘हाउस हाउस’ के नियम? कितना प्रभावित हुए हैं हम इनसे? किताबों में खोजने पर भी मिली है क्या हमें कोई अपनी जैसी नायिका या वह जो हम होना चाहती थी या होना चाहती हैं? जब हम अपना इतिहास लिखेंगी तब भी बचपन को ऐसे ही याद रखेंगी?

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कहानियों से सीखते ‘हमारे बच्चे’

खेल और कहानियाँ केवल बच्चों का मन बहलाने का साधन नहीं हैं| इन्हीं से बच्चे सबसे अधिक सीखते हैं| यह उनके मस्तिष्क के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं| साइंस का भी मानन है कि कहानियाँ बच्चों की माइंड मैपिंग में महत्वपूर्ण हैं| जो बच्चे अधिक से अधिक कहानियाँ सुन कर बड़े होते हैं उनकी समझने और ध्यान रखने की शक्ति बेहद विकसत होती है| शायद इसी कारण हमारे यहाँ बच्चों को कहानियां कहने की एक परम्परा रही है| लेकिन एक सवाल बार -बार मन में उठता है कि इन खेलों और कहानियों के द्वारा यह किस तरह का ख़्वाब और परिवेश हमारे इर्द – गिर्द बनाया जा रहा है ?

हमारे मन में अनजाने में ही सही लेकिन बचपन से क्या भरा जा रहा है? कहीं हम इसके चलते ही तो सदियों से चली आ रही मानसिक गुलामी के लिए तैयार नहीं हो जाते? इसी कारण कहा गया है कि “औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है|” और इस औरत बनने की प्रक्रिया में शामिल है हमारे खेल-खिलौने, कहानियां और बचपन से ही बंदी कर ली गई मानसिकता| क्या कभी ऐसी कोई कहानी सुनी या सुनाई है जिसमें कोई लड़की गोवर्धन उठा ले? या किसी राक्षस का वध कर दे? या कोई ऐसी जंगल की कहानी जिसमें शेरनी के आते ही सारे जानवर डर कर छूमंतर हो जाते हों? इसका जवाब शायद ‘न’ होगा| यह कितना दुखद है कि इतने बड़े भारतीय आधुनिक समाज जहां कल्पना चावल, मदर टेरेसा, इंद्रा गाँधी जैसी सशक्त महिलाओं ने जन्म लिया है, उस समाज के पास अपनी बच्चियों को सुनाने के लिए कई सशक्त महिला होते हुए भी पात्र नहीं है|

खेल और कहानियाँ केवल बच्चों का मन बहलाने का साधन नहीं हैं|

फिर से रचे जाएँ ‘बाल साहित्य’

अमेरिका की साप्ताहिक समाचार पत्रिका ‘टाइम’ ने बच्चों की दुनिया की सबसे बेहतरीन 100 किताबों की एक सूची बनाई | इन 100 किताबों में से केवल 53 किताबें ऐसी हैं जिनके महिला पात्र कुछ बोल पाते हैं| लेकिन इन किताबों में भी अगर ऐसी किताबें ढूंढी जाएं जिनमें नयिकाओं के कुछ सपने हैं,कुछ आकांक्षाएं हैं, लेकिन बशर्तें ये आकांक्षाएं राजकुमारों से न जुड़ी हों, तो बेशक ये परिणाम चौका डालेंगे| क्योंकि ऐसी किताबों की गिनती न के समान है|

‘गेना डेविस इंस्टिट्यूट ऑन जेंडर एंड मीडिया’ की एक स्टडी रिपोर्ट 2013 में आई थी| इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में बच्चों द्वारा देखे जाने वाले कार्टूनों में केवल 19|5 प्रतिशत महिला पात्र कामकाजी हैं या व्यवसाय कि अपेक्षा करते हैं | इसके विपरीत इन कार्टूनों में 80|5 प्रतिशत पुरुष पात्र व्यावसायिक हैं या आकांक्षाएं रखते हैं| याद करो अपने बचपन में देखा गया या अपने बच्चों द्वारा देखे जाने वाले कोई भी कार्टून तस्वीर खुद साफ़ हो जायेगी |

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जिस समस्या की चर्चा की रही है, उस समस्या को लेखिका ‘एलेन फविल्लि’ और ‘फ्रान्सेसका कैवल्लो’ ने पहले ही अंकित कर लिया था| इन दोनों के प्रियासों से 2016 में ‘गुड नाईट स्टोरीज़ फॉर रिबेल गर्ल्स’ प्रकाशित हुई| हमारी बच्चियों के सशक्त सपने दिखने की कुंजी| पुस्तक में इन्होंने विश्व की सबसे सशक्त महिलाओं की कहानी कही है| यह कहानियां उनके जीवन का कॉमिक रूपांतरण है रुचिकर होने के साथ प्रभाव भी कायम करता है| ऐसे प्रयास और अधिक होने की अपेक्षा है ताकि हम कहानियों में ज्यादा से ज्यादा इंस्पिरेशन खोज पायें|

जहाँ से में देख रही हूँ, वहां से मुझे लगता है (जरुरी नहीं मेरा लगना आपको भी ठीक लगे) कि आज के समय में बाल साहित्य को हमारी नज़र से, हमारे लिए पुनः रचने की जरूरत है| हमें अपने लिए ऐसी सशक्त नायिकाएं चाहिए, जो किसी भी प्रकार पुरुष वर्चस्व से जुडी न हों| जिनकी एक दृष्टि घर (घर इसलिए क्योंकि आज भी हम खुद को इस से अलग देखने की कल्पना नहीं कर सकती) और दूसरी दृष्टि पूरे विश्व पर हो तभी हम खुद को और अपनी परिधि पर भविष्य में खड़ी होने वाली हर स्त्री को मानसिक गुलामी की जड़ों से आज़ादी दिला सकेंगी| हैं, हम बेशक अपना इतिहास सुनहरे कागजों पर लिख सकती हैं लेकिन उससे पहले जरूरत पितृसत्तात्मक खेल, कहानियां और आकर्षणों से मुक्त होने की है|


यह लेख आंचल बांवा ने लिखा है, जिसे इससे पहले मेरा रंग में प्रकाशित किया जा चुका है|

तस्वीर साभार : theweek

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