संस्कृतिकिताबें केट मिलेट की ‘सेक्शुअल पॉलिटिक्स’

केट मिलेट की ‘सेक्शुअल पॉलिटिक्स’

मिलेट ने लैंगिक परिप्रेक्ष्य में ही नहीं जाति, नस्ल, वर्ग के आधार पर होने वाले दमन को भी इस राजनीति यानी शक्ति संरचना में देखने की सिफारिश की।

दुनिया के स्त्रीवादी आंदोलनों में सबसे खूबसूरत समय शायद 1960-70 का स्त्रीवाद का दूसरा चरण ही होगा। साल 1928 में पुरुषों के समान मतदान का अधिकार पाने और दो विश्वयुद्धों में घर से बाहर निकली कामगर औरतें शांति काल में वापस घरों की ओर ढकेली जा चुकी थीं। युद्ध से लौटे पुरुषों को नौकरियों में पहली प्राथमिकता के तौर पर बहाल कर लिया गया था। स्कूल और कॉलेज मानो औरतों के लिए ‘मिसेज़ डिग्री’ पाने की जगह हो गए। करियर के नाम पर उनके सामने लक्ष्य खत्म हो गये। दूसरी ओर बाज़ार ने सौंदर्य को पूंजी में बदल कर स्त्री की देह को और आज़ादी को अपने अनुकूल बनाने के सब प्रयास किए। एक लम्बे समय तय स्त्रीवादियों में चुप्पी छाई रही। ऐसे में द्वितीय चरण का स्त्रीवादी आंदोलन बेहद खास था। औरतें गुस्से में थीं, वे सड़क पर थीं,वे पितृसत्ता के समूल नाश का स्वप्न संजोए थीं। एक और खास बात यह भी थी कि एक ओर स्त्रीवादी आंदोलन कर रही थीं, सड़कों पर थीं तो दूसरी ओर कुछ अकादमिक स्त्रीवादियाँ  स्त्रीवादी आंदोलन का वैचारिक आधार तैयार कर रही थीं । केट मिलेट की किताब ‘सेक्शुअल पॉलिटिक्स’ ऐसी ही एक किताब थी जिसने उस वक़्त के स्त्रीवादी आंदोलन के लिए वैचारिक भूमि तैयार की।

बयासी साल की उम्र में व्हील चेयर पर बैठ कर भी धरना –प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली केट मिलेट का 2017 में 6 सितम्बर को पेरिस में देहांत हो गया। ठीक एक हफ्ते बाद वे 83 वर्ष की हो चुकतीं। द्वितीय चरण के स्त्रीवाद की जुझारू योद्धा मिलेट 14 सितम्बर 1934 को मिनेसोटा में जन्मी और ऑक्स्फोर्ड यूनिवर्सिटी से पढाई की । स्त्री के संदर्भ में ‘पर्सनल इस पॉलिटिकल’ की जो व्याख्या उसने की उसने स्त्रीवाद पर अब तक किए जा रहे काम में एक क्रांति ला दी। कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में अपने डॉक्टरेट थीसिस के लिए केट ने ‘सेक्शुअल पॉलिटिक्स’ नाम की जो किताब जमा की वह जब 1970 में छप कर आई तो एक स्त्रीवाद के लिए बड़ी उपलब्धि साबित हुई। इस थीसिस के छ्पने से पूर्व ही मिलेट का एक लेख ‘’सेक्शुअल पॉलिटिक्स” के नाम से आ चुका था जो बाद में किताब में दूसरे अध्याय के तौर पर शामिल किया गया।  मिलेट इस किताब में बताती हैं कि कैसे पुरुषों ने स्त्री पर अपनी ताकत और सत्ता को बनाए रखने के लिए अपने अधिकारों को संस्थाबद्ध किया।

पितृसत्तात्मक मूल्यों और संस्कारों को उन्होंने विश्लेषित किया जिससे इस धारणा को चुनौती मिली कि स्त्रियाँ सहज रूप से पुरुष से शासित होने के योग्य हैं। अंग्रेज़ी ऑनर्स पढीं केट ने तीन लेखकों- नॉर्मन मेलर,हेनरी मिलर और डी. एच. लॉरेंस के यहाँ आए प्रेम प्रसंगों को उठाते हुए बताया कि कैसे स्त्री के दमन में पुरुषत्व निखरता है और  प्रेम में जेण्डर विभेद के नियम काम करते हैं। क्या लैंगिक राजनीति जैसी कोई चीज़ हो सकती है ? मिलेट कहती हैं कि यह निर्भर करता है इस पर कि राजनीति का आप क्या अर्थ लेते हैं। निश्चित रूप से यह बेहद संकुचित अर्थ में कॉन्ग्रेस, भाजपा, बसपा, सीपीआई वाली राजनीति नहीं है। राजनीति से अर्थ है ताकत और सत्ता संरचना जो रिश्तों में भी काम करती है, जो समाज में एक वर्ग को दूसरे पर प्रश्रय देती है। एक को श्रेष्ठ और एक को हीन बनाती है। 

मिलेट ने लैंगिक परिप्रेक्ष्य में ही नहीं  जाति, नस्ल, वर्ग के आधार पर होने वाले दमन को भी इस राजनीति यानी शक्ति संरचना में देखने की सिफारिश की। फ्रॉयड के मनोविश्लेषण पर निशाना साधते हुए मिलेट कहती हैं कि एक श्वेत मालिक और उसके अश्वेत नौकर के बीच का रिश्ता उनका निजी मसला नहीं है बल्कि एक नस्ल के दूसरी नस्ल पर नियंत्रण की तरह देखा जाना चाहिए। एक मज़ेदार उदाहरण दिया जा सकता है कि भारत में आज़ादी के बाद सन पचहत्तर के आस-पास जो दहेज विरोधी आंदोलन हुए उनमें बहुतायत से यह बात सामने आयी कि दहेज हत्या और प्रताड़ना पर रिश्तेदारों और पड़ोसियों की चुप्पी के साथ साथ पुलिस भी केस इसलिए दर्ज नहीं करती थी कि यह एक परिवार का ‘निजी मसला’ है। कोई अपनी पत्नी के साथ हिंसा करता है तो यह उसका निजी सवाल एकदम नहीं हो सकता। पितृसत्ता उसे यह अधिकार और ताकत देती है कि वह स्त्रियों और बच्चों और कमज़ोरों के साथ हिंसा करे।

आम लोगों के बीच धारणा है कि स्त्रीवादी प्रेम नहीं करतीं जबकि एक स्त्रीवादी प्रेम के उदात्त भावों से भरी होती है।


स्त्री-पुरुष सम्बंधों को एक रोमाण्टिक प्रेम, जिसे स्त्रीवादियाँ सामंती प्रेम कहती हैं, के तहत देखने वाली मानसिकता के लिए यह सुन सकना आंदोलन की शुरुआत था कि दर असल स्त्री-पुरुष सम्बंधों के बीच भी एक राजनीति काम करती है जो गहरे हमारी नसों में धँसी हुई है। मिलेट को स्त्रीवादी नहीं होना था, यह तो उनका डॉक्टरल रिसर्च था। 

मूलत: वह एक कलाकार थी। एक मूर्तिकार। बाद में उसने स्त्री कलाकारों की एक कॉलनी भी बसाई। लेकिन 1970 में ‘टाइम’ मैगज़ीन के मुखपृष्ठ पर आने से मिली प्रसिद्धि ने मानो मिलेट को अपनी ओर खींच लिया। टाइम ने उन्हें स्त्रीवाद की ‘माओ त्से तुंग’ कहा। परिणाम:  मिलेट भारी आलोचना का शिकार भी हुईं। लिबरल स्त्रीवादी भी उनकी विरोधी हुईं। समलैंगिकता के पक्ष में होने की वजह से बेट्टी फ्रीडन ने भी मिलेट की आलोचना का निशाना बनीं।  बेट्टी को लगा कि इस तरह के विचलन आंदोलन को उसके सबसे तेज़ समय में बिखरा सकते हैं। बाद में एण्ड्रिया ड्वोर्किन ने लिखा कि अपनी किताब ‘फेमिनिन मिस्टीक’ में बेट्टी ने स्त्री की जिस अनाम समस्या का ज़िक्र किया था मिलेट ने उसी को नाम देने का काम किया। यह लैंगिक राजनीति की समस्या है। संस्थाबद्ध लैंगिक राजनीति और विवाह की संस्था इसका सबसे बड़ा मठ।

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बेट्टी फ्रीडन के नेशनल ऑर्गनाइज़ेशन फॉर विमेन के गठन के एक साल बाद मिलेट इसकी सदस्य बनीं। लेकिन जल्दी ही मिलेट गे-लेस्बियन आंदोलन की तरफ मुड गईं। बेट्टी लेस्बियन आंदोलन से इत्तेफाक नहीं रखती थीं। उनके लिए वे ‘लेवेण्डर मिनेस’ थीं। स्त्री आंदोलन के लिए हानिकारक। अपने आखिरी साक्षात्कार में मिलेट ने स्वीकारा कि हम जैसी उद्दण्ड नई क़ौम उनके लक्ष्य में बाधा पैदा कर रहे थे क्योंकि वे चाहती थीं हम अनुशासित हों जोकि हम थे ही नहीं। लेकिन स्त्रियों के प्रति उनका प्रेम इतना अगाध था कि फ्रीडन को उन्होंने हमेशा एक योद्धा की तरह याद किया। सेक्शुअल पॉलिटिक्स से कमाया पैसा उसने वेश्याओं को दे दिया। किसी भी मीटिंग, प्रदर्शन, विरोध में हमेशा जाती थी और स्त्रीवाद की एक प्रबल पैरोकार की तरह बोलती थी। उनके बारे में एलियनर पाम लिखती हैं कि हज़ार स्त्रीवादी संगठन भी होते तो मिलेट उन सबमें शामिल होती।

विवाह को स्त्री के शोषण के अड्डे की तरह पहचनना सिर्फ केट मिलेट की नहीं द्वितीय चरण के स्त्रीवादी आंदोलन ही विशेषता थी। जर्मेन ग्रीयर और शुलमिथ फायरस्टोन भी इसी मत की थीं। ग्रीयर का कहना था कि यदि स्त्री विवाह न करे और इस तरह अपना सारा श्रम वापस ले ले तो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था ढह जाएगी। शुलमिथ फायरस्टोन भी इस लैंगिक अंतर्द्वंद्व में स्त्री –पुरुष सम्बंधों में ‘प्रेम’ को अ-राजनीतिक और पवित्र की श्रेणी में रखने के खिलाफ दिखीं। विवाह संस्था पर सवाल उठाना ही द्वितीय चरण के आंदोलन के लिए बाद में सबसे ज़्यादा आलोचनाओं की वजह बना। संस्थाएँ विद्रोह नहीं सहतीं। मतदान का अधिकार भद्र पुरुषों द्वारा‘दे दिए जाने’ के बावजूद भी औरतों की भूख शांत नहीं हो रही थी तो पढने, मॉडलिंग करने और नौकरी के लिए भी दरवाज़े खोल दिए गए। लेकिन संरचना से ही बाहर हो जाने की इच्छा पितृसत्ता के लिए खतरनाक थी। थोड़ा- सा हाथ पैर फैलाने की बजाय फ्रेम से ही बाहर आ जाने की स्त्रियों की कामना को बरदाश्त लम्बे समय तक नहीं किया गया।

केट मिलेट अपने प्रेम सम्बंधों के लिए आलोचना के घेरे में आती रहीं।


मिलेट का उभयलिंगी होना भी उनकी आलोचना का कारण हुआ। बहनापे का यह विस्तार स्वीकार भी कर लिया जाता लेकिन लेस्बियन समुदाय ने उनके उभय होने की वजह से उनकी आलोचना की और बेट्टी फ्रीडन ने उनके लेस्बियन होने की वजह से। सोफी के साथ अपने सम्बंधों के चलते वे ईरान में गिरफ्तार भी हुईं और इस प्रसंग को अपनी किताब ‘गोइंग टू इरान’ में कलमबद्ध भी किया। प्रसिद्धि से दूर रहने के पर्याप्त प्रयासों में मिलेट अवसाद का शिकार भी हुईं । उन्हें बाइपोलर डिसॉर्डर पाया गया और असायलम में इलाज भी चला। अपने इन अनुभवों को – द लूनी बिन ट्रिप और द पॉलिटिक्स ऑफ क्रुएल्टी में दर्ज किया। । 1965 में एक जापानी मूर्तिकार फ्यूमियो याशिमुरा से शादी की। उनकी सबसे पुरानी मित्र एलियनर पाम केट मिलेट की ऑफिशियल वेबसाइट पर उनका परिचय लिखती हुई कहती हैं कि फ्यूमियो से उन्होंने उसकी आव्रजन समस्या के हल के लिए शादी की। 1985 में उनका विवाह खत्म हुआ। वह एक ऐसी अराजक थी जिसने कानूनों को तोड़े बिना ही उन्हें धता बताया। एक ऐसी स्त्री जो स्त्रियों को प्यार करती थी।

केट मिलेट और रेडिकल स्त्रीवाद पर बात करते हुए उस न्यू यॉर्क रेडिकल विमेन समूह का भी उल्लेख करना होगा जिसका विरोध ब्रा-बर्निंग तक सीमित मान लिया गया और पूरे द्वितीय चरण के स्त्री आंदोलन को ब्रा-बर्निंग आंदोलन का नाम दे दिया गया। जबकि सच यह है कि ब्रा-बर्निंग जैसा कुछ हुआ नहीं था। मिस अमेरिका सौंदर्य प्रतियोगिता का विरोध करने के लिए रैडिकल स्त्रीवादी पहुँची थीं और सौंदर्य प्रतिमानों को खारिज करने के संकेत रूप में ब्रा कूड़ेदान में डाली गई थीं। लेकिन औरतों ने जलते हुए अंगवस्त्र हवा में लहराए थे यह कल्पित है। बहुत कुछ मीडिया का उड़ा दिया गया।

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मज़ेदार है यह कि जो हुआ ही नहीं था वह कैसे लोगों की स्मृति का हिस्सा बन गया ! इसकी वजह शायद यही रही कि ब्रा-बर्निंग की बात कहकर स्त्रीवादियों के आंदोलन की गम्भीरता को ही कम ही नहीं किया गया बल्कि द्वितीय चरण के आंदोलन के बड़े मुद्दों – गर्भसमापन का अधिकार, समान काम समान वेतन के अधिकार का मुद्दा, देह पर अधिकार के प्रश्न को दबा दिया गया। हाँ, रेडिकल स्त्रीवादियों ने चाहा कि पितृसत्ता का नाश हो। विवाह और शिशु पालन पर सवाल उठाए। लेकिन परिवावादी ताकतों और पितृसत्ता ने इसे रोकने की भरपूर कोशिश की। ब्रा-लेस को ब्रेन-लेस ही नहीं कहा बल्कि ब्रा ना पहनने को एक उत्तेजक, भड़काऊ चीज़ बना दिया। सूसन फालुदी अपनी किताब ‘बैकलैश’ में विस्तार से इस पूरी परिघटना को समझाती हैं कि कैसे द्वितीय चरण के स्त्रीवादी आंदोलन के विरोध में मीडिया जनित एक प्रतिक्रिया की शुरुआत हुई और अंतत: सिद्ध किया गया कि फेमिनिस्म एक जीता हुआ युद्ध है जिसमें अब कुछ करने को नहीं बचा। विमेन स्टडीज़ के नए नए विभाग तो खुलने लगे तो केट मिलेट की किताबों को किताबों की सूची से बाहर कर दिया गया। उनकी छ्पाई बंद हो गई। स्त्री-अध्ययन के नए बाज़ार के लिए केट को स्वाभाविक तौर पर महत्वपूर्ण होना चाहिए था। लेकिन, एलियनर पाम लिखती हैं – ‘ऐसा नहीं था कि सिर्फ किताबें छ्पना बंद हुईं, केट फैशन से ही बाहर हो गई।‘ 

अपनी किताब ‘सेक्शुअल/ टेक्श्चुअल पॉलिटिक्स ’  में टॉरिल मॉय लिखती हैं कि केट एक बिंदास अक्खड़ बच्चे की तरह लेखक की हेजेमनी को चुनौती देते हुए लिखती हैं और संस्थाबद्ध- गैर-संस्थाबद्ध आलोचना के बीच ही नहीं आलोचना और स्त्रीवादी आंदोलन के बीच पुल बनाती हैं। सेक्शुअल पॉलिटिक्स ने दुनिया भर में स्त्रीवादी आंदोलन की भीतर और बाहर अपना प्रभाव बनाया। वे अपने लेखन में मौलिक थीं लेकिन सीमोन द बोवा से सम्भवत: सबसे ज़्यादा प्रभावित थीं लेकिन किताब में उनका ज़िक्र सिर्फ दो बार आता है। अपनी पूरववर्ती लेखिकाओं का भी यहाँ ज़िक्र नहीं है। सम्भव है, पुरुष लेखकों की स्त्री-लेखन के पाठ में होने वाली अरुचि और आस्वाद की समस्या मिलेट के लिए मुख्य समस्या थी।

आम लोगों के बीच धारणा है कि स्त्रीवादी प्रेम नहीं करतीं जबकि एक स्त्रीवादी प्रेम के उदात्त भावों से भरी होती है। एक ऐसा प्रेम जिसमें दमन की राजनीति न हो, दो लोग बराबर हिस्से हों, असुरक्षाएँ और नियंत्रण जहाँ सम्बंधों को तय न करते हों। केट मिलेट अपने प्रेम सम्बंधों के लिए आलोचना के घेरे में आती रहीं। उनके संतान नहीं थीं और आजीवन वे एक रैडिकल स्त्रीवादी की तरह जीं। सेक्शुअल पॉलिटिक्स में वे लिखती हैं कि पहली बार हम एक बराबरी के समाज के लिए संघर्ष करने खड़े हुए हैं और इस संघर्ष की शुरुआत हमें प्रेम से करनी होगी- हम सब , अश्वेत,श्वेत, स्त्री, पुरुष…। एक व्यक्ति, एक स्त्री जो अपने सम्पूर्ण जीवन को सामूहिक हितों के लिए समर्पित कर सकती है उससे बड़ा मनुष्यता का प्रेमी भी कोई हो सकता है? 

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यह लेख इससे पहले चोखेरबाली ब्लॉग में प्रकाशित किया जा चुका है, जिसे सुजाता ने लिखा है|

तस्वीर साभार : Barbara Alper/Getty Images

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