इंटरसेक्शनलहिंसा महिला हिंसा के ख़िलाफ़ समय सिर्फ़ आंकड़े जुटाने का नहीं, बल्कि विरोध दर्ज करने का है

महिला हिंसा के ख़िलाफ़ समय सिर्फ़ आंकड़े जुटाने का नहीं, बल्कि विरोध दर्ज करने का है

साल 2017 में 5562 केसों के साथ मध्य प्रदेश पहले, 4246 केसों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे और 3,305 केसों के साथ राजस्थान तीसरे नंबर पर है।

पेरिस समेत फ्रांस के अलग-अलग शहरों में नीली तख्तियों के साथ महिलाएं घरेलू हिंसा के खिलाफ अपना विरोध जताने उतरी थी। ये प्रदर्शन था उन महिलाओं के लिए जिनकी मौत या हत्या घरेलू हिंसा से जुड़ी घटनाओं में हो चुकी है। मार्च में शामिल महिलाएं महिला हिंसा के ख़िलाफ़ नारे लगा रही थी- “अब और नहीं ! महिलाएं सड़कों पर आ चुकी हैं।” ये प्रदर्शन घरेलू हिंसा से जुड़े एक मामले में फैसला आने के ठीक दो दिनों पहले लिया गया। कितना सुखद था ये देखना कि एक केस के लिए लाखों महिलाएं सड़क पर थी। उसे एक लैंडमार्क केस बना दिया।

अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पिछले साल फ्रांस में करीब 120 से ज़्यादा महिलाओं की हत्या उनके पार्टनर या एक्स पार्टनर्स ने की है। मार्च के बाद फ्रांस की सरकार ने एक बैठक बुलाई और घरेलू हिंसा रोकने के उद्देश्य से जुड़े कई फैसले किए। इस मार्च को फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैंक्रो ने भी अपना समर्थन दिया। फ्रांस सरकार के आंकड़े बताते हैं कि हर साल फ्रांस में 18 से 75 साल की 2,19,000 महिलाएं अलग-अलग रूप से शारीरिक और यौन हिंसा झेलती हैं लेकिन इनमें से केवल बीस फीसद ही अपनी शिकायत दर्ज करवाती हैं। विकसित यूरोपीय देश फ्रांस की ये स्थिति है। वहां भी महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से एक सोशल स्टिगमा जुड़ा है, आंकड़े तो यही तस्वीर पेश करते हैं।

अब बात हमारे देश भारत में महिलाओं की स्थिति पर। 2017 की नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट सरकार ने अब जाकर साल 2019 में जारी की है। एनआसीआरबी की रिपोर्ट 2017 के आंकड़ों पर नज़र डाले तो ये लगातार इस बात की गवाही देती नज़र आती है कि हमारे देश में महिलाएं कितनी असुरक्षित हैं। बहुत सारे एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ता घरेलू हिंसा रोकने के लिए काम कर रहे हैं। सरकारी विज्ञापनों में भी घरेलू हिंसा रोकथाम और महिला सुरक्षा के विषयों पर केंद्रित नजर आते हैं। लेकिन शायद इस दशक में 2012 की दिल्ली गैंगरेप की घटना छोड़कर किसी अन्य मुद्दे पर लोगों का सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन शायद ही देखने को मिला।

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घरेलू हिंसा का मामला पति-पत्नी के रिश्ते के बीच एक सामान्य बात मानी जाती है। महिलाओं की सोशल कडीशनिंग इस तरह की जाती है कि पति है कभी-कभी हाथ चला दिया करता है, ये आम है। भारत में दहेज तो अभी भी शादी की प्री-कंडिशन है। दहेज की उगाही के बावजूद हमारे यहां घरेलू हिंसा के मामलों को गंभीरता से नहीं लेते जब तक दहेज के नामपर लड़की की हत्या न कर दी जाए। औरतें सालों साल, यहां तक कि उम्रभर टॉक्सिक और प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति के साथ जुड़ी रहती हैं। तलाक का विकल्प उनके पास नहीं होता। उनकी ट्रेनिंग ही ऐसी है कि उनका सारा जीवन एक मर्द के भरोसे ही चले।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि हर साल बड़ी तादाद में हमारे देश में महिलाओं का अपहरण हो रहा है।

कल इंटरनैशनल डे फॉर द एलिमिनेशन ऑफ वॉयलेंस अगेंस्ट वीमन पर तमाम सरकारी और गैर-सरकारी आयोजन हुए होंगे। चुने हुए जनप्रतिनिधि महिला सुरक्षा को लेकर अच्छी-अच्छी आदर्शवादी बातें कही होंगी। अखबारों में उनके बयान छपें होंगे। लेकिन जब उन्नाव में विधायक पर बलात्कार का आरोप लगेगा तो तमाम जनप्रतिनिधि अपनी-अपनी पार्टी विशेषकर कारसेवक बन आरोपी का कवच धारण कर लेंगे। गौर कीजिए राजनीतिक पार्टियां जिन्हें टिकट देती हैं, उनमें से कितनों के ऊपर घरेलू हिंसा, रेप और महिलाओं के प्रति हिंसा का आरोप है। अव्वल तो देश की कैबिनेट में रेप के आरोपी मंत्री बने बैठे हैं। देश के गृहमंत्री पर महिला की जासूसी करने के कथित आरोप हैं 2019 लोकसभा चुनाव में चुनकर आए 539 सांसदों में से 233 सासंदों का क्रिमिनल रिकॉर्ड है। आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों में 44 फीसद की बढ़त हुई है। ये तो कुछ उदाहरण हैं, बाकी उलुल-जुलूल बयानवीरों को तो छोड़ ही दें।

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2017 में महिलाओं साथ होनेवाले अपराध के खिलाफ देशभर में कुल 3,59,849 केस दर्ज हुए थे। जबकि साल 2016 में इन केसों की संख्या 3.38 लाख थी, यानी साल दर साल हमारे देश में महिलाएं असुरक्षित होती जा रही हैं। राज्यों में सबसे ज़्यादा असुरक्षित उत्तर प्रदेश है। साल 2017 में उत्तर प्रदेश में कुल 56,011 केस दर्ज किए गए, जबकि 2016 में इनकी संख्या 49,262 थी और 2015 में 35,908। केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली हमेशा की तरह सबसे खराब स्थिति में पाई गई है। साल 2017 में दिल्ली में महिलाओं के साथ हुई हिंसा के 13076 केस दर्ज किए गए। साल 2016 के मुकाबले इसमें मामूली कमी आई है।

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द हिंदू की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के खिलाफ दर्ज केस में 27.9 फ़ीसद पति और रिश्तेदारों की क्रूरता, 21.7 फ़ीसद महिलाओं की मॉडेस्टी को नुकसान पहुंचाने, 20.5 फ़ीसद महिलाओं के अपहरण और 7 फ़ीसद रेप से जुड़े हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि हर साल बड़ी तादाद में हमारे देश में महिलाओं का अपहरण हो रहा है। साल 2017 में महिलाओं के अपहरण के 74,958 मामले दर्ज हुए। इसमें भी उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर बना हुआ है। 

बात अगर रेप केस की करें तो साल 2017 में 5562 केसों के साथ मध्य प्रदेश पहले, 4246 केसों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे और 3,305 केसों के साथ राजस्थान तीसरे नंबर पर है। साल 2017 में देशभर में रेप के कुल 32334 केस दर्ज किए गए हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि ये सिर्फ वे आंकड़े हैं जो रिकॉर्ड में दर्ज हैं वरना ऐसे लाखों केस घर की चारदीवारी में दबकर रह जाते हैं।

हमें भी यह नारा लगाना होगा-अब बस! हम जो मानसिक और शारीरिक यातनाएं झेलते है वह रिपोर्ट्स में बस आंकड़ों के रूप में नहीं बल्कि हमारे विरोध के रूप में दर्ज होना ज़रूरी है।

अलग-अलग अपराधों से जुड़ी रिपोर्ट में हज़ारों आंकड़े हैं जो बताते हैं हमारे देश की महिलाएं हर दिन हिंसा झेलती हैं। चाहे वह घरेलू हिंसा हो, रेप हो, यौन हिंसा हो, अपहरण हो हर जगह महिलाओं और बच्चियों की स्थिति सबसे बदतर हर साल पाई जाती है। हमारी सरकारों को महिला सुरक्षा के नामपर अबतक इतना ही समझ आया है कि सीसीटीवी कैमरे और बसों में मार्शल तैनात किए जाने चाहिए। लेकिन वे सर्विलांस, निजता और सुरक्षित माहौल तैयार करने में नाकाम ही रहे हैं। फास्ट ट्रैक कोर्ट, सर्वाइवर्स को मिलने वाली शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य, कानूनी, वित्तीय सहायता की ज़रूरत होती है उनपर बात नहीं होती। ऐसे केस साल दर साल लंबित पड़े रहते हैं। पुलिस के पास जाने पर अनचाहे सवालों का सामना करना पड़ता है। सामाजिक ढांचा तो एक वजह है ही ऐसे में हम यह सोच भी नहीं सकते कि जो केस दर्ज नहीं होते उन मामलों में पीड़ित कितनी मानसिक और शारीरिक यातनाओं से गुज़रती होगी।

लब्बोलुआब में कहें तो चाहे वो फ्रांस हो या भारत- राजनैतिक, भौगोलिक पैमानों पर भले अलग हों, लेकिन एक बात जो पुरुषवादी सत्ता को जोड़ती है- वह है पितृसत्ता। महिलाओं को अपनी सुरक्षा के लिए सड़कों पर, घर में, कार्यालय में, कॉलेज में, पब्लिक स्पेस में विरोध जताना होगा। हमें भी यह नारा लगाना होगा-अब बस! हम जो मानसिक और शारीरिक यातनाएं झेलते है वह रिपोर्ट्स में बस आंकड़ों के रूप में नहीं बल्कि हमारे विरोध के रूप में दर्ज होना ज़रूरी है।

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तस्वीर साभार : shafahome

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