संस्कृतिख़ास बात ख़ास बात : ‘मैला ढ़ोने’ की अमानवीय प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित बेज़वाड़ा विल्सन

ख़ास बात : ‘मैला ढ़ोने’ की अमानवीय प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित बेज़वाड़ा विल्सन

बेज़वाड़ा ने एक ज़मीनी स्तर का आंदोलन शुरू किया जिससे हाथों से मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो सके। उस आंदोलन का नाम था- सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए)।

सफ़ाई कर्मचारियों के हाथ से मैला ढोने की प्रथा के विरुद्ध ताउम्र संघर्ष करनेवाले बेज़वाड़ा विल्सन, दलितों के नेतृत्व में एक ऐसे ज़मीनी स्तर के आंदोलन बनाने की बात करते हैं जिससे इस समुदाय को इस काम से हमेशा के लिए मुक्ति मिले।

हाथों से मैला ढोने से और इसकी वजह से दलित समुदाय के विरुद्ध जो भेदभाव बना रहता है उसके खिलाफ बेज़वाड़ा विल्सन ने पुरज़ोर आवाज़ उठाई है। बेज़वाड़ा एक ऐसे दलित परिवार में जन्मे जिसमें पीढ़ियों से हाथ से मैला ढोने का काम किया जाता था। अपने समुदाय के ऊपर होने वाले अन्याय को देखकर जो आक्रोश उनमें जागा उसने उन्हें दिशा दिखाई।

बेज़वाड़ा ने एक ज़मीनी स्तर का आंदोलन शुरू किया जिससे हाथों से मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो सके। उस आंदोलन का नाम था-  सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए)। साल 1993 से आज तक, एसकेए ने देशभर में वालंटियरों  की मदद से सामाजिक और कानूनी लड़ाई जारी रखी है, जिसकी वजह से हज़ारों दलितों को इस अमानवीय प्रथा से आज़ादी मिली है। साल 2016 में  बेज़वाड़ा विल्सन को दलितों के जन्मसिद्ध मानवीय गरिमा के अधिकार को  वापस लेने के अथक प्रयासों के लिए रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बेज़वाड़ा विल्सन से स्मारिणीता शेट्टी और स्नेहा फ़िलिप की ख़ास बातचीत के ज़रिए आइए जानते है उनके सफ़र को –

सवाल : आप क़रीब तीन दशक से ज़्यादा समय से सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) चला रहे हैं। एक आंदोलन को चलाने और उसे इतने लम्बे समय तक चलाए रखने के इस लंबे संघर्ष के बारे में कुछ बताएँ?

बेज़वाड़ा : इसके निर्माण सिर्फ़ संघर्ष रहा। इसमें ग़ुस्सा और पीड़ा भी थी जिससे आंदोलन को उभरकर आने की जगह मिली। हमने इतना ज़रूर किया कि अपने ग़ुस्से को मज़बूती दी और एक दिशा दी। यही आगे बढ़कर सफाई कर्मचारी आंदोलन बन गया। एसकेए रजिस्टर्ड भी नहीं है, क्योंकि यह औपचारिक संस्था नहीं है – यह एक आंदोलन की धारा है, जिसमें लोग जुड़ते जाते हैं। मुझे आज भी ग़ुस्सा आता है ये देखकर कि आज भी ये समस्या क्यों मौजूद है (हाथ से मैला ढोने की समस्या)। इतने सालों के बाद भी और इतने प्रयासों के बावजूद। हम लोगों को संगठित करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं, जो हम कर रहे हैं वो यह है कि इस ग़ुस्से को साथ लेकर एक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। और दूसरे लोग जिनमें यही ग़ुस्सा भरा है और उन्हें हमारी दिशा सही लगती है, वे हमारे साथ जुड़ रहे हैं। 

सवाल : शुरुआत में हाथ से मैला ढोने के बारे में आपने कैसे जागरूकता बढ़ायी?

बेज़वाड़ा: शुरुआत में सबसे बड़ी अड़चन थी कि इस समस्या के बारे में बात करने की कोई भाषा ही मौजूद नहीं थी। समय के साथ-साथ हम आज़ादी, पुनर्वास और उन्मूलन (हाथ से मैला ढोने का) की बात करने लगे। पर ये शब्द बाद में आये। जब हमने अपना काम शुरू किया था हमें सिर्फ ये मालूम था कि किसी को भी ऐसा काम करने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए। 

तब से अब तक का सफर काफी लम्बा रहा है। लेकिन इस प्रक्रिया से हम इस बात को समझ भी पाए हैं कि हमें गुलामों का एक समुदाय बनाया गया है। ये एहसास आने से पहले हम ये मानते थे कि हम सिर्फ गुलाम ही बन सकते हैं और इससे कभी भी बाहर नहीं निकल पाएँगे। ये बात हमारे अंदर गहरी पैठी हुई थी। हमें लगता था कि हमारी गुलामी के लिए हम खुद ही ज़िम्मेदार थे, क्योंकि हम निकम्मे थे। हमारी कोई आशाएँ या सपने नहीं थे। क्योंकि हम अनपढ़, कमज़ोर और गरीब थे। फिर साल 1991 में ‘बाबासाहेब अम्बेडकर के शताब्दी महोत्सव’ में मुझे कुछ साहित्य मिले पढ़ने को। उनमें बेहद साफ़ लिखा था – ‘हम मैला ढोने वाले इसलिए नहीं हैं क्योंकि हम गरीब, कमज़ोर या अनपढ़ हैं या हमने मैला ढोने का काम खुद से चुना है। ये इसलिए है क्योंकि किसी ने हमें मैला ढोने वाला बनाया है।’ तब हमें यह समझ में आया कि किसी ने हमें बन्दी बनाकर रखा हुआ है।

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इसके बाद, जल्द ही मैला ढोने वाले समुदाय के अतिरिक्त समुदायों ने भी एकजुटता दिखाई क्योंकि ये लड़ाई किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं है, ये पूरे तंत्र के खिलाफ है। एकजुटता और दूसरों के सहयोग से हमें बल मिला। समुदाय ने मुद्दे को समझना भी शुरू किया। कोई किसी दूसरे का मल साफ़ नहीं करना चाहता था लेकिन परिस्थितियों की वजह से वे ऐसा कर रहे थे। जब हमनें उनसे कहा कि ‘जब और लोग दूसरों का मल साफ़ किये बिना जी रहे हैं, तो तुम भी उसके बिना क्यों नहीं जी सकते?’ तब वे सोचने पर मजबूर हुए। इसके बाद, जो समुदाय अभी तक चुप था उसने खुल कर बोलना शुरू किया। मुक्ति की शुरुआत तब हुई जब हाथ से मैला ढोने वालों ने इस मुद्दे पर खुद अपनी चुप्पी तोड़ी और मुखर होकर बोलना शुरू किया। और जब लोगों का मुद्दे में विश्वास बढ़ा तब वे अपने आप ही आंदोलन से जुड़ गए।

सवाल : कई दशकों से आप इस मुद्दे पर काम करते रहे हैं क्या आपने सरकार की प्रतिक्रिया में फ़र्क देखे हैं?

बेज़वाड़ा : हमने कुछ फ़र्क देखे हैं पर गति बहुत धीमी है। शुरुआत में सरकार की तरफ से इसपर दिलचस्पी या प्रयास शून्य के बराबर थे। समय के साथ इसमें बदलाव आया है। पर सरकार का हमेशा वही एक एजेंडा नहीं बना रह सकता। उनकी क्षमता और स्थायित्व सिर्फ पाँच साल का है। पाँच साल के बाद वे अपना पैटर्न बदल देते हैं।

‘हम मैला ढोने वाले इसलिए नहीं हैं क्योंकि हम गरीब, कमज़ोर या अनपढ़ हैं या हमने मैला ढोने का काम खुद से चुना है। ये इसलिए है क्योंकि किसी ने हमें मैला ढोने वाला बनाया है।’ 

सवाल : अगर सरकार के अंदर एजेण्डे और प्राथमिकताएँ बदलती हैं तो आप गति कैसे बनाए रखते हैं?

बेज़वाड़ा : सरकार कहेगी कि ये समस्या ख़त्म हो चुकी है और लोग उनकी बात का विश्वास भी कर लेंगे। पर ये हमारे ऊपर है कि हम लोगों को याद दिलाते रहें कि समस्या अभी बनी हुई है। हम जंतर-मंतर पर इकट्ठे होंगे मीडिया से बात करेंगे। इन सबमें महिलाएँ केंद्र में होंगीं। क्योंकि जब वो लोकतांत्रिक सरकार से सवाल करती हैं और न्याय माँगती हैं तो सरकार और लोगों को उनकी बात सुननी ही पड़ती है। 

सवाल : आपके प्रयासों से मैला ढोने के कानून में बदलाव किया गया, इस संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?

बेज़वाड़ा : आंदोलन ने कानून बदलने के लिए सरकार पर दबाव डाला। पहले हम सरकार के प्रतिनिधियों से साल 2010 में मिले और मैन्युअल स्केवेंजिंग एक्ट के प्रारूपण में हम शामिल हुए। तीन साल बाद जब साल 2013 में यह एक्ट लागू हुआ हमें लगा कि हमारा काम हो गया। और हमने सरकार के साथ बातचीत बंद कर दी। पर जब अमल करने की बात आयी तो कुछ भी नहीं बदला क्योंकि नौकरशाही का रवैया और व्यवहार वैसा ही बना रहा।

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सवाल : हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के प्रयासों के बारे में बताएँ।

बेज़वाड़ा : पुनर्वास के लिए कोई अच्छे प्रयास नहीं हुए हैं। आप महिलाओं को दो भैसें और कुछ पैसा देकर ये नहीं मान सकते हैं कि वे खुश हो जाएँगी। क्योंकि जब आप ऐसे व्यवहार और रवैयों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं जो 5000 साल पुराने हैं, तो पुनर्वास और रोज़गार के मायनों की समग्र और स्पष्ट समझ होनी चाहिए। 

सवाल : भारत में सरकार पुनर्वास को सिर्फ पैसे से जोड़कर देखती है।

बेज़वाड़ा : बात सिर्फ पैसे की नहीं है। जिस मदद की ज़रूरत है उसमें पैसा सबसे अंत में और सबसे कम ज़रूरत की चीज़ है। पर भारत में, सरकार पुनर्वास को सिर्फ पैसे से जोड़कर देखती है। सरकार को हाशिये पर खड़े लोगों के प्रति समाज के रवैये और व्यवहार को बदलने की कोशिश भी करनी चाहिए। हमारी तरफ से इस देश के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि हाथ से मैला ढोने वालों ने हम सबके लिए सब्सिडी प्रदान की है – उनके काम का आर्थिक लाभ हम सब ने उठाया है। 

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यह लेख मूल रूप से इंडिया डेवलपमेंट रिव्यु पर प्रकाशित हुआ था और यहाँ देखा जा सकता है, जिसका हिंदी अनुवाद मनीषा चौधरी ने किया है।

तस्वीर साभार : flickr

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