इंटरसेक्शनलमर्दानगी मर्दों के ‘विशेषाधिकार’ कितने है लाभदायक और हानिकारक ?

मर्दों के ‘विशेषाधिकार’ कितने है लाभदायक और हानिकारक ?

बदलते दौर में बहुत जरूरी हो गया है कि सामाजिक विशेषाधिकारों के जाल को तोड़कर एक शांतिपूर्ण और सुंदर जीवन को जीने के कौशल को पुरुषों में भी विकसित किया जाये।

देश का नागरिक होने के नाते हमारे संविधान ने हमें अधिकार दिए है और उन अधिकारों की पालना सही तरीके से होता रहे  इसके लिए कुछ कर्तव्य भी दिए हैं। संविधान की नज़र से देखे तो कोई भी अधिकार छोटा या बड़ा नहीं है और एक अधिकार दूसरे अधिकार से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा कुछ विशेषाधिकार भी है, जो हमें संविधान के द्वारा नही मिलते और ना समाज के सभी सदस्य को मिलता है। विशेषाधिकार की बात करें तो उसके भी दो रूप सामने आते है, ऐसे विशेषाधिकार जिन्हें अर्जित किया जाता हैं और ऐसे विशेषाधिकार जिन्हें अर्जित करने की कोई जरूरत ही नहीं है। एक खास प्रकार के माने-जाने वाले लिंग, जाति, रंग, नस्ल और धर्म में पैदा होने के ये विशेषाधिकार उन्हें मिले हैं। विशेषाधिकार ऐसी सुविधाएं /सहुलियत है जो एक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए लिंग, जाति, नस्ल या धर्म के आधार पर उच्चतम माने-जाने वाले व्यक्तियों का सामाजिक रूप से मिलता है। ये विशेषाधिकार सामाजिक रूप से निम्न माने-जाने वाले व्यक्तियों का दमन करने की एक ऐसी नीति है जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त करने वाला ना तो शोषण को पहचानता है और ना ही उसके खिलाफ खड़ा होता है। एक बात और जिसपर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि विशेषाधिकार और दमन एक साथ चलते है ।

आज के इस लेख में हम लिंग के आधार पर मिलने वाले विशेषाधिकार के प्रारूप पर चर्चा करेंगे। इसके अलावा यह भी देखने की कोशिश करेंगे कि जाति, नस्ल और धर्म कैसे इनमें अपनी भूमिका निभाता है। साथ-साथ इस बात की समझ बनाने की कोशिश करगें की कैसे विशेषाधिकार महिलाओं और बच्चों और अन्य पुरुषों को प्रभावित करता हैं और स्वंय विशेषाधिकार प्राप्तकर्ता को कैसे प्रभावित करता है।

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लिंग के आधार पर देखे तो पुरुषों को बहुत से विशेषाधिकार सामाजिक रूप से मिले हुए है, जिनको पुरुष बहुत कम पहचान पाते है। इसके साथ यह भी नजर आता है कि जिन्हें पुरुष हितकारी विशेषाधिकार समझकर रोज़ाना अपने जीवन में अपना रहे है कैसे वो उनके  खिलाफ एक जाल बना देते है। इस जाल में रहकर समानता, न्याय और मानवता को देख पाना मुश्किल हो जाता हैं और जब तक पुरूष उन्हें तोड़ कर बाहर ना आ जाए ।

अगर मैं अपनी बात करूं तो बचपन से ही खिलौनों के माध्यम से परिवार ने यह बात स्पष्ट कर दी कि पुरुषों और महिलाओं के क्या- क्या कार्य हैं। ज्यादातर मेरी बहन के खिलौनों के रूप में गुड़ियाँ और रसोई का छोटा-छोटा सामान देखने को मिलता है। इन खिलौने माध्यम से हमें ये सबक दिया गया कि रसोई से जुड़ा कार्य और बच्चों की देखभाल सिर्फ महिलाओं का ही कार्य है और पुरुषों का कार्य घर से बाहर के कामों से जुड़ा है । एक विशेषाधिकार के रूप में मुझे ना तो घरेलू कार्य और बच्चों की देखभाल जैसे कार्य नहीं करने पड़ते। ये विशेषाधिकार से सीधेतौर पर मुझे लाभन्वित करता है। लेकिन मेरे घर की  महिलाओं को इसका सीधा परिणाम झेलना पड़ा है। मेरी माँ, बहन और पत्नी को अनपेड कार्य के रूप में यह कार्य करना पड़ता है।

अगर मैं अपनी बहन की बात करूँ तो घरेलू कार्य और छोटे भाई बहनों का बोझ की वजह से उसकी शिक्षा बहुत प्रभावित भी हुई । जो पुरुष घरेलू कार्य और बच्चों की देखभाल करते है उन्हें समाज में नामर्द की संज्ञा दे दी जाती हैं। इस संज्ञा के डर से मैंने घरेलू कार्य जैसे जीवन-कौशल को सीखने से बहुत समय तक वंचित रहा। इसके अलावा दूसरों की देखभाल करना जैसे भाव जोकि महिलाओं में सामाजिक रूप से विकसित किये जाते है , मुझमें अच्छे तरीके से विकसित ही नही हो पाते।

पुरुषों को यह विशेषाधिकार है कि वो अपने करियर के प्रति केंद्रित हो सकते है और उन्हें किसी प्रकार से लेबल नही किया जाएगा।

इसी तरह हम देखते है कि एक महिला के लिए शादी के बाद बहुत कुछ बदल जाता जैसे उसका पहनावा, रीति-रिवाज, घर, खाने की आदतें और कुलनाम।  बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि उसका नाम भी बदल दिया जाता हैं। लेकिन मुझे समाजिक रूप से ऐसी सुविधाएं है कि शादी के बाद ना तो मुझे घर छोड़ने की जरुरत पड़ी है और ना ही कुलनाम बदलने की। गौरतलब है कि शादी के बाद पुरूषों की जिंदगी में महिलाओं की तुलना में बहुत कम बदलाव आते है। नाम से लेकर जिम्मेदारी तक बहुत कम परिवर्तन पुरुषों की ज़िंदगी में आता हैं। अगर कुछ पुरुषों को अपने ससुराल में रहने का फैसला लेना पड़े तो सामाजिक रूप से उनका मजाक उडाया जाता हैं ।

अगर हम समाजीकरण की बात करें तो महिलाओं को ममतामयी, करुणा और त्याग करने वाली के रूप में सामाजिक तौर पर स्थापित करता हैं। बार-बार महिलाओं को इस बात का एहसास भी दिलाया जाता है कि करुणा और त्याग उनके जीवन का मूलभूत आधार भी हैं।  इसके विपरीत पुरुषों को इस भाव से दूर रखा जाता है कि ममतामयी और करुणा जैसे भावों को पुरुषो के लिए एक कम के रूप दिखाया जाता है। पुरुषों को विशेषाधिकार के रूप में हिंसात्मक रूप को व्यक्त करने को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है।

घर से लेकर संसद तक घर जगह पुरुषों को यह विशेषाधिकार है कि वे गुस्से और हिंसा का प्रयोग कर सकते है। भले  ही कानून इसकी इजाजत नही देता लेकिन सामाजिक स्वीकृति हमेशा मिलती रही है। मैंने एक पुरुष के रूप में इस विशेषाधिकार को अपना क़ानूनी अधिकार समझकर जिया है। यह मान्यता है कि जिस पुरुष को गुस्सा नहीं आता वो मर्द नही है। 

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महिलाओं और बच्चों पर इस विशेषाधिकार का सीधा और चिन्तनीय प्रभाव हम घरेलू हिंसा औऱ बाल शोषण के रूप में देखते हैं। अन्य पुरुषों पर इसका प्रभाव मोब लिंचिंग औऱ बुलिंग के रूप में सड़कों, स्कूलों-कॉलेजों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है । 

एक पुरूष की जितनी महिला मित्र होती है ऐसे पुरुषों को सच्चे मर्दों की सूची में रखा जाता है उन्हें सामाजिक रूप से चरित्रहीन नहीं समझा जाता जिस तरह से महिलाओं को समझा जाता हैं। बहुत कम देखने को मिलता है कि पुरुषों को इस बात के लिए प्रताड़ित किया जाता है कि उसकी बहुत सारी महिला मित्र है। लेकिन पुरुषों की महिला मित्र ना होने पर उन्हें समलैंगिक होने या भी यौनिक कमजोरी जैसे मजाक उड़ाते हुए परेशान किया जाता हैं। क्योंकि हमारे समाज मे आज भी समलैंगिक पुरुष के  सम्मानजनक स्थान नही हैं।

अगर हम उन पुरुषों की बात करें जो अपने घरों की महिलाओं के करियर प्रति जागरूकता दिखाते है तो उनके मर्द होने पर सवाल खड़े कर दिए जाते है

ज्यादातर महिलाओं पर परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी को ही प्राथमिक माना गया है। इसलिए महिलाओं को ऐसे व्यवसाय में जाने की अनुमति दी जाती है जिसमें परिवार की देखभाल वाली प्राथमिक जिम्मेदारी में कोई ख़लल ना पड़े। अगर परिवार को यह महसूस होता है कि महिलाओं की प्राथमिक  जिम्मेदारी में कोई कसर रह जाती है तो महिलाओं को या तो नौकरी छोड़ने  का दवाब डाला जाता हैं या फिर व्यवसाय बदलने पर जोर दिया जाता है। इसके चलते वर्क फ़ोर्स में महिलाओं की भागेदारी में कमी का आना उसका एक परिणाम हैं।

जो महिलाएं इन सब बातों को दरकिनार करके अपने करियर के बारे में सोचती है तो उनपर मतलबी का लेबल लगा दिया जाता हैं। लेकिन पुरुषों के मामले में ऐसा नही है। पुरुषों को यह विशेषाधिकार है कि वो अपने करियर के प्रति केंद्रित हो सकते है और उन्हें किसी प्रकार से लेबल नही किया जाएगा। ऐसा इसलिए भी हो सकता हैं कि पुरुषों पर एक घर चलाने का आर्थिक भार समाजिक रूप से हैं। अगर इस विशेषाधिकार के परिणाम की बात करें तो ज्यादातर पुरुषों में करियर को लेकर  मानसिक तनावपूर्ण जीवन रहता है। करियर में गिरावट आने पर पुरुषों पर उनका बहुत गलत प्रभाव भी देखने को मिलता हैं ।

अगर हम उन पुरुषों की बात करें जो अपने घरों की महिलाओं के करियर प्रति जागरूकता दिखाते है तो उनके मर्द होने पर सवाल खड़े कर दिए जाते है, फिर चाहे वो पुरुष पिता हो या पति। ये ताना मारा जाता है कि यह कैसा मर्द है जो अपने घर की महिलाओं की कमाई पर पल रहा है। अगर जाति के दृष्टिकोण से देखें तो यह धारणा उच्च कहे जाने वाली जातियों में और ज्यादा गहरी होती नज़र आती  हैं ।

इन विशेषाधिकारों की सूची सिर्फ यही तक खत्म नहीं होती। घरों में लड़कियों और महिलाओं के समय पर बाहर जाने जैसी बहुत सारी पाबन्दियाँ हैं और पाबन्दियों को सुरक्षित माहौल की दुहाई देखकर तार्किक भी बनाया जाता है। लेकिन पाबन्दियाँ या रोक-टोक ना होने की वजह से मेरी मोबिलिटी को कोई नुकसान नही हुआ।

सामाजिक रूप से पुरुषों को लिए समय की कोई पाबन्दियाँ नही होती और इसकी कारण उन्हें दूसरो से आज्ञा या अनुमति नहीं लेनी पड़ती, बस दूसरों को सूचित करना होता है। ऐसे में यह पुरुषों की मोबिलिटी पर किसी भी प्रकार की रूकावट नही आती।निश्चित तौर पर विशेषाधिकार को लाभान्वित करके दमन की व्यवस्था को मजबूत बनाने एक चक्र हैं। इसकी वजह से लड़कियों, महिलाओं, बच्चों और कुछ पुरुषों को भी इसका शिकार होना पड़ता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि इन्ही विशेषाधिकारों के कारण पुरुषों में दया, करूणा और मानवता के भाव सही रूप विकसित नहीं हो पाते। जिन्हें विशेषाधिकार समझकर पुरुषों को लाभ नजर आता है असल में यह समाज का एक जाल है जिसमें पुरुष फँसकर एक हिंसक, अमानवीय, गुस्से वाले नक़ाब को ही अपना असली चेहरा या व्यक्तिगत चेहरा मान लेते है। इसलिए पुरुष करुणा, दया और ममता जैसे भावों से हमेशा वंचित रहते है और इसका असर पुरुषों के रिश्तों में साफ-साफ नजर आता है। फिर चाहे वो रिश्ते अपने बच्चों से हो या फिर रिश्ते पड़ोसी या देश से हो। बहुत कम पुरुष है जो अपनी भावनाओं को प्यार और शांतिपूर्ण तरीके से रखना सीख पाते है।

बदलते दौर में बहुत जरूरी हो गया है कि सामाजिक विशेषाधिकारों के जाल को तोड़कर एक शांतिपूर्ण और सुंदर जीवन को जीने के कौशल को पुरुषों में भी विकसित किया जाये। तभी ये दुनिया सुरक्षित और सुंदर बन पाएगी।

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तस्वीर साभार : kathmandupost

Comments:

  1. Ankit Kumar Tripathi says:

    Thank you so much

  2. Roki Kumar says:

    धन्यवाद आप सभी के प्यार और स्नेह मुझे ताकत देता है लिखने की

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