विश्व में न जाने कितनी ही ऐसी कुप्रथाएं और कुरीतियां हैं जिनसे महिलाएं अपने दैनिक जीवन में प्रताड़ित हो रही हैं। एक तरह से देखा जाये तो उन्हें इसकी आदत सी हो गयी है, जोac महिलायें इन मुद्दों के खिलाफ अपनी बात रखना चाहती भी हैं, उन्हें घरवालों और समाज की दखियानूसी सोच चुप करवाकर बैठा देती है। यहाँ मैं किसी और की नहीं बल्कि आपकी और अपनी बात ही कर रही हूँ। यह लेख लिखते वक़्त भी मुझे अपने परिवार के रूढ़िवादी विचारों का चुपचाप सामना करना पड़ रहा है।
केवल शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक व भावनात्मक रूप से भी ऐसी प्रताड़ना हमारी स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलों को बढ़ा सकती हैं। आज की पीढ़ी वैसे ही अपने खान-पान और रहन-सहन की वजह से ना जाने कितने ही रोगों का शिकार हो रही है। ऐसे में अगर बात महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर आ जाये तो इससे ज़रूरी और कुछ नहीं। क़ुदरत ने स्त्रियों को दुनिया चलाने की शक्ति दी है। लेकिन समाज की गढ़ी गयी रूढ़िवादी सोच से पनपी कुछ कुरीतियां इस शक्ति को कमज़ोर करने में आज भी नंबर वन हैं।
सदियों से चली आ रही ऐसी बहुत सी प्रथाएं और मान्यताएँ हैं जो एक औरत की अंतरात्मा को खोखला कर देती हैं। ये स्त्री द्वेषी विचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे जा रहे हैं। हाँ यह ज़रूर है कि धीरे-धीरे शिक्षा व जागरूकता से इनमें बदलाव आ रहा है। पर ग्रामीण क्षेत्रों और पिछड़े इलाकों में ये अब भी चलन में हैं। चाहे बात करें माहवारी से जुड़े मिथकों की या फिर यौन सम्बंधित विषयों की हर तीर का निशाना स्त्रियाँ ही होती हैं। आइये समय व्यर्थ ना करते हुए जानते हैं कुछ ऐसी प्रथाओं और स्त्री द्वेषी विचारधाराओं के बारे में जो आज भी समाज में ज़हर घोल रही हैं।
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1. माहवारी के समय महिलाओं का बहिष्कार
रसोईघर से दूर रहना, मंदिरों के आसपास ना जाना, यहाँ तक की सात दिन घर के बाहर रहना और अलग बर्तनों का इस्तेमाल करना। आज भी ऐसी बहुत-सी बच्चियां और स्त्रियाँ हैं जिन्हें यह प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। उन्हें अपने ही घर के बाहर खाना पकाना पड़ता है। सोना पड़ता है और छुआछूत का सामना करना पड़ता है। इस समय वैसे ही महिलाएं शारीरिक रूप से दर्द व कमज़ोरी से जूझती हैं, ऐसे में मानसिक प्रताड़ना अलग से दे दी जाती है। गंदे कपड़े का इस्तेमाल और सही खानपान का न मिल पाना तो हम सबको पता ही है। यह सारी चीज़ें कुल मिलाकर एक महिला के प्रजनन स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल सकती हैं।
2. महिलाओं के गुप्तांगों का ख़तना
आपने बहुत बार सुना होगा की कुछ धर्मों (खासकर मुस्लिमों के बोहरा समाज) में छोटी उम्र में ही बच्चियों के गुप्तांगों (अधिकतर क्लाइटोरिस) को हटा दिया जाता है ताकि उन्हें सेक्सुअल आनंद ना मिल सके। यह बहुत ही दर्दनाक प्रक्रिया होती है जिसमें बच्चियों को एनेस्थेशिया तक नहीं दिया जाता। इससे महिलाओं की मौत के मामले भी सामने आये हैं। यह भारत, पाकिस्तान समेत बहुत से यूरोपियन देशों में होता है। यूनाइटेड नेशंस ने इस घातक प्रक्रिया को साल 2030 तक पूरे विश्व में ख़त्म करने का प्रण लिया है।
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3. शादी से पहले विर्जिनिटी की जाँच
लड़की अगर वर्जिन (उसने किसी पुरुष से संभोग न किया हो, जिससे उसका हायमन मौजूद हो) ना हो तो समाज में हाहाकार मच जाता है। उस पर उंगलियां उठायी जाती हैं और हर मुमकिन तरीके से अपने ही लोग प्रताड़ित करते हैं। हालात यह हैं कि ना जाने कितने ही परिवारों में लड़की का विर्जिनिटी टेस्ट करवाया जाता है जिसे आप “टू फिंगर टेस्ट” के नाम से भी जानते हैं। यह हम सभी के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है क्योंकि यह उसी पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी सोच का नतीजा है जिससे हम सभी छुटकारा पाना चाहते हैं। लड़कियों को बेमतलब शर्मसार किया जाता है, जीवनभर ताने सुनाये जाते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं।
4. यौन संबंधों पर स्त्री रोग विशेषज्ञों का जजमेंट
शादी से पहले यौन संबंधों को हमारे समाज में अपराध माना जाता है। इस विषय से जुड़ी शिक्षा व जागरूकता भी ऐसी सोच को अब तक बदल नहीं पायी है। ऐसे में अगर महिलाओं को सेक्स सम्बंधित कोई समस्या हो रही है तो वे स्त्री रोग विशेषज्ञों के पास जाने से भी डरती हैं। अधिकाँश चिकित्सक इलाज करने के बजाय उन्हें यह ज्ञान देने लगते हैं कि किस तरह उनका यौन सम्बन्ध बनाना गलत और घिनौनी बात है। ऐसी परिस्थिति में उपचार में देरी होने से महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर बुरी तरह खतरा मंडराना तय है।
यह सभी रूढ़िवादी प्रथाएं और विचारधाराएँ केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में फैली हुई हैं।
5. योनि ढीली होने के बाद उसमें बदलाव लाना
प्रसव के बाद जब योनि ढीली पड़ने लगती है तो बहुत-सी महिलायें उसे पुराने आकार देने की जद्दोजहद में लग जाती हैं। इसे हम एक सामाजिक दबाव कह सकते हैं। इसका कारण यह है कि महिलाओं को केवल पुरूषों के सुख के लिए निर्मित एक वस्तु माना जाता है। इसे तथ्य के रूप में स्त्रियों ने भी मान लिया है। वे तरह-तरह की दवाइयों और अन्य उपचारों से योनि को वापस उसी आकार में लाने की कोशिश करती हैं। उनपर लगातार समाज की तरफ़ से पुरुष साथी के लिए मनचाहा बने करने का दबाव दिया जाता है।
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6. प्रसव के दौरान सी-सेक्शन के लिए महिलाओं को शर्मसार करना
यह निर्णय पूरी तरह महिला और चिकित्सक पर निर्भर करता है कि प्रसव के दौरान सी-सेक्शन ज़रूरी है या नहीं। फिर भी इस कारण महिलाओं को शर्मसार किया जाता है। लोग यह समझते हैं कि जब तक महिला की सामान्य डिलीवरी नहीं होती और वो लेबर का दर्द सहन नहीं करती, तब तक वह माँ बनने के लायक नहीं है। यह किस्से अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सुनने को मिलते हैं। यह हमारे समाज की छोटी और निचली सोच को साफ-साफ दर्शाता है।
7. कम उम्र में लड़कियों की ज़बरदस्ती शादी करना
छोटी उम्र में लड़कियों की शादी करवाना भले ही हमारे देश में बहुत पहले गैरकानूनी करार दिया गया है। लेकिन आज भी यह चीज छुपते-छुपाते हो रही है। समय से पहले शादी होने के कारण लड़कियां शारीरिक रूप से मैच्योर नहीं हो पाती और गर्भवती हो जाती हैं। इससे उनके प्रजनन स्वास्थ्य पर गलत असर पड़ता है जिससे प्रसव के दौरान कठिनाई भी आ सकती है। यह कठिनाई भविष्य में ख़तरनाक बीमारियों का रूप ले सकती है।
सदियों से चली आ रही ऐसी बहुत सी प्रथाएं और मान्यताएँ हैं जो एक औरत की अंतरात्मा को खोखला कर देती हैं।
8. जादू टोना जैसी अंधविश्वासी कुरीतियाँ
लड़की के जन्म होने के बाद भी लड़का पैदा करने की चाह लोगों में बनीं रहती है। इसके लिए लोग कुछ भी करने को तैयारी हो जाते हैं। महिलाओं को तांत्रिक व जादू टोना करने वालों के पास ले जाकर झड़वाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियां खिलाई जाती हैं। अनूठी पूजाएं करवाई जाती हैं। इसी के साथ ही बांझपन मिटाने के लिए भी ना जाने कितने अंधविश्वासी उपचार करवाये जाते हैं। यह जानते हुए भी कि इन कुरीतियों से एक महिला के शरीर पर किस तरह के गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं, लोग अपने “वंश” को आगे बढ़ाने के लिए हर कोशिश करते हैं। कई बार तो यह भी नहीं देखा जाता कि समस्या महिला में है या पुरुष में।
यह सभी रूढ़िवादी प्रथाएं और विचारधाराएँ केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में फैली हुई हैं। इनसे छुटकारे के लिए केवल दो ही रास्ते हैं – शिक्षा और जागरूकता। सबसे पहले हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। हमें यह समझना ज़रूरी है कि लोग समाज से नहीं बल्कि समाज लोगों से बनता है। हम अपने आगे आने वाली पीढ़ी को जो सिखाएंगे, उससे वे नये समाज का निर्माण करेंगे। इसलिए केवल एक लेख पढ़ने से कुछ नहीं होगा, हमें अपनी सोच को परिवर्तित करके इन विषयों पर आवाज़ उठाना बेहद ज़रूरी है।
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तस्वीर साभार : timesnownews