इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ समलैंगिक पहचान के साथ मेरे संघर्ष और बनारस की गलियों में ‘सतरंग’ की तलाश

समलैंगिक पहचान के साथ मेरे संघर्ष और बनारस की गलियों में ‘सतरंग’ की तलाश

संविधान ने सबको समानता और सम्मान से जीने का अधिकार दिया है। एलजीबीटी सिर्फ़ सेक्स से नहीं बल्कि अपने अस्तित्व, आत्मसम्मान और पहचान का मुद्दा है।

आज धारा 377 को सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से हटाये और अतार्किक करार करते हुए एक साल से भी ऊपर का समय बीत चुका है। लेकिन हमें आज भी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिली है। हालांकि बड़े शहरों में जैसे की मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरु, हैदराबाद और चंडीगड़ जैसे शहरों में अब धीरे-धीरे जागरूकता अभियानों, कार्यशालाओं, एनजीओं और समलैंगिक गौरव यात्राओं के माध्यम से बदलाव आने लगा है, जिससे वहाँ के लोग भी काफ़ी जागरूक होने लगे हैं एलजीबीटी समुदाय के प्रति। लेकिन जब बात आती है छोटे शहरों की, तो छोटे शहरों में आज भी कोई बदलाव अभी तक नहीं आया है। मेरा जन्म धार्मिक नगरी बनारस में हुआ है। यों तो आज बदलावों के संदर्भ में बनारस आगे बढ़ रहा है पर एलजीबीटी समुदाय के लिए आज भी ये जस का तस बना हुआ है। मैंने बनारस में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की। ख़ुद को तलाशने और पहचानने के दौरान मुझे ढेरों संघर्षों से जूझना पड़ा। इसके बाद मैंने पाया कि मैं भी एलजीबीटी समुदाय से जुड़ा हुआ हूँ। पर इस पहचान को तलाशने और स्वीकारने का मेरा सफ़र इतना आसान नहीं था।

मुझे याद है कि जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था तो उस समय मैं अपने पापा के साथ साइकिल में बैठकर स्कूल से वापस आता और रास्ते में एक-दो लड़के मुझे बेहद पसंद आते थे। तभी मुझे एहसास हो गया था कि मैं बाकी लड़कों से अलग हूँ। फिर किशोरावस्था में मेरा आकर्षण लड़कों के प्रति और बढ़ने लगा। ये अनुभव मेरे लिए घुटन भरे थे। मुझे घुटन होती थी ये सोचकर कि ‘क्यों मेरा आकर्षण सेम-सेक्स के प्रति हो रहा है। मुझे ऐसा लगता कि कहीं मुझे कोई शारीरिक दिक़्क़त तो नहीं।’

दसवी कक्षा तक मेरी ये घुटन और भी बढ़ने लगी। मेरे मन में होने वाले ये बदलाव मेरी उलझने बढ़ाने लगे थे। इसके चलते पढ़ाई में मैं अपना ध्यान भी केंद्रित नहीं कर पा रहा था। मेरे मन में सिर्फ़ यही चलता रहता था कि क्या मुझे अपनी उलझनों के बारे में घर में बताना चाहिए? क्या वे मेरी बातों को समझेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं वे मुझे मानसिक रूप से बीमार समझने लगे! इसके बाद मैंने खुद से सवाल किया कि ‘क्या मैं बीमार हूँ? या फिर किसी से प्रभावित हो रहा हूँ?’ ज़वाब में मैंने पाया कि ‘नहीं मैं बीमार नहीं हूँ और न ही किसी से प्रभावित हूँ, क्योंकि मैंने अभी तक कहीं भी किसी से भी समलैंगिकता के बारे में कुछ नहीं सुना था।’

हमारे संविधान ने सबको बराबर का हक और सम्मान से जीने का अधिकार दिया है। यह मुद्दा सिर्फ सेक्स से जुड़ा हुआ नहीं हैं। बल्कि यह मुद्दा, अपने अस्तित्व, आत्मसम्मान, और पहचान का है।

स्कूल के दौरान जब कई बार मैं ख़ुद को लड़कों की बातों में सहज नहीं पाता तो लड़के मझें ताने मारते कि ‘देखो कैसे लड़कियों की तरह शर्मा रहा और छक्कों की तरह भाग रहा है।’ यहाँ तक कि स्कूल में टायलट इस्तेमाल करने भी लड़के मुझपर ताना मारते। वे कहते कि ‘तुम तो छक्के हो। फिर हम लोगों के लड़कों के बाथरूम में क्यों आए हो? जाओ भागो यहाँ से छक्के।’ ऐसे तानों के चलते मैंने स्कूल में टायलट का इस्तेमाल करना बंद कर दिया था। इसके चलते देर तक पेशाब रोकने की वजह से मेरे पेट में असहनीय दर्द होता। ये सब मेरी घुटन को और बढ़ाने लगा था। कई बार मैं अपने हाथों से खुद के ही पेट में, पैर में, मुँह में और अपने प्राइवेट पार्ट्स में खुद को मारता और भगवान से ये पूछता था कि भगवान आपने मुझे इस रूप में आखिर क्यों पैदा किया है इससे अच्छा तो मेरा जन्म ही नहीं होता इस संसार में।

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फिर एकदिन साल 2014 में मुझे अख़बार से ‘सत्यमेव जयते कार्यक्रम’ के बारे में पता चला कि आने वाले रविवार को ‘अल्टरनेटिव सेक्सुअलिटी’ के विषय पर एक एपिसोड आने वाला है। रविवार को जब मैंने टीवी पर ये शो देखना शुरू किया तो उस समय मेरी माँ भी साथ में थी। शो में आमिर खान ने दीपक कश्यप से पूछा कि ‘क्या कभी भी उनके स्कूल में उनकी कोई भी लड़की दोस्त नहीं थी?’ दीपक कश्यप ने कहा कि ‘लड़कियाँ दोस्त थी। लेकिन जब बात उनका हाथ पकड़ने या और बात करने की आती थी तो मुझे अच्छा नहीं लगता था।’

उसी वक़्त मैंने तुरंत अपनी माँ से बोला कि ‘माँ देखिये! ये जैसा अपने बारे में बता रहे हैं, मेरी भी बिल्कुल वैसी ही फीलिंग्स है। मुझे भी लड़कियों का हाथ पकड़ने में या लड़कियों में कोई दिलचस्पी नहीं है।’ लेकिन उस वक़्त मेरी माँ ने मेरी बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए टीवी बंद कर दिया और कहा कि ‘ये सब जो दिखा रहा है टीवी में, ये सब फालतू बातें है। समय के साथ सबकुछ बदल जाएगा।’

उस समय मुझे बुरा भी लगा और अच्छा भी। बुरा इसलिए लगा क्योंकि मेरी माँ ने मेरी बातों को नज़रंदाज़ कर दिया और अच्छा इसलिए लगा कि इस शो के ज़रिए मुझे ये सन्तुष्टि हो गयी कि भले ही बनारस में मेरे जैसा कोई इंसान हो या ना हो लेकिन दूसरे शहरों में मेरे जैसे और भी समलैंगिक लोग हैं और उसी समय मुझे यह भी पता चला उस एपिसोड के माध्यम से की एलजीबीटीक्यु नाम का कोई समुदाय होता है और उस समुदाय के अंदर ही मैं भी आता हूँ।

सितम्बर 2018 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के दस दिन पहले मैंने इस विषय पर अपनी माँ से खुलकर चर्चा की थी। तब पहली दफ़ा मेरी बातें सुनकर मेरे बारे में जानकर मेरी माँ बिल्कुल चौंक गयी थीं। मेरी माँ ने मुझसे कई दिन तक बातें भी करना बंद कर दिया था। मगर उसके बाद धीरे-धीरे मैंने इस विषय पर अपनी माँ को और अच्छे से समझाया, अब मेरी माँ मुझे समझने लगी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद जब मैंने अपने पापा को अख़बार में छपी खबर के ज़रिए समझने की कोशिश की तो वो भी चौंक गए थे और आज भी मेरे पापा इस बात को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाए है और वो मुझसे अक्सर कहते है कि उनको ये फिल्मी दुनिया की बातें लगती है।

आज मैं अपने लेख के ज़रिए ये संदेश देना चाहता हूँ कि ‘बनारस में अगर कोई व्यक्ति एलजीबीटी समुदाय से है तो मेरी उन सभी लोगों से दरख्वास्त है की आप अपने अधिकारों के लिए आगे निकलकर आए, क्योंकि अगर वो खुद को स्वीकार करके, आगे आकर अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ेंगें तब तक कोई भी दूसरा व्यक्ति उनके समर्थन में नहीं बोलेगा।’ हमारे संविधान ने सबको बराबर का हक और सम्मान से जीने का अधिकार दिया है। यह मुद्दा सिर्फ सेक्स से जुड़ा हुआ नहीं हैं। बल्कि यह मुद्दा, अपने अस्तित्व, आत्मसम्मान, और पहचान का है।

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यह लेख बनारस के रहने वाले तपन गांगुली ने लिखा है।

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