संस्कृतिकिताबें प्रेम में पेड़ होना: प्रेम के अलग-अलग मायनों को सामने रखता एक कविता संग्रह

प्रेम में पेड़ होना: प्रेम के अलग-अलग मायनों को सामने रखता एक कविता संग्रह

इस संग्रह में बहुत सवाल उठाये गए हैं, चिंता जाहिर की गई है। सवाल जो बहुत छोटे हैं पर उतने ही ज़रूरी है। क्यों हमारी पहचान आपको स्वीकार नहीं?, चिंता सबको एक जैसा बना देने की और हिंसा के ख़िलाफ़ प्रतिरोध है।

जसिंता केरकेट्टा आदिवासी कवयित्री हैं। वह लगातार आदिवासी हक़ के लिए लिखती, बोलती रहीं हैं। इस साल राजकमल प्रकाशन से उनका नया काव्य संग्रह ‘प्रेम में पेड़ होना’ प्रकाशित हुआ। पिछले संग्रह ‘ईश्वर और बाज़ार’ में जहाँ उन्होंने ईश्वर की सत्ता को लगातार प्रश्नांकित किया, वहीं यह संग्रह प्रेम का एक अलग स्वर तलाशने की कोशिश करता है। वह ख़ुद इसे प्रेम कविताओं का संकलन मानती हैं। यह प्रेम निर्वात में नहीं हो रहा है। उसकी एक सामाजिक स्थिति है। प्रेम में पेड़ होने के आखिर क्या मायने हैं, इस पर मैं बहुत देर तक सोचता रहा। ये मुझे सुमन रॉय की किताब ‘हाऊ आय बिकेम अ ट्री’ की याद दिलाता रहा। जसिंता के लिए पेड़ प्रतिरोध का प्रतीक है। पेड़ जिसकी जड़े ज़मीन में गहरे जाती हैं तो शिखर आसमान छूता है। पेड़ जिसमें धैर्य है, स्वार्थहीनता है। जसिंता आदिवासियत के इस प्रेम-दर्शन को प्रेम के रूपक के सहारे गढ़ती हैं। एक कविता में वह लिखती हैं -“सोचती हूँ, आदिवासी दुनिया में कैसे, प्रेम भी पेड़ हो जाता है।” 

सबसे ज्यादा कविताएं प्रेम पर लिखी गईं। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो अपने प्रेम से भरे और अच्छे होने का दावा न करता हो। यदि हर तरफ़ इतना प्रेम है तो दुनिया हिंसा से क्यों भरी हुई है? कौन लोग हैं जो नफ़रत फैला रहे हैं? दुनिया की तमाम हिंसा के केंद्र में सत्ता है। प्रेम में इस सत्ता का प्रवेश वर्चस्व स्थापित करने लगा। विवाह की संस्था ऐसे ही समय उपजी। किताब की भूमिका में जसिंता लिखती हैं, “वर्चस्ववादी समाज की नींव स्त्रियों की सेक्सुअलिटी के नियंत्रण पर ही टिकी हुई है। विवाह की संस्था ऐसे ही समाज को मजबूती देता है। इसलिये प्रेम के नाम पर अधिकार स्थापित करना, क़ब्ज़ा जमाना, नियंत्रण करना महत्वपूर्ण होता चला गया।”

आदिवासी जीवन-दर्शन में प्रकृति किस तरह जीवन में शामिल होती है इसकी बानगी के लिए ‘जब पेड़ उखड़ता है’ कविता देखिए। पेड़ और कवि दोनों माँ के स्पर्श के साथ बड़े हुए हैं। दोनों में लगभग सहोदर-सा संबंध है।

प्रेम में एक बार सत्ता का प्रवेश हो गया तो एक-दूसरे को समझने का भाव नहीं बचता है। एक खींचतान होती है ‘सही’ होने की। ‘प्रेम में कोई तुम्हें कितना समझ पाता है’ शीर्षक से लिखी कविता में जसिंता कहती हैं- 

“किसने कहा है ऐसा 

प्रेम में जो तुम्हारा है सब उसका है 

प्रेम में स्त्री देह तो उसकी हो जाती है 

पर स्त्री के सपने, उसकी ख़ुशी और मनमर्जी भी सबकुछ क्या कभी वह समझ पाता है?”

प्रेम को देखने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि उन सारे लोगों से भी प्रेम करना जो तुमसे प्रेम करते हैं। त्रिलोचन का ये कहना, ‘मुझे जगत जीवन का प्रेमी/बना रहा है प्यार तुम्हारा’ उसी तरह का उदात्त प्रेम है। जसिंता लिखती हैं ,“वे सब जो अपने हिस्से का प्रेम करते हैं तुमसे, उनका भी कृतज्ञ हूँ मैं।” दूसरी ओर मुल्क में राष्ट्रवाद का शोर है। सत्ता में बैठे लोग हर तरह की ‘पहचान’ को ख़त्म कर देना चाहते हैं। उनके लिए पहचान एक ही तरह की होनी चाहिए, जैसे वो हैं। उसके अतिरिक्त कुछ स्वीकार्य नहीं। जसिंता इस विडंबना को कविता में दर्ज करते हुए लिखती हैं – 

“इधर देश के प्रेम में कुछ लोग

सबको ‘एक’ कर देना चाहते हैं 

जो ‘एक’ न हो पाए, वे मारे जाते हैं 

प्रेम के नाम पर

सबको एक करने की चाहत में 

वे मनुष्य भी नहीं रह पाते हैं”

तस्वीर साभारः Rajkamal Prakashan

संबंधों की अपनी सत्ता होती है। एक अतिरिक्त आग्रह, एक अतिरिक्त दबाव जहाँ आपको इतना ही खुलना है। कई बार व्यक्ति की स्वतंत्रता को यह बहुत प्रभावित करता है। मसलन ‘बड़ों’ के सामने ऐसे नहीं बोलना चाहिए। संबंधों की प्रगाढ़ता सबसे अधिक ‘मित्रवत’ होने में है। ‘मित्र’ शीर्षक से लिखी इस कविता को देखिए – 

 “मैं समझता हूँ 

पिता को पितृसत्ता खड़ा करती है 

इसलिए मैं अपने बच्चों को मित्र की तरह देखता हूँ जैसे तुम्हें देखता हूँ।”

संबंध में जब ये दोस्ती का अभाव होता है तो उसकी टीस भी झलकती है। एक दूसरी कविता में जसिंता लिखती हैं-“तुम्हारे पिता भी साथी भर होते, तो मेरा जीवन कुछ और होता।” आदिवासी जीवन-दर्शन में प्रकृति किस तरह जीवन में शामिल होती है इसकी बानगी के लिए ‘जब पेड़ उखड़ता है’ कविता देखिए। पेड़ और कवि दोनों माँ के स्पर्श के साथ बड़े हुए हैं। दोनों में लगभग सहोदर-सा संबंध है। पेड़ों, जंगलों में पुरखों का स्पर्श बचा हुआ है। उनकी स्मृति बची हुई है। जब ये पेड़ उखड़ता है तो महज़ वही नहीं उखड़ता है। उसके साथ एक स्मृति उखड़ जाती है। एक स्पर्श छूट जाता है। वहीं पूँजीवाद ने मुक्त बाजार की संकल्पना की। लेकिन हम मुक्त नहीं हुए। हम लगातार जकड़ते चले गए। पूंजी की जकड़ में, उसकी सत्ता के जकड़ में। एक कविता में जसिंता लिखती हैं-

“उधर ऊँची क़ीमत पर 

शहर को बाज़ार बन्धक बनाता है 

इधर सस्ते में हर गाँव को 

बनिया-साहूकार बन्धक बनाता है 

बन्धक गाँव जब आवाज़ उठाता है 

तो यह देश समझता है 

जंगल सिर्फ़ प्रतिरोध करता है।”

एक सवाल जो लगातार स्त्रियों द्वारा उठाया जा रहा है वो है मालिकाना हक़ का। उनको भी संपत्ति का अधिकार है। ज़मीनों में उनकी हिस्सेदारी है। कानून भी अब इस बात की पैरवी करने लगा था। लेकिन असल में तस्वीर कुछ और ही है। कितनी ही औरतें होंगी जिनके पास खेत का मालिकाना हक़ होगा? वो ताउम्र उस ज़मीन पर खटती हैं लेकिन उनके हिस्से क्या आता है? कवि इस चीज़ को कविता में दर्ज करती हैं- 

“पुरखों के साथ-साथ पुरखिनों ने भी

एक खेत बनाने में 

अपना खून-पसीना बहाया

पर उसके हिस्से में ज़मीन का

कोई टुकड़ा कभी नहीं आया”

आलम ये है किसान कहते हमारे सामने सिर्फ़ पुरुषों की छवि उभरती रही है। इस हद तक हमने इस धारणा का सामान्यीकरण कर दिया है। तो वो तमाम औरतें जिन्होंने अपना जीवन खेत में खपा दिया, उनका क्या? अपने ही खेत पर बंधुआ मजदूरी कर रही हैं औरतें। पर क्या खेत ‘अपना’ है? सारी लड़ाई ही इस अपने के न होने की है। एक दूसरी कविता में जसिंता लिखती हैं- 

“उनका कोई खेत नहीं होता

वे इस धरती पर, जीवन-भर

किसी ना किसी के खेत की

सिर्फ़ बँधुआ मज़दूर होती हैं”

कश्मीर से धारा 370 हटाये जाते समय भाजपा के नेताओं की टिप्पणी याद करिये। एक मुख्यमंत्री ने यह तक कहा कि हमारे लड़के कश्मीर से बहू लायेंगे। कश्मीर की पूरी पहचान इनके लिए इतनी भर है। आप मणिपुर याद कीजिए। बीते दशक में आदिवासी इलाकों में मौजूदा सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं है। जसिंता इसका प्रतिरोध करती हैं- 

“कंक्रीट के जंगल से निकलकर 

भेड़िए गाँव-जंगल की ओर आते हैं 

और मुर्गी, बकरी के साथ स्त्रियाँ भी खींच ले जाते हैं

गाँव जब गाँव में उनके घुसने पर पाबन्दी लगाते हैं 

तब सारे भेड़िए एकजुट होकर चिल्लाते हैं 

यह तो इस देश में उनके कहीं भी आने-जाने 

और किसी भी इलाके में 

घुसने की स्वतंत्रता का हनन है।”

एक सवाल जो लगातार स्त्रियों द्वारा उठाया जा रहा है वो है मालिकाना हक़ का। उनको भी संपत्ति का अधिकार है। ज़मीनों में उनकी हिस्सेदारी है। कानून भी अब इस बात की पैरवी करने लगा था। लेकिन असल में तस्वीर कुछ और ही है।

अंग्रेज़ों ने भारत को गुलाम बनाया तो उसे जायज़ ठहराने के लिए लगातार तर्क देते रहे कि भारतीय असभ्य हैं, बर्बर हैं। उन्हें सभ्यता बनाने के लिए अंग्रेजों को भारत पर शासन करने की ज़रूरत है। आजादी मिलने के बाद भारतीय ख़ुद विकास के नाम पर आदिवासियों को असभ्य कहकर उनकी जीवनशैली उजाड़ने लगे। विकास के नाम पर बरती गई हिंसा को तो हिंसा माना भी नहीं जाता। बाहर से देखने पर तो ये हिंसा प्रतीत भी नहीं होती है। एक ख़ास तरह के रहन-सहन के लोग अब तय करेंगे कि कौन कैसे रहेगा, क्या खायेगा। जंगल की लड़ाई लड़ने वाली जसिंता पूछती हैं- 

“दुनिया के हर कोने में, हर जगह 

क्यों मेरी ही हत्या आम है? 

क्यों हर हत्या का कोई न कोई सुन्दर नाम है?”

इस संग्रह में बहुत सवाल उठाये गए हैं, चिंता जाहिर की गई है। सवाल जो जो बहुत छोटे हैं पर उतने ही ज़रूरी है। क्यों हमारी पहचान आपको स्वीकार नहीं?, चिंता सबको एक जैसा बना देने की और हिंसा के ख़िलाफ़ प्रतिरोध है। एक छोटी-सी इच्छा कि सब से प्रेम किया जाए। पेड़-पौधे, पत्तियों, नदियों से आत्मीयता हो। पिछले संग्रह ‘ईश्वर और बाज़ार’ की अपेक्षा इस संग्रह की कविताएँ थोड़ी कमजोर नज़र आती हैं। कुछ कविताओं में सपाट बयानी दिखती है। इन सबके बावजूद इन कविताओं से गुजरने की ज़रूरत है। हर कवि की चिंता होती है कि वह कुछ बचा ले। कुछ बुनियादी मूल्य बचा ले। जसिंता प्रेम की वकालत करती हैं। कविताओं की बुनियाद में भी प्रेम ही है। बकौल जसिंता, ‘जीवन से प्रेम के खो जाते ही कविताएँ भी एक दिन खो जाएँगी।’


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