ड्रीमगर्ल नए तरह की कॉमेडी फिल्म है, जिसमें नया विषय है, जिसमें फेंडशिप कॉलसेंटर में फीमेल की जगह काम करने वाला असामान्य स्किल का सामान्य हीरो करन है। हीरोईन है, प्यार के सीन है और है समाज के तरह-तरह के लोग। पुलिसवाला, अकेला बाप, ‘योयो’ नौजवान, गांव का बेवकूफ समझा जाने वाला महिंदर और प्यार में धोखा खाई दबंग-सी औरत। और ये सब कहानी में जुड़ते हैं फोन वाली पूजा की वजह से। पूजा एक ऐसी फीमेल आवाज़ है जो लोगों से फोन दोस्ती करके उनका मन खुश करती है। हमारे देश में ऐसी सैकड़ों महिलाए कॉल सेंटर में काम करती हैं, जो लोगो को फोन सैक्स उपलब्ध कराती हैं। पापुलर भाषा में दोस्ती करती हैं। ड्रीमगर्ल की पूजा मर्द है इसीलिए ये कॉमेडी है। सोचिए अगर करन की जगह असली पूजा होती तो! कॉमेडी फिल्म में ये नहीं दिखा सकते क्योंकि फिर वो ट्रैजिडी होगी और मामला अकेलापन का नहीं रह जायेगा, जैसा कि ड्रीमगर्ल दिखाना चाहती है।
ड्रीमगर्ल में फीमेल इंपर्सोनेटर पुरुष को हीरो बनाकर नए तरह ट्रीटमेंट ज़रूर दिया गया है, जिसमें हीरो साड़ी पहने और तमाम पब्लिक के सामने मर्द होते हुए भी महिला की तरह दिखता है, फैमिनिटी की शर्म को और मैसकुलिनिटी की लोकप्रिय छवि को तोड़ता है।
क्या मामला अकेलेपन का है?
सोचिए कि आपके पास कम से कम दो-चार दोस्त और रिश्तेदार होते हुए भी आप बहुत सारी बातें क्यों नहीं कर पाते? क्या है ऐसा जो शर्मिंदगी या तकरार से बचाकर रख लेना चाहते हैं? क्यों ऐसे लोगों की तलाश होती है जो आपको सिर्फ सुने, कुछ समाधान भी दे दें लेकिन आपको समस्या के समाधान में आपको खुद को बदलना ना पड़े? अगर ये मामला अकेलेपन का ही होता तब दोस्तों वाले लोग फोन-दोस्ती नहीं करते जबकि पुलिसवाला, महिंदर, टोटो सबके एक-दो दोस्त तो हैं ही। पर ये कहीं न कहीं यौन कुंठा का मामला है जिसका प्रेमिका/पत्नी होने न होने से वास्ता नहीं। वास्तविक जीवन में जो लोग फोन सेक्स तक ही सीमित नहीं होते, आसपास की महिलाओं से कोशिश करते हैं, इनकी अल्टीमेट गोल सेक्स की डिमांड होता है। शादीशुदा, कंवारे, नौजवान और बूढ़े सब इसमें शामिल हैं। इसीलिए सतही तौर पर ये अकेलपन लगने वाला मामला दरअसल सैक्सुअलिटी को समझते हुए ही समझा जा सकता है।
ड्रीमगर्ल नए तरह की कॉमेडी फिल्म है, जिसमें नया विषय है, जिसमें फेंडशिप कॉलसेंटर में फीमेल की जगह काम करने वाला असामान्य स्किल का सामान्य हीरो करन है।
मामला सांस्कृतिक और रिश्तों के मूल्यों का है, जहां आप साथी/पार्टनर को अपनी निजी ज़िंदगी में उतना शामिल करते हैं जितने से आप पर कोई बहुत बड़ा सवाल और व्यवहारिक तब्दीली करने की ज़रूरत ना हो। फिर चाहे भले ही आदमी जानता हो कि ये तब्दीली सबसे ज़रुरी चीज़ है, इसके बिना दोहरे मापदंडों में जीना होगा। पितृसत्ता में घर की दुनिया अलग और बाहर की अलग होती है। असल जीवन और मूल्यों में ज़मीन आसमान का फर्क है, जहां रिश्तों में समानता नहीं, व्यवहार में सम्मान, मतभेद और स्वीकार का चलन नहीं है वहां झूठी हेल्प और सांत्वना के लिए ही भागना होता है। क्योंकि यहां आदमी का काम कमाना, घर खर्च और दुनियादारी देखना माना जाता है। औरत का घर देखना, बच्चे संभालना और ज़्यादा हो तो नौकरी करते हुए भी यही करना, कम्पलसरिली शादी या रिश्तों को चलाने से जो अनास्था, ना समझने की क्राईसिस, बदलती मानवीय सबंधों से दूर होती आर्टीफिशियल दुनिया में इंसान इतना उलझ जाता है कि उसे बदलना नहीं है कुछ, सबकुछ बना-बनाया या यूज़ एड थ्रो वाला चाहिए।
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कंज़्युमर कल्चर के समय में इसने भले ही ज़्यादा जटिल और भयावह रूप अख्तियार कर लिया हो, लेकिन ये हमारी संस्कृति की ही वे कमियां हैं जो लोगों के बीच हाईरार्की और अंतर बनाए रखने के लिये अख्तियार की गई थीं, जिसमें सम्मान और समझ को जगह ही नहीं दी जाती, ये तो बस किसी रिश्ते में इत्तेफाकन बन जाए तो अलग बात है। वहां एक दूसरे को ना समझ पाते हैं ना ही वैसी कोशिश होती है जितनी होनी चाहिए। आज के समय में हम पनी सोशल लाईफ ठीक करना चाहते हैं। निजी जीवन में वही सैकड़ों सालों से चले आ रहे कमोबेश सामंती, ऊंच-नीच, ज़बरन और परिस्थितिगत जीने का तरीका अपनाते हैं। जीते जाते हैं। ऐसे में ऊपरी तौर पर ही समाधान खोजते हैं जैसा कंस्युमर कल्चर हमें उपलब्ध कराता है, ये नहीं तो वो, ये भी- वो भी, इससे इतना, उससे और उतना। इसी प्रवृत्ति को बाज़ार ने कई तरीकों से भुनाया है, जिसमें से एक है फ्रेंडशिप कॉल सेंटर या जो फोन सेक्स में तब्दील होता है।
सोचिए अगर करन की जगह असली पूजा होती तो! कॉमेडी फिल्म में ये नहीं दिखा सकते क्योंकि फिर वो ट्रैजिडी होगी और मामला अकेलापन का नहीं रह जायेगा, जैसा कि ड्रीमगर्ल दिखाना चाहती है।
महिलाएं भी क्यों शामिल हैं?
नहीं। आज के समय में महिलाएं भी इसतरह स्पेस लगातार तलाश/बना रही हैं। लगातार ऐसे एप्स और ज़रिए बनाए जा रहे हैं जो महिलाओं को भी इसी तरह का प्लैटफोर्म उपलब्ध कराते हैं जो कई बार महिलाओं के लिये परेशानी का सबब होता है। फिर भी वे अपना रही हैं। क्योंकि सामाजिक बनावट में ये प्रचलित तरीका है, उपाय भी है तथाकथित अकेलेपन वाले जीवन में। महिलाएं जब पुरुषों के बनाए गए पब्लिक स्पेस में शामिल होती हैं तो उस पूरी संरचना को भी अपना लेती हैं जो पुरुषों के हित में (सीधे या परोक्ष), पुरुषों द्वारा बनाई हैं; जो अधिकतर जेंडर-सेक्स भेद को बनाए रखने, उसमें निहित पॉवर, हाइरार्की और अंतर मेनटेन करने का काम करती है, और इसीलिए सीधे या परोक्ष तौर पर खासकर महिलाओं के लिए उत्पीड़न करनेवाली होती हैं।
जिसे कई बार महिलाएं भी बाद में समझ पाती हैं जब ऐसे कॉल्स स्टॉकिंग, ब्लैकमेलिंग, जबरदस्ती और यौन हिंसा में बदल जाते हैं। इसी परेशानी का फायदा उठाकर आज के पूंजीवादी बाज़ार ने पेड काल्स शुरु कर दिया है, परेशानी की संभावना कम और गुड फीलिंग ज़्यादा जिससे इंसान ना ही किसी परेशानी से निकल सकता है, ना समाधान हो सकता है ना ही कोइ मूलभूत बदलाव। बल्कि ये सब मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र बनाते हैं जिसमें लोग फंसते चले जाते हैं। अकेला और अकेला हो जाता है, वास्तविक मानवीय (ह्युमन) सामाजिक रिश्तों से और दूर, सैशुअल-वर्चुअल प्लैज़र का और भी अडिक्टिड और भी मानसिक-सामाजिक परेशानी बढ़ाने वाला हो जाता है।
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यह लेख प्रियंका शर्मा ने लिखा है।
तस्वीर साभार : thepinkcomrade