इंटरसेक्शनल यहाँ गन्ना और ग़रीबी निगल रही हैं हज़ारों औरतों की कोख़

यहाँ गन्ना और ग़रीबी निगल रही हैं हज़ारों औरतों की कोख़

अभी भी मज़दूर औरतें माहवारी जुर्माना भरती हैं या फिर मासिकधर्म की आफ़त से हमेशा के लिए छुटकारा पाने के लिए अपने ही कोख़ फेंक देने में मजबूर हो जाती हैं।

एक के बाद एक बोल रहीं थीं बीड जिले की गन्ना काटने वाली मज़दूर औरतें –

‘खोज के देखिए पूरे गांव में, स्वस्थ कोख़ वाली औरत आपको शायद ही कोई मिले।’

‘ऑपरेशन के बाद छुट्टी नहीं मिली और पैसे भी खत्म हो गए। मैं एक महीने बाद से ही खेत पर जाने को मजबूर हो गयी। तबसे तबीयत इतनी बिगड़ रही है की काम करना असम्भव हो रहा है।’

‘अब तो सारे ठेकेदार बस हिस्टेरेक्टमी करवा चुकी। औरतों को ही खेत और फैक्ट्री में काम देते हैं।’

हर साल अक्टूबर से अप्रैल के महीनों के बीच महाराष्ट्र के सुख पीड़ित मराठवाड़ा क्षेत्र के बीड, सांगली, उस्मानाबाद, शोलापुर जैसे जिलों से हज़ारों पिछड़े वर्ग के मज़दूर परिवार राज्य के पश्चिमी भाग पर स्थित ‘चीनी बेल्ट’ के गन्ना खेत और शक्कर कारखानों में काम करने पहुंच जाते हैं। इलाके के सभी राजनैतिक पार्टियों के नेता तमाम गन्ना खेत और कारखानों के मालिक हैं। वहाँ काम करनेवाली गरीब मज़दूर महिलाओं के साथ पिछले कुछ सालों से घट रही है एक निष्ठुरतम घटना। मेरी यह लेख इसी संदर्भ में है।

ज़िंदगी बंजर है

सेन्सस के अनुसार अकेले बीड ज़िले में खेती-बाड़ी से जुड़े 21 लाख छोटे किसान और भूमिहीन कृषि-श्रमिक हैं। श्रमिकों में आधी संख्या महिलाओं की है। एक ओर मज़दूर माँ दूर जाते समय बेटों को साथ लेती हैं तो दूसरी ओर पीछे गाँव में रह गयी बेटी का विवाह करवाकर उसकी सुरक्षा से जुड़ी सारी समस्याएँ निपटा दी जाती हैं। इस क्षेत्र की बच्चियाँ अनपढ़ रहती हैं, क्योंकि उनकी शादी 12-13 साल  में और 2-3 बच्चे 18 साल की उम्र तक पैदा हो जाती हैं।बच्चे पैदा करने के बाद गरीबी और बेकारी से उत्पीड़ित लड़की अपने पति के साथ उन्हीं गन्ना खेतों में काम करने पहुंचतीं है, जिसके जाल में उसकी बाकी परिवार और गाँववालें सालों से फँसे हुए हैं।

गन्ना खेत और मज़दूरों की झोपड़ियों में अक्सर शौचालय और स्वास्थय सम्बंधी मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होती। पानी लाने के लिए रोज़ मीलों पैदल चलना, गन्ना काटने और ढोने का भारी-भरकम श्रम, माहवारी या गर्भावस्था में छुट्टी न मिलना, खेत और कारखानों में ठेकेदारों के हाथों आए दिन यौन-शोषण जैसे अमानवीय दुर्दशाओं की वजह से कुछ ही समय में महिलाओं में स्त्री रोग की समस्याएँ बढ़ने लगती है।

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हिस्टेरेक्टमी और बीमारी के दुष्चक्र

एक टन गन्ना काटने पर 250 रुपये मिलते हैं। मज़दूरों की कोशिश रहती है, रोज़ तीन से चार टन गन्ने की कटाई करने की। क्योंकि इन छह महीनों की कमाई से ही बाकी छह महीने पूरे परिवार का पेट चलेगा। पर खेत और कारखानों के ठेकेदार और मालिक ज़्यादा मुनाफ़े के लिए पति-पत्नी को मज़दूर एक यूनिट बना देते हैं। अगर पत्नी बीमारी के कारण अनुपस्थित रही तो पति को एक दिन का पगार नहीं मिलता, ऊपर से 500 रुपये का जुर्माना या माहवारी गुनाहगार भी भरना पड़ता है। रोज़ अनगिनत लाचार, रुग्ण, दरिद्र औरतों को काम पर जाना ही पड़ता है। फिर बीमार होने पर उन्हें शहर के प्राइवेट अस्पतालों में उन्हें इलाज के लिए जाना पड़ता है।

गन्ना खेत और मज़दूरों की झोपड़ियों में अक्सर शौचालय और स्वास्थय सम्बंधी मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होती।

वहाँ से शुरू होती है, शोषण का एक और भयानक पर्याय। काम से छुट्टी लेकर वे सरकारी अस्पतालों के चक्कर नहीं काट पातीं और तुरंत इलाज के ख़ातिर चली जाती हैं, प्राइवेट अस्पतालों के डक्टरों के पास। तब इन अनपढ़ परिवारों को डराया जाता है कि – गर्भाशय सड़ गया है। पेट में कैंसरवाला ट्यूमर है। वग़ैरह-वग़ैरह।  

बीमारी और रोज़ी रोटी खो देने के डर से महिला मज़दूर डॉक्टर की नसीहत मान कर अपने गर्भाशय के ऑपरेशन (हिस्टरेक्टोमी) के लिए राज़ी हो जाती हैं। ऑपरेशन का ख़र्चा 50 हज़ार से 1 लाख रुपये होता है। ज़्यादा पैसे के लालची डॉक्टर अक्सर इन औरतों की ‘टोटल हिस्टरेक्टोमी’ यानी कि गर्भाशय के साथ पूरा प्रजनन तंत्र ही निकाल देते हैं।

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दिल दहला देनेवाले आंकड़ें

सरकारी सर्वे के अनुसार पिछले 3 साल के दौरान बीड ज़िले की 4605 से ज़्यादा महिला मज़दूर सिर्फ 11 प्राइवेट अस्पतालों में अपना टोटल हिस्टेरेक्टमी करवा चुकीं हैं, जिनमें ज़्यादातर 22 से 25 साल की युवतियाँ थीं। उल्लेखनीय है कि अस्पतालों में आपरेशन अक्सर गंदे परिवेश में बिना गैनोकोलॉजिस्ट के किया जाता हैं। इसलिए सर्जरी के बाद महिलाएँ नए सिरे से बीमारियों के शिकार बन जातीं हैं।

आवाज़ उठाने के बाद

महिला मज़दूरों के लिए ‘चीनी बेल्ट’ में सक्रिय हैं कई निजी सेवा संगठन। मज़दूर औरतों पर शोषण और जबरन हिस्टेरेक्टमी के ख़िलाफ़ इनके लगातार शिकायतों के बाद, राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस दयनीय मामले के तत्काल समाधान के लिए अप्रैल, 2019 में बीड जिला प्रशासन को नोटिस भेजा।

महिला मज़दूर और स्वयंसेवी संस्थाएँ मांग रहीं हैं –

  1. महिला मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन की गारंटी।
  2. सामाजिक सुरक्षा कानून, 2008 के तहत कार्यस्थल में यौन-शोषण सहित सभी अत्याचारों को बंध करने के लिए ‘गन्ना काटने वाली मज़दूर समिति’ की स्थापना।
  3. सूखा पीड़ित ज़िलों में मनरेगा कार्यक्रम और अन्न सुरक्षा योजना का नियमितीकरण।
  4. गन्ना मज़दूरों को जागरूक बनाने के लिए उनमें साक्षरता और स्वच्छता सम्बंधित कार्यक्रमों की शुरुआत।
  5. हिस्टेरेक्टमी कर रहीं अस्पताल और डॉक्टरों के ख़िलाफ़ सख्त और तुरंत कानूनी कार्रवाई।

आवाज़ उठाने के बाद अब शायद आये उनके अच्छे दिन।

यहाँ एक तरफ पैडमैन जैसी फ़िल्म हिट होती है और सरकारी आंकड़ों को मानें तो गांव देहात में सैनिटरी नैपकिन का प्रचलन बढ़ा है। वहीं दूसरी तरफ़ अभी भी मज़दूर औरतें माहवारी जुर्माना भरती हैं या फिर मासिकधर्म की आफ़त से हमेशा के लिए छुटकारा पाने के लिए अपने ही कोख़ फेंक देने में मजबूर हो जाती हैं। इस देश में एक-साथ सब कुछ चलता है। जैसे मॉल और भुखमरी। जैसे चन्द्रयान और टोटल-हिस्टेरेक्टमी। या फिर जैसे यह लेख जिसे हम ‘प्रोग्रेसिव औरतें’ जब लिखेंगे या पढ़ेंगे, तब लाखों करोड़ों और बस निरंतर अंधेरा ढो रही होंगी।

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तस्वीर साभार : bhaskar.com

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