संस्कृतिकिताबें नो नेशन फॉर वुमन : बलात्कार के नासूरों को खोलती एक ‘ज़रूरी किताब’

नो नेशन फॉर वुमन : बलात्कार के नासूरों को खोलती एक ‘ज़रूरी किताब’

प्रियंका दुबे की किताब नो नेशन फॉर वुमन के हर चैप्टर में अलग-अलग बलात्कार, ट्रैफिकिंग और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की रिपोर्ट दर्ज है।

दिसंबर 2012 में जब दिल्ली में ‘दिल्ली रेप केस’ हुआ था तो पूरा देश इस अपराध पर स्तब्ध था। हर शहर और चौराहे में लोग गुस्से में थे। दुख में थे। और सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे। बलात्कार की घटना और उसके बाद की प्रतिक्रिया को शायद इतने विस्तार से हम पहली बार अखबार के दो-तीन कॉलम की खबर से इतर पढ़ या देख पा रहे थे। लोगों का गुस्सा देखकर लगता था कि अब अपने देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का समय जाने वाला है। लेकिन उस दौरान एक छोटा तबका वैसा भी था जो पूछ रहा था कि निर्भया कांड पर इतना शोर मचाने वाले लोग या मीडिया आखिर किसी वंचित समुदाय की लड़की के साथ हुई घटना पर चुप क्यों रह जाते हैं? उनके सवाल के पीछे यह मंशा कतई नहीं थी कि निर्भया कांड को कमतर समझा जाये बल्कि वो बस यह ध्यान दिलाना चाहते थे कि देश में यह पहली घटना नहीं है और देश के कई ईलाकों में महिलाओं को हर रोज ही यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है लेकिन दुर्भाग्य है कि मीडिया का कैमरा वहां तक नहीं पहुंच पाता।

प्रियंका दुबे की किताब ‘नो नेशन फॉर वुमन’ इन्हीं इलाकों में लेकर जाती है और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं, उनके परिवार वालों, उनकी झोपड़ी, उनके बरामदे, गली, सर्टिफिकेट रखने वाली फाइल, एफआईआर, कोर्ट, पुलिस, सपने, डर और अन्याय की कहानी को इतने इत्मीनान और विस्तार से सुनाती है कि वो कहानियां आपको बैचेन करने लगती हैं। आपको यकीन नहीं होता कि आप सच में उस देश का हिस्सा हैं जो सत्तर साल पहले आजाद हो चुका है और जिसकी आजादी की नींव ही समानता और न्याय पर रखी गयी है। आप शायद इसलिए भी यकीन नहीं कर पाते क्योंकि आप मर्द होने, देश की राजधानी में होने और अपने ‘आईसोलेटेड आईसलैंड’ में यूटोपियन समाज की कल्पना करने का प्रिविलेज रखते हैं।

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‘नो नेशन फॉर वुमन’ बुंदेलखंड से शुरू होती है। वहां बतियागढ़ कस्बे में फूलबाई रहती है, जिसकी चौदह  साल की बेटी को रेप करने के बाद जला दिया गया और अब भी वो इंसाफ पाने के इंतजार में है। फूलबाई अकेली माँ नहीं है, रोहिनी की माँ कांतादेवी भी है और न जाने ऐसी कितनी माएँ हैं जिनकी बेटियों ने उनके हाथों को पकड़ कर मरने से पहले कहा है ‘मम्मी पानी पीला दो’। देवीलाल जैसा बाप है जो अपनी बेटी के खिलाफ हुए अपराध के लिये पुलिस तक पहुंचने की हिम्मत जुटाता है तो उसकी कीमत उसे बेटी की जान देकर चुकानी पड़ती है। एक बाप सिर्फ इसलिए जिंदा नहीं रह पाता क्योंकि बेटी के साथ हिंसा के बाद वो समाज को ‘मुंह दिखाने लायक’ नहीं रह गया था।

राजनीति में बदले की भावना से महिलाओं के खिलाफ किस तरह यौन हिंसा को हथियार बनाया जाता है वो आपको त्रिपुरा में मिनाक्षी या प्रितम्मा की कहानी में पता चलता है, जिनके साथ सिर्फ इसलिए गैंगरेप किया गया क्योंकि वो सत्ताधारी पार्टी से अलग चुनाव लड़ना चाहती थी। या फिर पश्चिम बंगाल के वर्धमान में उस सत्तर साल की बच्ची के साथ गैंगरेप कर उसे मारने वाले टीएमसी समर्थकों को मिल रहा पुलिस संरक्षण,  सबमें राजनीति, सत्ता और महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक पैटर्न साफ दिखता है।

निर्भया कांड पर इतना शोर मचाने वाले लोग या मीडिया आखिर किसी वंचित समुदाय की लड़की के साथ हुई घटना पर चुप क्यों रह जाते हैं?

इस किताब में बेतुल की घूमंतू ट्राइव पाढ़री (जिन्हें कानून ने “ऑफेंडर” घोषित कर रखा है।) की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार जिसमें नेता, पुलिस सभी शामिल हैं की कहानी भी शामिल है, जिनसे मेरा खुद तीन साल पहले मिलना हुआ था।। साल 2007 में हुई घटना के बाद आजतक वो इंसाफ की उम्मीद में अपने घर लौटने की उम्मीद में बेतुल के सड़क किनारे बने टेंटों में रह रहे हैं।

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किताब के हर चैप्टर में अलग-अलग बलात्कार, ट्रैफिकिंग और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की रिपोर्ट दर्ज है। कहीं बुंदेलखंड की घटना, कहीं त्रिपुरा तो कहीं हरियाणा और मध्यप्रदेश की घटना। भले यह सारी घटनाएँ अलग-अलग जगहों पर घटी हो। लेकिन इन सारी रिपोर्ट में एक दुहराव है। एक पैटर्न है जो कहता है बलात्कार के बाद महिलाओं का, उनके परिवार वालों का जिन्दा रहने का संघर्ष, न्याय पाने का संघर्ष, सिस्टम, पुलिस-कोर्ट, समाज और कई बार खुद अपने परिवार वालों से भी प्रताड़ित होने का दर्द एक जैसा ही है। इस व्यवस्था में न्याय के लिये उन्हें एक जैसा ही जद्दोजहद करना पड़ता है। समाज में उन्हें ही खुद को निर्दोष साबित करना पड़ता है, जिनके साथ अपराध हुआ है।

इन रिपोर्ट्स को ऐसे लिखा गया है कि इनसे गुजरते हुए लगता है कि सारी घटनाएँ, सारा संवाद हमारे आँखों के सामने से गुजर रहा है। एकबारगी को मन कहता है कि इन्हें बस कहानियां मान लूं। लेकिन फिर ख्याल आता है कि ये फिक्शन नहीं हैं, एकदम फर्स्ट अकाउंट जमीनी रिपोर्ट है। एक ऐसा कठोर सच, जिसपर विश्वास करने के लिये भी अपने प्रिविलेज से दूर चलकर जाना पड़ता है।

वैसे तो हमारे देश के अखबारों में बलात्कार की घटनाएँ रूटिन खबर की तरह हैं लेकिन शायद ‘नो नेशन फॉर वुमन’ को पढ़ने के बाद अब उन खबरों को पढ़ने का नजरीया शायद ही रूटिन वाली हो। इन रिपोर्ट्स को लिखते हुए लेखक कई बार नम हुई और ज्यादातर बार सुन्न। इसको पढ़ते हुए भी वो नमी दिखती है और पढ़ने के बाद काफी देर तक आप भी सुन्न होते हैं।

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यह लेख अविनाश कुमार चंचल ने लिखा है।

तस्वीर साभार : firstpost

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