ग्रीष्मा त्रिवेदी
अपनी किताब ‘अ लाइफ़ इन वर्ड्स – मेमोयर्स’ में इस्मत चुगतई लिखती हैं कि किस तरह एक लघु कथा ने उनका पूरा जीवन बदल दिया था और यह कोई अच्छा अनुभव नहीं था। वे लिखती हैं, ‘मुझ पर आज भी लिहाफ़ की लेखिका होने का लेबल लगा हुआ है। इस कहानी को लिखने के बाद मेरी इस कदर बदनामी हुई कि मैं ज़िंदगी से परेशान सी हो गयी थी। इस कहानी को लिखने के बाद तो मानो लोगों के हाथ मुझे हर समय शर्मिंदा करने का कोई बहाना लग गया था और इसके बाद मैंने जो कुछ भी लिखा वह इसी बदनामी के बोझ तले दबता चला गया।’
इस्मत चुगताई की लिखी यह विवादास्पद कहानी ‘लिहाफ़’ आज़ादी से बहुत पहले साल 1941 में ‘अदब-ए-लतीफ़’ नाम के एक उर्दू अदबी रिसाले में छपी थी। यह कहानी दबी हुई यौन इच्छाओं के बारे में और खुद की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दूसरे के शरीर का शोषण किए जाने के बारे में थी।
पहली बार जब ‘लिहाफ़’ मेरे हाथ लगी, उस समय मेरी उम्र कोई 18 साल की थी। जेंडर और अंतरानुभागीय सम्बन्धों की छात्रा होने के नाते मुझे उस समय इस बात पर गर्व महसूस हुआ कि इस्मत चुगतई के लेखन में इतनी शक्ति और सामर्थ्य था कि वह पितृसत्ता द्वारा खड़ी की गई दीवारों को भेदकर महिला इच्छाओं और यौनिकता जैसे अब तक अछूते रहे विषय पर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट करने में सक्षम था। उनके लेखन में नारी देह का वर्णन किसी पुरुष की वासनाभरी नज़र के लिए किसी वस्तु के रूप में चित्रित ना होकर एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में वर्णित है।
हालांकि उनके लेखन की भरपूर आलोचना हुई, लेकिन उनके लिखे साहित्य ने इस ‘विवादास्पद’ विषय पर से पर्दा हटाने का काम किया जिसके कारण अब तक अदृश्य रहे इस पहलू पर अब खुलकर विचार-विमर्श शुरू हो सका। इस कहानी में बेगम जान को एक सेक्स से वंचित रही महिला के रूप में देखा जा सकता है जिनकी ओर उनके पति, नवाब साहब बिलकुल भी ध्यान नहीं देते हैं। उनकी शादी तो केवल उन दोनों के खानदानों के बीच हुए एक आर्थिक समझौते की तरह अधिक दिखाई देती है।
‘बेगम जान से निकाह करने के बाद नवाब साहब ने उन्हें अपने घर में दूसरी चीज़ों की तरह ही एक कोने में कर दिया और जल्दी ही उन्हें पूरी तरह से भूल गए। यह नाज़ुक सी, खूबसूरत बेगम अकेलेपन में दुखी रहते हुए जीवन बिताने लगी।’
यह उस समय की कहानी है जब शादी के नामपर नारी देह का व्यापार होता है और औरतों को घर के दूसरे समान की तरह ही समझा जाता था। यह वह समय था जब नवाब साहब की तरह ही घर के पुरुष, अपनी दूसरी ‘छुपी हुई आदतों’ को बरकरार रखने के लिए शादी का सहारा ले सकते थे। कहानी में बताया गया है कि किस तरह नवाब साहब पतली कमर वाले, कम उम्र के पुरुषों के साथ रहना पसंद करते थे लेकिन घर के मुखिया की सत्ता होने के नाते बेगम जान को घर से बाहर निकलने या अपने रिशतेदारों से मिलने तक की भी इजाज़त नहीं देते थे।
कहानी में बेगम जान की खूबसूरती का वर्णन कुछ इस तरह से किया गया है – ‘उनका रंग सफ़ेद संगमरमर की तरह था जिस पर एक भी दाग कहीं नहीं था।’ इसके ठीक विपरीत उनकी मालिश करने वाली, रब्बू का वर्णन कुछ यूँ है – ‘वह बेगम जान के ठीक उलट उतनी ही काली थी जितनी की बेगम जान गोरी थीं, बेगम जान की रंगत जितनी सफ़ेद थी, रब्बू की रंगत उतनी ही गहरे काले रंग की थी।’ हमें यह तो पता ही है कि हमारे देश में, किसी महिला की खूबसूरती ही उनके चाहे जाने या पसंद किए जाने का आधार बनती है। इस कहानी में प्रयुक्त भाषा शैली और शब्द समूह ऐसे हैं जो किसी महिला देह के यौनिक चित्रण के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं। यही कारण है कि ‘खूबसूरती’ की व्याख्या करने के लिए प्रयोग में लायी गई परिभाषाएँ लोगों को खलती हैं।
इस कहानी को विवादों के घेरे में लाने में इसमें प्रयोग की गयी भाषा शैली की भूमिका मुख्य रही। आज, जब हम नारी देह के बारे में या महिला यौनिकता से जुड़े किसी भी पहलू पर बात करते हैं तो इसके लिए अक्सर हम अँग्रेजी भाषा का ही सहारा लेते हैं। बहुत बार हमें मानव शरीर के विभिन्न अंगों के नाम केवल अँग्रेजी में ही पता होते हैं।
इस्मत चुगतई ने अपने लेखन में मानव देह के बारे में लिखने के लिए उर्दू का प्रयोग किया। अब भले ही उर्दू कविता या शायरी की ज़ुबान हो, लेकिन उस समय इसके कारण एक बड़ा विवाद इसलिए खड़ा हो गया क्योंकि भारत में भाषाओं को धर्म के साथ भी जोड़कर देखा जाता रहा है। एक मुस्लिम खानदान की औरत के शरीर के बारे में लिखने के कारण चुगतई को ‘बेशर्म’ करार दिया गया। उस समय से आज तक बहुत कुछ बदला नहीं है। आज भी अगर कोई खुल कर अपनी ‘यौनिकता’ को उजागर करे और समाज द्वारा स्वीकृत सुंदरता के मानकों का पालन न करे तो उन्हें भी ‘बेशर्म’ ही कहा जाता है।
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और एक छोटी उम्र की लड़की के माध्यम से कहानी कहना, जिसे नहीं पता था कि उसके इर्द-गिर्द या फिर समलैंगिक नवाब साहब और बेगम के बीच क्या चल रहा था, एक तरह से भारत के संदर्भ और परिस्थितियों का ही वर्णन है जहाँ अभी कुछ समय पहले तक समलैंगिकता को ‘छुपा’ कर पर्दे में ही रखा जाता था। बेगम जान अपनी यौनिकता का प्रयोग खुद को सशक्त करने के लिए करती हैं। जहाँ सबके सामने तो वह पितृसत्ता की सीमाओं में बंधी एक पतिव्रता औरत के मानकों के अनुरूप जीवन जीती हैं, वहीं लिहाफ़ के अंदर वह अपनी यौन इच्छाओं को उन्मुक्त करती हैं और हर वह काम करती हैं जो इन अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने के लिए ज़रूरी है। वह एक ऐसे यौन सम्बन्ध में सुकून की तलाश करती हैं जिसे समाज की मान्यता नहीं है। बेगम जान के रब्बू के साथ सम्बन्ध और नवाब साहब के दूसरे कम उम्र पुरुषों के साथ संबंध, जिसमें शरीर और उसकी इच्छाएँ उन दूरियों को खत्म करने का काम करती हैं जो दूरी उनके विषम-लैंगिक वैवाहिक सम्बन्ध में पूरी नहीं हो पाती है।
बेगम जान अपनी यौनिकता और अपनी यौन इच्छाओं को पहचान कर पितृसत्ता के उन मानकों को तोड़ती हैं जिनका पालन करने की उनसे अपेक्षा की जाती है। कहानी में बार-बार ‘लिहाफ़’ के अंदर छुपे हाथी का ज़िक्र, जिसके कारण कथा वाचक सो नहीं पाती, वास्तव में उन यौन इच्छाओं या सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए प्रयोग में लाया गया एक रूपक है जिनके बारे में या तो बात ही नहीं की जाती या फिर अगर बात होती भी है तो केवल इन रूपकों के माध्यम से ही होती है।
जिस समय यह कहानी ‘लिहाफ़’ लिखी गयी थी, उस समय एक ही जेंडर के दो लोगों के बीच के सम्बन्धों या समलैंगिकता पर खुलकर चर्चा नहीं की जाती थी। ऐसे सम्बन्धों के मौजूद होने को स्वीकार तो किया जाता था लेकिन यह एक ऐसा विषय था जिसे हमेशा ‘पर्दे’ में ही रखा जाता था। यही कारण है कि कहानी में कथा वाचक की आवाज़ के माध्यम से इनके बारे में केवल रूपकों का सहारा लेकर ही ज़िक्र किया गया है और खुलकर कुछ नहीं कहा गया। कथा वाचक के कथन से भी ऐसा ही लगता है कि उन्हें इस पूरी सच्चाई के बारे में ज़्यादा कुछ भी पता नहीं है। कहानी में इस विषय को उठाए जाने पर भी इस पर खुलकर कुछ न कहना साफ़ दिखाई देता है। आज भी समाज में यौनिकता पर खुलकर चर्चा करने से ऐसा ही परहेज़ दिखाई पड़ता है। समाज में समलैंगिकता के मौजूद होने को स्वीकार कर पाने में ही हमें अनेकों वर्ष का समय लगा है।
लिहाफ़ कहानी न केवल उस समय की अनकही सच्चाई का वर्णन है बल्कि इस कहानी ने महिला यौनिकता के निषेध समझे जाने वाले विषय और विषमलैंगिक विवाह सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी महिलाओं की यौनिक इच्छा के विषय को लोगों के सामने उजागर कर दिया। एक महिला केवल अपने ससुराल में रह रही किसी औरत से अधिक भी बहुत कुछ हो सकती है, एक महिला केवल एक खूबसूरत शरीर नहीं है जिसे घर में सजा कर रखा जा सकता है।
अगर चुगतई सन 1941 में यह कोशिश कर सकती थीं तो क्या अब वह समय नहीं आ गया है जब हमें सुंदरता का वर्णन करने के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा शैली से जुड़ी समस्याओं और यौनिकता तथा सौन्दर्य के परस्पर सम्बन्धों पर विचार करना शुरू कर देना चाहिए? क्या अब इस ‘लिहाफ़’ के बाहर निकल आने का समय आ गया है?
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यह लेख ग्रीष्मा त्रिवेदी ने लिखा है, जिसे इससे पहले तारशी में प्रकाशित किया जा चुका है।
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