विज्ञान को आमतौर पर ‘लड़कों का’ विषय माना जाता है। इसमें औरतों का योगदान बहुत कम रहा है क्योंकि या तो उन्हें विज्ञान पढ़ने ही नहीं दिया जाता या अपने काम के लिए उचित सम्मान नहीं मिलता। इसके बावजूद कुछ बेमिसाल औरतें हैं जिन्होंने विज्ञान की दुनिया में बड़े तीर मार लिए हैं। हम बात करेंगे ऐसी ही एक औरत की। आइए मिलते हैं मेडिकल रिसर्चर कमल जयसिंह रणदिवे से।
कमल का जन्म महाराष्ट्र के पुणे में 8 नवंबर 1917 को हुआ था। पिता दिनकर दत्तात्रेय समर्थ फ़र्गुसन कॉलेज में जीवविज्ञानी यानी बायोलॉजिस्ट थे। कमल की प्रारंभिक शिक्षा पुणे के सबसे पुराने गर्ल्स स्कूल, हुज़ूरपागा में हुई। हालाँकि उनके पिता चाहते थे कि दसवीं के बाद वे मेडिकल पढ़ें, उन्होंने फ़र्गुसन कॉलेज से बॉटनी और जूलॉजी में बीएससी की और एक होनहार स्टूडेंट होने के नाते साल 1934 में डिस्टिंक्शन के साथ पास हुईं।
कमल का परिवार चाहता था कि कॉलेज के बाद उनकी शादी एक डॉक्टर से की जाए और शायद ऐसा ही होता अगर उनकी मुलाक़ात गणितज्ञ जयसिंह त्रिम्बक रणदिवे से न हुई होती। बाईस साल की उम्र में उन्होंने जयसिंह से शादी कर ली। जयसिंह नहीं चाहते थे कि शादी की वजह से कमल का करियर रुका रहे इसलिए उन्होंने उन्हें पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके समर्थन से कमल ने पुणे के एग्रीकल्चर कॉलेज से एमएससी की और साइटोजेनेटिक्स यानी कोशिका जनन प्रकरण पर अपना थीसिस पेश किया। साल 1943 में एमएससी पूरा करने के बाद वे जयसिंह के साथ मुंबई चली गईं।
मुंबई में कमल और जयसिंह टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के पास रहते थे, जिसकी वजह से उनकी दोस्ती पैथोलोजिस्ट डॉ वसंत रामजी खानोलकर से हो गई। यही डॉ खानोलकर ने बाद में इंडियन कैंसर रिसर्च सेंटर (ICRC) की स्थापना की और साल 1960 में मुंबई यूनिवर्सिटी के कुलपति भी बने। कमल ने इनके गाइडेंस में मुंबई यूनिवर्सिटी से पीएचडी की। साल 1949 में पीएचडी ख़त्म होने के बाद उन्हें रिसर्च फ़ेलोशिप मिला और डॉ खानोलकर की सलाह पर अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में वे टिश्यू कल्चर पर रिसर्च करने चली गईं। यहां उन्होंने डॉ जॉर्ज गे के साथ काम किया, जिन्होंने कैंसर के सेलों को लंबे समय तक ज़िंदा रखने का तरीका आविष्कार किया था ताकि उन पर शोध किया जा सके।
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कमल एक देशप्रेमी थीं। उन्हें इस बात का बहुत अफ़सोस था कि भारत के होनहार छात्र करियर के लिए बाहर चले जाते हैं और देश उनकी प्रतिभा, उनके योगदान से वंचित रह जाता है। उन्होंने फ़ैसला किया कि रिसर्च के बाद वे भारत वापस जाएंगी और अपना काम वहां आगे बढ़ाएंगी। उन्होंने अपने सहकर्मियों को भी यही सलाह दी कि वे अपने देश में रहकर अपनी तरफ से वहां के हालात सुधारने की कोशिश करें।
जॉन हॉपकिंस से कमल वापस भारत आईं और सीनियर रिसर्च अफसर के तौर पर ICRC से जुड़ीं। यहां उन्होंने भारत की पहली टिश्यू कल्चर लेबोरेटरी की स्थापना की और प्रायोगिक जीवविज्ञान (एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी) की लेबोरेटरी भी शुरू की। साल 1966 से साल 1970 तक वे ICRC की डायरेक्टर रहीं। इस बीच उन्होंने लेकिमिया, ब्रेस्ट कैंसर और अन्नप्रणाली यानी एसोफैगस के कैंसर पर शोध किया। लेप्रोसी या कुष्ठरोग फैलानेवाले बैक्टीरिया पर उनके शोध ने लेप्रोसी वैक्सीन के आविष्कार में मदद की। अपने कार्यकाल में उन्होंने कैंसर और लेप्रोसी पर 200 से भी ज़्यादा रिसर्च पेपर लिखे, ख़ासकर ब्रेस्ट कैंसर पर जिसपे उस दौर में ज़्यादा रिसर्च नहीं हुआ था
विज्ञान की दुनिया से जुड़ीं औरतों के लिए कमल रणदिवे एक मिसाल हैं। उनके योगदान से भारत में मेडिकल रिसर्च को नई दिशा मिली है।
कमल फेमिनिस्ट थीं। उन्हें लगता था कि विज्ञान का क्षेत्र पुरुष-प्रधान है और महिलाओं को विज्ञान में अपना करियर बनाने का मौका नहीं दिया जाता। वे चाहती थीं कि वंचित वर्ग की महिलाओं को खासतौर पर ऐसे मौके मिलें। साल 1972 में उन्होंने ICRC से 11 महिला सहकर्मियों के साथ इंडियन वीमेन साइंटिस्ट्स एसोसिएशन (IWSA) की स्थापना की। आज देश भर में IWSA की 11 शाखाएं हैं , औरतों को विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाने में जिनका निरंतर योगदान रहा है।
औरतों के स्वास्थ्य में ख़ास रुचि रखनेवाली कमल ने सरकार के आयोजित स्वास्थ्य कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे गांव -गांव जाकर वहां की औरतों को स्वास्थ्य-संबंधित जानकारी और सलाह देतीं। साल 1989 में रिटायरमेंट के बाद उन्होंने ‘सत्य निकेतन’ संस्था की स्थापना की, जिसका लक्ष्य था आदिवासी महिलाओं और बच्चों के पोषण पर आंकड़े एकत्रित करना और उन पर शोध करना। साल 2001 में अपने देहांत तक वे इस संस्था के नेतृत्व में थीं। भारत सरकार ने साल 1982 में कमल को पद्म भूषण से नवाज़ा। इसके अलावा उन्हें साल 1964 में मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया की तरफ से सिल्वर जुबली रिसर्च पुरस्कार भी मिल चुका था।
एक मेधावी रिसर्चर और एक निष्ठावान समाजसेविका होने के अलावा कमल एक दिलेर, खुशमिज़ाज़ और बेहद प्यारी इनसान थीं। अपने जूनियर्स को वे एक मां की तरह स्नेह करती थी जिसके कारण वे उन्हें प्यार से ‘बाई’ बुलाते थे। उन्हें अपने सहकर्मियों के साथ रोज़ नए मुद्दों पर घंटों चर्चा करना बहुत पसंद था। वे सबके लिए कर्मठता और बुद्धिमत्ता की एक प्रतीक थीं। विज्ञान की दुनिया से जुड़ीं औरतों के लिए कमल रणदिवे एक मिसाल हैं। उनके योगदान से भारत में मेडिकल रिसर्च को नई दिशा मिली है। हम उनकी प्रतिभा, उनकी मेहनत और उनके जज़्बे को सलाम करते हैं।
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तस्वीर साभार : artsandculture
Nice… Interesting read
प्रेरण्यादायी!